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वैचारिकी संग्रह

दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन खंड - 4

दत्तोपंत ठेंगड़ी


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।

शुभाशुभ परित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः ॥

श्रीमद्भागवद् गीता - १२/१७

(जो न कभी हर्षित होता है न शोक करता है- जो न पछताता है-न इच्छा करता है तथा जो शुभ अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है ऐसा भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।)

अर्पण

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी

की

पूज्य माता

सौ. जानकी बाईं ठेंगड़ी

की

पावन स्मृति को

सादर समर्पित

दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

(खंड-4)

श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण, राष्ट्र का औद्योगिकीकरण, उद्योगों का श्रमिकीकरण, राजनीति निरपेक्ष, राष्ट्र समर्पित, राष्ट्र के सम्मुख चुनौतियाँ,

संपादन - प्रस्तुतिकरण

अमर नाथ डोगरा

सुरुचि प्रकाशन

केशव कुंज, झण्डेवाला, नई दिल्ली 110055

 

दो शब्द

'दतोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' ग्रंथमाला का चतुर्थ खंड छपकर तैयार हो गया है जिसे आपके कर कमलों में सौंपते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है। हर्षित होने का एक कारण यह भी है कि मा. ठेंगड़ी जी ने जिस भारतीय आर्थिक चिंतन तथा भारतीय परंपरा आधारित विचारधारा को सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में चरितार्थ किया है उसका प्रस्तुत ग्रंथमाला द्वारा पुनःस्मरण एवं पुनस्थापन हो रहा है।

ग्रंथमाला के प्रथम खंड में मा. ठेंगड़ी जी के बाल्य व विद्यार्थीकाल, माता पिता, घर परिवार और भारतीय मजदूर संघ संस्थापन से संबंधित घटनाएँ समाहित की गई हैं। द्वितीय व तृतीय खंड में भा.म.संघ के प्रारंभिक चार अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्गों में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा विभिन्न विषयों पर दिए गए उद्बोधन संकलित किए गए हैं। प्रस्तुत खंड में भा.म. संघ के अखिल भारतीय अधिवेशनों, बैठकों में उनके भाषण हैं। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर दिए गए उनके कुछ भाषण भी इस खंड के लिए चयनित किए गए हैं।

"बदलते परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के सम्मुख खड़ी चुनौतियाँ" तथा नव दधीचि' (प.पू. श्री गुरुजी को मा. ठेंगड़ी जी द्वारा अर्पित की गई श्रद्धांजलि) और मा. मोरोपंत जी का "आत्मविलोपी तपःपूत व्यक्तिमत्व) शीर्षक से मा. ठेंगड़ी जी द्वारा गौरव प्रस्तुत खंड के विशिष्ट भाषण हैं अथवा यूँ कहें कि इस खंड की फलश्रुति हैं।

महासागर की अथाह जलराशि से जैसे कोई अंजुलि में जल भर ले उसी प्रकार मा. ठेंगड़ी जी के अथाह विचारधन से प्रस्तुत खंड में प्रकाशित किए जा रहे भाषण उनके भाषणों की मात्र एक वानगी भर है केवल झलक मात्र है किंतु अनभिज्ञता के अन्धकार में प्रकाशमान दीपशिखा समान है। दशाब्दियों पूर्व दिए गए उक्त भाषण जितने उस समय प्रासंगिक थे उतने ही आज भी हैं।

आशा है प्रस्तुत भाषणों में व्यक्त किए गए विचारों से सुधि पाठकवृंद लाभान्वित होंगे।

सादर-सप्रेम,

संपादक

ठेंगड़ी भवन

केंद्रीय कार्यालय, भा. म. संघ

27, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग

नई दिल्ली - 110002

दूरभाष: 011-23222654

इमेल: bmsdtb@gmail.com

उन्होंने कहा था……….

1. "हम विजयी होकर निकलेंगे" - अपनी विजय पर अटूट विश्वास। (प्रथम अधिवेशन दिल्ली: 12-13 अगस्त, 1967)

2. "साम्यवाद अपने ही अंतर्विरोधों के कारण टूटने वाला है" कम्युनिज्म का गहन अध्ययन।

(द्वितीय अधिवेशन कानपुरः 11-12 अप्रैल, 1970)

3. "प्रथम राष्ट्र सब कुछ उसके बाद" - प्रखर राष्ट्रवाद (तृतीय अधिवेशन मुंबई : 22-23 मई, 1972)

4. "देश पर संकट आने वाला है " दूरद्रष्टा (आपात्काल की भविष्यवाणी ) (चतुर्थ अधिवेशन अमृतसर: 19-20 अप्रैल, 1975)

5. 'जीवित व्यक्ति का कार्यालय में चित्र नहीं, अभिनंदन नहीं, व्यक्ति का नहीं केवल भारत माता का जयकार।" उच्च आदर्शवाद -ध्येयवाद।

(पंचम अधिवेशन जयपुर: 21, 22, 23 अप्रैल, 1978)

खंड- 1

अनुक्रमणिका

क्र. विषय पृष्ठ सं.

सोपान- 1 (अधिवेशनों में मा. ठेंगड़ी जी के प्रतिवेदन एवं उद्घाटन भाषण )

 

1. दत्तोपंत ठेंगड़ी परिचय 05

2. भा. म. संघ, प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन 14

(दिल्ली) संयोजक के नाते मा. ठेंगड़ी जी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

3. भा. म. संघ, प्रथम अधिवेशन, (दिल्ली) 24

- निर्वाचित महामंत्री के नाते मा. ठेंगड़ी जी का प्रथम भाषण

4. भा. म. संघ तृतीय अधिवेशन, मुंबई (प्रतिवेदन) 26

5. भा. म. संघ, चतुर्थ अधिवेशन, अमृतसर (प्रतिवेदन) 38

6. नेशनल आर्गेनाइजेशन ऑफ बैंक वर्कर्स अधिवेशन, (चंडीगढ़) 60

सोपान- 2 (विविध प्रसिद्ध भाषण )

 

1. नव दधीचि प.पू. श्री गुरुजी (पुण्य स्मरण), दत्तोपंत ठेंगड़ी 81

2. आत्म विलोपी तपःपूत व्यक्तिमत्व 106

मा. मोरोपंत जी पिंगले (सत्कार समारोह), दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. राष्ट्रधर्म के ज्ञान मार्तंड मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी 117

(पुण्य स्मरण), गोविंदराव आठवले

4. भारतीय विचार केंद्रम तिरुअनंतपुरम में मा. ठेंगड़ी जी 122

द्वारा उद्घाटन भाषण

5. बीजिंग रेडियो (चीन) द्वारा प्रसारित मा. ठेंगड़ी जी का भाषण 132

6. वैश्विक शांति के लिए उपयुक्त आर्थिक संरचना, वाशिंगटन 139

(अगस्त 1993) में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा दिया गया

7. रामलीला मैदान, दिल्ली (अप्रैल 2001) में मा. ठेंगड़ी जी का भाषण 149

8. बदलते परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के सम्मुख खड़ी चुनौतियाँ -दत्तोपंत ठेंगड़ी जी 166

क्र. विषय पृष्ठ सं.

सोपान- 3 (अखिल भारतीय कार्यसमिति बैठकों में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा मार्गदर्शन )

1. अमृतसर बैठक - 1975 201

2. पुणे बैठक - 1977 202

3. बड़ौदा बैठक - 1977 205

4. टाटानगर बैठक - 1980 212

5. मुंबई बैठक - 1981 213

6. जम्मू बैठक - 1986 213

7. पटना बैठक - 1987 216

8. जयपुर बैठक - 1989 216

9. हरिद्वार बैठक - 1988 219

10. कोलकत्ता बैठक - 1989 220

सोपान - 4 (संस्मरण)

1. उदय राव पटवर्धन (पुणे) 231

2. डॉ. ईश्वर चन्द्र (कानपुर) 235

3. सर्वेश चन्द्र द्विवेदी (लखनऊ) 237

4. श्रीमती श्रीकान्त विद्या धारप (मुंबई) 251

5. दिनेश चन्द्र त्यागी (दिल्ली) 257

6. अमर सिंह सांखला (उदयपुर) 261

7. राजेश्वर दयाल (आगरा) 263

8. सरोज मित्र (दिल्ली) 265

9. शब्द संकेत 270

10. अखिल भारतीय अधिवेशन की जानकारी 280

11. लेखक परिचय 285

 

पारिभाषिक शब्द

आर. एस. एस. (RSS) - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

सी. पी. आई (CPI) - कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया

सी. पी. आई. (एम) (CPI-M) - कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मासिस्ट)

जे. पी. आंदोलन - जय प्रकाश नारायण द्वारा संचालित जन आंदोलन

प.पू. डाक्टर जी - डा. केशव बलिराम हेडगेवार राष्ट्रीय वर्ल्ड ट्रेड स्वयंसेवक संघ के निर्माता तथा आद्य सरसंघचालक

डब्ल्यू. टी. ओ. (WTO) - आर्गेनाइजेशन (विश्व व्यापार संगठन)

बाल्को (BALCO) - भारतीय एलमुनियम कंपनी

एनरान (ENRON) - बहुराष्ट्रीय कंपनी

संघ - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

ए. आई. बी. ई. ए. - आल इंडिया बैंक इम्पलाईज एशोसिएशन

भा. रे. म. संघ - भारतीय रेलवे मजदूर संघ

शाखा - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों का नित्य प्रति एकत्रीकरण

बी. आर. एम. एस. (BRMS) - भारतीय रेलवे मजदूर महासंघ (भा.म. संघ)

ए.आई.आर.एफ. (AIRF) - आल इंडिया रेलवेमेन्ज फंडरेशन (एच.एम.एस.)

सीटू (CITU) - सैन्टर आफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सी.पी.आई मार्क्सवादी)

एटक (AITUC) - आल इंडिया ट्रेड युनियन कांग्रेस (सीपीआई)

इनटक (INTUC) - इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (कांग्रेस समर्थित)

एन एल ओ (NLO) - नेशनललेवर आर्गेनाईजेशन (कांग्रेस समर्थित)

एच एम एस (HMS) - हिंद मजदूर सभा (समाजवादी)

भा म सं (BMS) - भारतीय मजदूर संघ

पू. श्री गुरुजी - रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक

पी.एफ. (PF) - प्रोविडेंट फंड (भविष्य निधि)

सी.डी. - कम्पलसरी डिपाजिट

ए.आई.आई.ई.ए. (AIIEA) - आल इंडिया इन्शयोरेंस एम्पलाईज एशोसिएशन (सी पी एम)

एन.ओ.बी.डब्ल्यु (NOBW) - नेशनल आर्गेनाइजेशन आफ बैंक वर्कर्स (भा.म.स)

ए.आई.ओ.ई. (AIOE) - आल इंडिया आर्गेनाइजेशन आफ एम्पलायर्स

आई.एल.ओ. (ILO) - अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्था

यू.टी.यू.सी. (UTUC) - यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (वामपंथ)

डी. आर. एम. एस. (DRMS) - डिविजनल रेलवे मेल सर्विस

जे.सी.एम. (JCM) - ज्वाइंट कंसल्टेटिव मशीनरी (भारत सरकार द्वारा निर्मित)

डॉ. हेडगेवार भवन - नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय

खंड - 4

सोपान - 1

1. दत्तोपंत ठेंगड़ी परिचय

2. भा. म. संघ, प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन- (दिल्ली)-संयोजक के नाते मा. ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन

3. भा. म. संघ, प्रथम अधिवेशन, (दिल्ली) - निर्वाचित महामंत्री के नाते मा. ठेंगड़ी जी का प्रथम भाषण

4. भा. म. संघ, तृतीय अधिवेशन, मुंबई (प्रतिवेदन)

5. भा. म. संघ, चतुर्थ अधिवेशन, अमृतसर (प्रतिवेदन)

6. नेशनल आर्गेनाइजेशन ऑफ बैंक वर्कर्स अधिवेशन, (चंडीगढ़)

 

 

परिचय

नाम : दत्तात्रेय बापुराव ठेंगड़ी उपाख्य दत्तोपंत ठेंगड़ी

पिता का नाम : श्री बापुराव दाजीबा ठेंगड़ी

जन्म : अश्विन मास, बुधवार, अमावस्या (समय सायं 7:30) शक् सम्वत् १८४२ (1842) तदनुसार १० नवंबर १९२० (10 नवंबर 1920)

जन्म स्थान : आर्वी, जिला वर्धा (महाराष्ट्र)

शिक्षा : बी.ए., एलएल.बी., मॉरिस कॉलेज, नागपुर

प्रचारक : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1942 से 2004)

भाषाओं की जानकारी : हिंदी, बंगाली, संस्कृत, मलयालम, अंग्रेजी, मराठी

देहावसान : १४ अक्टूबर २००४ (पुणे) (14 अक्टूबर 2004)

प्रारंभिक काल

1. अध्यक्ष : वानर सेना आर्वी तालुका कमेटी (1935)

2. अध्यक्ष : म्युनिसिपल हाईस्कूल, आर्वी विद्यार्थी संघ (1935-36)

3. सचिव : म्युनिसिपल हाईस्कूल, गरीब छात्र फंड समिति (1935-36)

4. संगठक : आर्वी गोवारी झुग्गी झोंपड़ी मंडल (1936)

5. प्रोबेशनर : हिंदुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन सेना, नागपुर (1936-38)

संस्थापक

1. भारतीय मजदूर संघ (बी.एम.एस.) (23 जुलाई 1955-भोपाल)

2. 'भारतीय किसान संघ (बी.के.एस.) (4 मार्च 1979 कोटा)

3. सामाजिक समरसता मंच (14 अप्रैल 1983)

4. सर्वपंथ समादर मंच (14 अप्रैल 1991-मुंबई)

5. स्वदेशी जागरण मंच (22 नवंबर 1991- नागपुर)

6. पर्यावरण मंच

मार्गदर्शक : उद्घाटनकर्ता

1. अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद्

2. भारतीय विचार केंद्रम् (7 अक्टूबर 1982-तिरुअनन्तपुरम)

संस्थापक सदस्य

1. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (9 जुलाई 1949)

2. सहकार भारती

3. अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत

संरक्षक

1. ऑल इंडिया रिटायर्ड रेलवे मेन्स फेडरेशन 2. ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ पेन्शनर्स एसोसिएशन

3. ऑल इंडिया रेलवे टेलिग्राफ स्टाफ कौन्सिल

4. लोको मेकेनिकल आर्टीजन्स स्टाफ एसोसिएशन पूर्वी रेलवे

5. ऑल इंडिया स्टेनोग्राफर्स एसोसिएशन

6. ऑल इंडिया ड्राइविंग स्टाफ एसोसिएशन

7. तमिलनाडु प्रोविडेंट फण्ड एम्पलॉईज एसोसिएशन

8. वेलफेयर सोसायटी फतेहनगर, नई दिल्ली

9. उत्तर प्रदेशीय विश्वकर्मा विकास परिषद् 10. भारतीय कारीगर सूचना केंद्र, विदर्भ

11. आन्ध्र प्रदेश चेतना बुनकर (वीवर्स) फोरम (1965)

12. उत्तर प्रदेश समाज, दिल्ली 13. भारतीय कैत्तरी नेसवु थोझीलालर यूनियन, तमिलनाडु

14. भारतीय शिक्षण मंडल

15. शिल्पकार कल्याण संघ, चुनार (उ.प्र.)

16. विश्वकर्मा समाज सभा, दिल्ली

17. आल इंडिया केंद्रीय स्कूल नॉन टीचिंग स्टाफ एसोसिएशन (1973)

सहायक सदस्य

1. इंडियन एकेडमी ऑफ लेबर आर्बोट्रेटर्स

2. विश्वकर्मा प्रतिनिधि सभा, पंजाब

3. भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, नई दिल्ली

4. अनुसूचित जाति फेडरेशन (पूर्व में एम.पी. यूनिट 1943-44)

5. पिंड ग्राम सुधार सभा (पंजाब) संत हरिचंद सिंह लोगोंवाल

6. वनवासी कल्याण आश्रम सेंधवा (मध्य प्रदेश)

7. दत्त विनायक मंदिर जनकपुरी, नई दिल्ली

अन्य संगठन (श्रम)

1. इंटक में संगठन मंत्री (मध्य प्रदेश राज्य 1950-51 )

2. ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रीय अभियान समिति के गठन में विशेष भूमिका

राजनीतिक क्षेत्र

1. भारतीय जनसंघ, मध्य प्रदेश संगठन मंत्री 1951-53, एवं दक्षिणांचल संगठन मंत्री -1956-57

2. राज्यसभा सदस्य, 1964-1976

3. राज्य सभा उपाध्यक्ष मंडल सदस्य, 1968 से 1970

4. सदस्य, संसदीय परामर्श समिति, सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम

5. सचिव लोक संघर्ष समिति, आपात्काल दिसंबर 1975 से मार्च 1977

6. जनता पार्टी गठन में विशेष भूमिका

अन्य

1. अध्यक्ष : भाषा प्रचार समिति, केरल

2. उपाध्यक्ष श्रीमाँ जन्मशताब्दी समिति (पाँडेचरी) (पुदूचैरी)

3. अध्यक्ष : केरल राज्य भाषा प्रचार अधिवेशन, कोज़िक्कोड, केरल (1942)

4. अध्यक्ष : अखिल भारतीय विमुक्त जाति सेवक संघ, नई दिल्ली

1. भारतीय बुद्ध महासभा सदस्य

2. वनवासी कल्याण परिषद

3. भारतीय साहित्य परिषद

4. कर्मवीर हरिदासजी आवले स्मारक समिति

5. प्रज्ञाभारती/ प्रज्ञाप्रवाह

6. विज्ञान भारती

7. डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह समिति

8. आरोग्य भारती

9. होलकर विज्ञान कला विद्यालय (इन्दौर)

10. रामभाऊ म्हालगी प्रबोधनी (मुंबई )

11. भारतीय कुष्ठ निवारक सेवक संघ (चांपा)

12. विकास भारती (बिशनपुरी, बिहार)

13. भारतीय घुमंतू जनसेवक संघ (दिल्ली)

14. महर्षि वेदव्यास प्रतिष्ठान (नागपुर)

15. डॉ. बाबा साहब आंबेडकर शताब्दी समारोह समिति

16. बैटल ऑफ पानीपत मेमोरियल सोसायटी, पानीपत

17. दीनदयाल शोध संस्थान, नई दिल्ली

विदेश यात्रा

मिश्र, केन्या, उगांडा, तंजानिया, मॉरिशस, दक्षिण अफ्रीका, सोवियत यूनियन, फ्रांस, स्वीट्जरलैण्ड, बेल्जियम, हंगरी, इटली, जर्मनी, लेक्जंबर्ग, यूगोस्लाविया, इंग्लैण्ड, हॉलैण्ड, डेनमार्क, कनाडा, संयुक्त राज्य अमरीका, मैक्सिको, चीन, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, बर्मा (म्यांमार) मलेशिया, नेपाल, थाईलैण्ड, सिंगापुर, इजराइल, फिजी, त्रिनिडाड, वेस्ट इण्डीज

लेखक (पुस्तकें)

1. एकात्म मानव दर्शन

2. कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर

3. प्रचार तंत्र

4. पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण

5. राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का आधार

6. ध्येय पथ पर किसान

7. लक्ष्य एवं कार्य

8. अपनी राष्ट्रीयता

9. शिक्षा में भारतीयता परिचय

10. भारतीय किसान

11. प्रस्तावना

12. लोक-तंत्र

13. श्रमिक क्षेत्र के उपेक्षित पहलू

14. परम वैभव का संघ मार्ग

15. चिरंतन राष्ट्र जीवन

16. राष्ट्रीय पुरुष छत्रपति शिवाजी

17. विचार सूत्र

18. पुरानी नींव नया निर्माण

19. कम्प्यूटराईजेशन 20. हमारी विशेषताएं

21. हमारे डॉ. बाबा साहब आंबेडकर

22. सप्तक्रम

23. दलित समस्या पर एक विचार

24. संकेत रेखा

25. डॉ. बाबा साहब आंबेडकर, एक प्रेरक व्यक्तित्व

26. जागृत किसान

27. हमारा अधिष्ठान

28. एकात्म के पुजारी डॉ. बाबा साहब आंबेडकर

29. डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा

30. राष्ट्र चिंतन

31. राष्ट्रीय श्रम दिवस

32. हिंदू मार्ग ('थर्ड वे' का अनुवाद)

33. कार्यकर्ता

34. राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण

35. पूर्व सूत्र (कृतज्ञ-कृतज्ञता)

अंग्रेजी पुस्तकें

1. पर्सपेक्टिव

2. हिज लीगेसी, आवर मिशन

3. मॉडर्नायजेशन विदाउट वेस्टर्नायजेशन

4. कंज्यूमर विदाउट सावरेंटी

5. थर्ड वे

6. फोकस ऑन सोशल इकॉनॉमिक प्रॉबलम्स

7. दि ग्रेट सेंटीनल

8. कंप्यूटराईजेशन

9. व्हाई भारतीय मजदूर संघ

10. स्पेक्ट्रम

मराठी पुस्तकें

1. चिंतन पाथेय

2. वक्तृत्वाची पूर्वतयारी

3. ऐरणीवरचे घाव

पुस्तकों की प्रस्तावना

1. कल्पवृक्ष

2. इंडियन प्लान्ड पॉवर्टी

3. पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन

4. स्वदेशी व्यूज ऑफ ग्लोबलाईजेशन

5. श्रम समन्वय विचार

6. राष्ट्र

7. बड़े भैय्या स्मृति ग्रंथ

8. हिंदू इकॉनॉमिक्स

9. राजकीय नेतृत्व

10. तेजाची आरती

11. सर्वधर्म समन्वय (समन्वय महर्षि श्री गुलाब राव जी महाराज शीर्षक से)

12. योर आफिस

विषय प्रस्तुतिकरण एवं भाषण

1. थर्ड वे विश्व हिंदू सम्मेलन, डरबन (साउथ अफ्रीका)

2. (क) ग्लोबलाईजेशन: इकॉनॉमिक सिस्टम, वॉशिंग्टन में ग्लोबल कॉन्फरेन्स, ए हिंदू विजन 2000

(ख) ग्लोवली इकोनामिक सिस्टम फार ए पीसफुल वर्ल्ड - 6-8 अगस्त 1993 वाशिंगटन डी सी

3. आपल्या समाजाचे भवितव्य, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर स्मृति समिति व्याख्यानमाला भाषण,मराठवाड़ा विद्यापीठ, औरंगाबाद (महाराष्ट्र) 1985

महत्वपूर्ण योगदान

1. राष्ट्रीय श्रमनीति

2. भारत के श्रमिकों का राष्ट्रीय माँग पत्र

3. बद्रीनाथ, केदारनाथ एवं गंगोत्री में श्रीराम शिलापूजन का शुभारंभ

4. श्रीराम कारसेवा के अवसर पर कानपुर में सत्याग्रह

5. दीनदयाल मेमोरियल अस्पताल, पुणे

6. महामना मालवीय जयंती

7. 28 अप्रैल 1984 को बीजिंग (चीन) में रेडियो संदेश का प्रसारण

विविध संगठन में सहभागिता की सूची

1. प्रज्ञा भारती, लखनऊ-सेमिनार दिनांक 07.08.1980

2. समालोचन, विजयवाड़ा भाषण दिनांक 18.09.1988

3. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह (नागपुर तथा दिल्ली) 1989

4. डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर स्मृति दिनांक 6 दिसंबर 1990

5. एकात्म यात्रा समारोह, नागपुर (बापूराव पाकिडे एडवोकेट हाईकोर्ट, दिल्ली)

6. भारत विकास परिषद् सेमिनार पंचनद (चंडीगढ़)

7. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, अखिल भारतीय विज्ञान कांग्रेस सेमिनार, विक्रम सिंह, विद्यापीठ, उज्जैन 27 दिसंबर 1991.

8. होलकर विज्ञान विद्यालय इंदौर शताब्दी समारोह समिति- 1991 के अवसर पर भाषण

9. डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर, जन्मशताब्दी वर्ष (14.04.1997) कार्यक्रम

10. महामना मालवीय मिशन लखनऊ, उत्तर प्रदेश-25 दिसंबर 1998 (मालवीय जयंती)

11. अखिल भारतीय दलित साहित्य सम्मेलन इंदौर (मध्य प्रदेश) दिनांक 11-12 मई 1991.

12. श्री राम कारसेवा-सत्याग्रह 1990 जेल यात्रा परेड ग्राउंड, कानपुर, उ.प्र.

13. श्री राम कारसेवकों पर अयोध्या में हुए अत्याचारों के विरोध में भाषण, 7 नवंबर 1990 को वोट क्लब (दिल्ली)।

14. श्री राम कारसेवकों की ऐतिहासिक रैली/समारोप, बोट क्लब, दिल्ली, 4 अप्रैल 1991.

15. विश्व हिंदू परिषद् 1960 से 1975 (दो लेख हिंदी-अंग्रेजी)

16. विषय : एक उपेक्षित हिंदू ग्रंथ-छंद व्यवस्था, झिंदोवेस्ता - हिंदू लॉइफ (पारसी)

17. आदिम जाति सेवा संघ, दिल्ली

18. श्री कुमार सभा, बड़ा बाजार, कोलकता

19. डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार, 27 अप्रैल 1992.

20. विकास भारती विशुनपुर गुमला (झारखंड)

21. मुंबई विश्वविद्यालय मा. लक्ष्मणराव इनामदार मेमोरियल लेक्चर, सहकार भारती कार्यक्रम मुंबई, भारत में सहकारिता आंदोलन-मुंबई

22. उत्तर प्रदेश हिंदी परिषद द्वारा पंडित दीनदयाल साहित्य पुरस्कार

23. सौराष्ट्र विश्वविद्यालय द्वारा मानद उपाधि-राजकोट

24. सन्मित्र मंडल- नागपुर

25. विद्या भारती - ग्वालियर मध्य प्रदेश

26. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्वी (1935-36) स्वयंसेवक । 29. सरकारी कर्मचारी हड़ताल 1960.

27. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक 1942 से, प्रथम नियुक्ति केरल में

28. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्-विदर्भ-क्षेत्र। (1949-50)

30. सरकारी कर्मचारी हड़ताल 1968.

31. रेल कर्मचारी हड़ताल 8 मई 1974

32. जगाधरी पेपर मिल-हड़ताल नवंबर-1963 (हरियाणा)

भारतीय मजदूर संघ ,

प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन (दिल्ली)

दिनांक 12-13 अगस्त 1967

(भारतीय मजदूर संघ के प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन दिनांक 12-13 अगस्त 1967 में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा संयोजक के नाते प्रस्तुत प्रथम प्रतिवेदन भा. म. संघ की नीतियों, विचारों एवं मूल सिद्धांतों का प्रामाणिक दस्तावेज है।)

भारतीय मजदूर संघ का यह प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन भारत के श्रम क्षेत्र के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। क्योंकि इतिहास के नए गौरवशाली पर्व के उद्घाटन की अधिकृत घोषणा यह सम्मेलन कर रहा है।

घोषणा आज हो रही है तो भी इसकी पृष्ठभूमि बनाने में ठीक 12 साल की अवधि बीत गयी है। हमारी परंपरा में एक तपस की अवधि 12 साल की मानी गयी है। अतः आज उद्घोषित नूतन श्रम संगठन विधिवत तपःपूत है।

दिनांक 23 जुलाई, 1955 को हम प्रथम बार भोपाल में एकत्रित हुए। थे। मजदूर तथा देश का कल्याण चाहने वाले कार्यकर्ताओं का वह सम्मेलन था। श्रम क्षेत्र की स्थिति के विभिन्न पहलुओं पर उस समय विचार-विमर्श हुआ। सर्वप्रथम यही विचार सामने आया कि नए संगठन का निर्माण न किया जाए। क्योंकि उसके कारण मजदूर एकता में बाधा आएगी । साथ ही साथ यह भी सोचा गया कि आदर्श श्रम संस्था के अभाव में देश और मजदूर को बहुत ही नुकसान उठाना पड़ेगा। ट्रेड यूनियनें, सही ट्रेड यूनियन के आधार पर चलें। इस कसौटी पर वर्तमान श्रम संस्थाएँ असमाधानकारक ही प्रतीत हुई।

इस कारण उपनिर्दिष्ट तत्वों की पूर्ति करने वाले श्रम संगठन का निर्माण यह भारत की ऐतिहासिक आवश्यकता मानी गयी।

बारह वर्ष पहले जिस समय हम लोगों ने यह संकल्प किया उस समय भारतीय मजदूर संघ का केवल नाम ही हमारे पास था। संगठन की दृष्टि से न कोई यूनियन, न थे कार्यकर्ता, और न था कोष हमें शून्य से ही आरंभ करना पड़ा।

इस दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ की स्थिति केंद्रीय श्रम संस्थाओं से बहुत ही भिन्न थी। अन्य संस्थाएँ माने केवल Regrouping मात्र था। यूनियनें कार्यकर्ता, कोष, सदस्य संख्या आदि पहले से ही विद्यमान तथा उनके लिए उपलब्ध थीं। केवल एक ध्वज को छोड़कर दूसरे ध्वज को स्वीकार करने की ही वह बात थी। हमारे लिए प्रारंभिक अवस्था शून्य ही थी और हमारे संकल्प का मतलब यह था कि शून्य में से नयी सृष्टि का निर्माण किया जाए।

यह स्वाभाविक ही था कि प्रारंभ में यत्र-तत्र Retail दुकानदारी ही हमें शुरू करनी पड़ी। उन दिनों में हमारे कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत धीरे-धीरे बढ़ रही थी और जो मैदान में आए उनकी स्थिति चक्रव्यूह में घिरे अभिमन्यु के समान थी। एक तो लगभग सभी क्षेत्रों में अन्य प्रतिस्पर्धी यूनियनें पहले से ही व्याप्त थीं। दूसरी बात यह कि हमारे कार्यकर्ता इस क्षेत्र के अनभ्यस्थ तथा मजदूरों के लिए अपरिचित थे और मुकाबला ख्याति नाम पुराने नेताओं से था। साथ ही किसी भी नयी संस्था को आरंभ से ही कुचल देने की मानसिकता तथा सरकार की प्रवृत्ति का भी मुकाबला करना पड़ा। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में, जबकि आशा की किरण कहीं भी दिखायी नहीं देती थी, धीरज के साथ निष्काम बुद्धि से प्रयास जारी रखने की क्षमता विशुद आदर्शवाद के ही कारण हमारे कार्यकर्ताओं को प्राप्त हुई इसमें संदेह नहीं।

इसी आदर्शवाद के आधार पर धीरे-धीरे कार्य बढ़ता गया। कार्यकर्ताओं का अनुभव बढ़ा। अनुभवी कार्यकर्ता प्राप्त हुए। धन संग्रह की शक्ति बढ़ती गयी। वार्ता, संसाधन, पंचाट (Arbitration), श्रम, अर्थ शास्त्र में कार्यकर्ताओं की प्रगति बढ़ती गयी; श्रम अदालत, आदि मोर्चों पर कार्य करने की कुशलता बढ़ती गयी; संघर्ष की क्षमता तथा इसको सफलता तक पहुँचाने की कुशलता बढ़ती गयी। विभिन्न रचनात्मक कार्यों की जानकारी तथा उनकी दृष्टि से योग्यता बढ़ती गयी और राष्ट्र समर्पित मजदूर हितैषी कार्यकर्ताओं के इस समूह की पारिवारिक भावना भी दिन प्रतिदिन बढ़ती गयी।

हमारे संगठन का विकास क्रम कुछ अनोखे ढंग का है। प्रायः पद्धति यही होती है कि प्रारंभ में ही अखिल भारतीय समिति का निर्माण किया जाए और तदुपरांत प्रादेशिक व स्थानीय आदि इकाईयाँ क्रमशः बनायी जाएं। यह ऊपर से नीचे आने वाली प्रणाली है। हमने इसके ठीक विपरीत भूमिका स्वीकार की। सर्वप्रथम जगह-जगह छोटी बड़ी स्थानीय यूनियनों का निर्माण किया, जहाँ-जहाँ प्रदेश में यूनियनों की संख्या पर्याप्त मात्रा में बढ़ गयी वहाँ-वहाँ भारतीय मजदूर संघ की प्रादेशिक समितियों का विधिवत् गठन किया। जिन-जिन उद्योगों में प्रादेशिक तथा अखिल भारतीय स्तर पर हमारी यूनियनों की संख्या बढ़ गई उन उन उद्योगों में प्रादेशिक तथा अखिल भारतीय महासंघों का निर्माण किया। इस तरह विधिवत संगठित कई प्रादेशिक समितियाँ- प्रादेशिक औद्योगिक महासंघ और चार अखिल भारतीय औद्योगिक महासंघ (चीनी, इंजीनियरिंग, टेक्सटाईल, रेलवे) इन सबके गठन के पश्चात् साथ ही प्रतिरक्षा, बिजली तथा खदान आदि उद्योगों में कार्य का सूत्रपात करने के बाद हम लोग आज पहली ही बार अपनी अखिल भारतीय संस्था का निर्माण करने के लिए एकत्रित हुए हैं। निश्चित ही यह पद्धति अन्य संस्थाओं की पद्धति सर्वथा भिन्न है। यह इसी का परिचायक है कि हमारे कार्यकर्ता असीम धीरज रख सकते हैं, वे जल्दबाज नहीं हैं। अपने कार्य की अंतिम विजय में पूर्ण विश्वास होने के कारण ही वे इस अनोखी पद्धति को स्वीकार करने का साहस कर सके।

हमारे प्रादेशिक महामंत्रियों, संगठन मंत्रियों तथा अखिल भारतीय महासघों के मंत्रियों के निवेदनों से हमारी स्थिति गति-प्रगति का संपूर्ण चित्र हमारे सामने उपस्थित हुआ है। (1) आज हमारे पास पूर्ण समय देकर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या 75 है। संख्या आज कुल मिलाकर 2,20,000 है। (2) संलग्न यूनियनों की संख्या 500 के ऊपर है और (3) जगह-जगह कार्य को आर्थिक स्वयंपूर्णता प्राप्त हो रही है। श्रम कानून में विशेषज्ञ कार्यकर्ता एवं वकीलों की संख्या भी पर्याप्त हो रही है। अखिल भारतीय तथा प्रादेशिक कार्यालयों की सक्रियता एवं सक्षमता उचित सीमा तक पहुँच रही है। संघ के मुखपत्र के नाते मुंबई से 'मजदूर वार्ता' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ है और उसका प्रसार क्षेत्र विभिन्न प्रदेशों में बढ़ता जा रहा है। श्रमिक वर्ग में मान्यता भी बढ़ रही है। बहुसंख्य प्रदेशों में एक प्रभावी श्रम संगठन इस नाते भारतीय मजदूर संघ जनमानस में स्थान प्राप्त कर रहा है। दिल्ली और पंजाब में राज्य स्तरीय सरकारी मान्यता प्राप्त हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा महाराष्ट्र में राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त होने की निश्चित संभावना दिख रही है और भारत सरकार ने भी इस वर्ष के (Annual Returns) के आधार पर हमारी मान्यता के प्रश्न का निर्णय करने का निश्चय किया है। रेलवे मंत्रालय के सम्मुख भारतीय रेलवे मजदूर संघ को मान्यता देने का प्रश्न विचाराधीन है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस संगठन के बढ़ते हुए प्रभाव और यशश्विता के विषय में देश के राष्ट्रवादी तत्वों के मन में अब दृढ़ विश्वास तथा आशा पैदा हो रही है। कार्य की प्रारंभिक अवस्था के नाते यह स्थित संतोषजनक है। यद्यपि हम यह कदापि न भूलें कि यह संतोषजनकता प्रारंभिक अवस्था के नाते ही है।

हमारे कार्यकर्ता इस लगन से कार्य में जुट गए तो अखिल भारतीय मान्यता हमें शीघ्र ही प्राप्त होगी इसमें संदेह नहीं। यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि अखिल भारतीय मान्यता को हम उतना और उस ढंग का महत्व नहीं देते जितना और जिस ढंग का महत्व इसको अन्य श्रम संस्थाएँ देती हैं। उनका अंतिम गंतव्य स्थान नजदीक का ही है।

इसलिए अखिल भारतीय मान्यता और उसके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ उनके लिए सर्वोच्च लक्ष्य हैं। हमारे लिए यह लक्ष्य सर्वोच्च नहीं। हमारा गंतव्य स्थान अतिदूर का है। किंतु हाँ, वहाँ तक पहुँचने लिए इस मान्यता के द्वार में से भी गुजरने की आवश्यकता है।

जहाँ हम लोग भारतीय मजदूर संघ संगठन की दृष्टि से प्रयत्नशील हैं वहाँ इसी विचारधारा पर आधारित यूनियनें अन्य क्षेत्रों में गठित करने में भी हमारे कार्यकर्ता सहयोग दे रहे हैं। संलग्नता की चिंता न करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में कार्यों को खड़ा कर रहे हैं। Banking उद्योग में स्थापित हुई National Organisation of Bank Workers यह ऐसी ही एक संस्था है। प्रसन्नता की बात है कि इस संस्था के जन्म के पश्चात् 20 मास के अंदर ही इसे सरकार तथा मालिकों की ओर से मान्यता प्राप्त हुई। सरकारी कर्मचारियों के क्षेत्र में हमारे कार्यकर्ताओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया है। हमारी रेलवे यूनियनों के समान भारतीय मजदूर संघ संलग्नता न रखते हुए स्वतंत्र रूप से, किंतु कट्टर राष्ट्रवादिता के आधार पर कार्य करने वाली फोरम आदि गैर ट्रेड यूनियन संस्थाओं को तथा केंद्रीय और राज्य सरकारों के कर्मचारियों से यूनियनों तथा एसोसिएशनों को उनके हरेक आंदोलन में तथा संगठन प्रयास में हमारा पूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ है। सरकारी क्षेत्र में स्थित पब्लिक कारपोरेशंस के कर्मचारियों के आंदोलनों में भी हमारे कार्यकर्ताओं ने सक्रिय हिस्सा लिया है। जैसे L.I.C. के कर्मचारियों का Automation विरोधी आंदोलन। स्मरण रहे कि गोल्ड कंट्रोल ऑर्डर (Gold Control Order) के विरोध में स्वर्णकारों को संगठित करने का उत्तर प्रदेश का पहला सफल प्रयास भारतीय मजदूर संघ के तत्वाधान में ही हुआ था।

श्रम कानून की कक्षा में आने वाले श्रमिकों को ही केवल हम श्रमिक नहीं मानते। उस कक्षा के बाहर रहते हुए भी परिश्रम के आधार पर जीविकोपार्जन करने वाले सभी लोगों को हम श्रमिक समझते हैं। यही कारण है कि देशी कारीगरों के लिए विदेश में भारतीय कारीगर सूचना केंद्र का निर्माण किया गया तथा जगह-जगह मार्केट को-आपरेटिव के गठन करने में उन्हें सहायता दी गयी।

वनवासी श्रमिकों के लिए Forest Labour Co-operatives बनाने की दिशा में भी प्रयास किया गया। कई प्रदेशों में श्रम कानून की कक्षा के अंतर्गत न आने वाले अध्यापकों के आंदोलन का भी समर्थन किया गया तथा शिक्षा संस्थाओं के अध्यापिकीकरण का मौलिक सुझाव प्रस्तुत किया गया। अध्यापन न करने वाले शिक्षा क्षेत्र के कर्मचारी भी संगठित किए गए तथा उनके अधिकारों की रक्षा के लिए सफल प्रयास किए गए यद्यपि वे श्रम कानून के दायरे से बाहर हैं।

अवकाश प्राप्त अनेक कानून द्वारा असुरक्षित पेन्शनर लोगों की माँगों का भी विभिन्न मंचों से हमने समर्थन किया। जल नाविक मजदूरों के आर्थिक हितों की रक्षा का प्रयास न केवल यूनियनों के अपितु Co-operative Societies के द्वारा भी करने वाली एकमेव श्रमिक संस्था याने भारतीय मजदूर संघ है। इसी प्रवृत्ति के कारण आंध्र प्रदेश के बुनकर भाइयों के लिए प्रादेशिक Forum का निर्माण किया गया।

यह प्रसन्नता की बात है कि इसी माह में एक नए तथा अस्पृश्य क्षेत्र में संघ पदार्पण करने वाला है। वह क्षेत्र है समाज कल्याण संस्थाओं के कर्मचारियों का। उन्हें भी श्रम कानून का संरक्षण प्राप्त हो, इस हेतु संघर्ष करना पड़ेगा। संघ द्वारा किया हुआ एक महत्त्वपूर्ण कार्य याने उपभोक्ता भाव जागरण (consumer consciousness)। संघ की मान्यता कि राष्ट्रमान् का आर्थिक क्षेत्र में निकटतम पर्यायवाची याने उपभोक्ता भाव ही है। उपभोक्ता सम्मेलनों की पहल भारतीय मजदूर संघ ने ही की। उद्योगों के मुनाफे में उपभोक्ता को भी साझीदार बनाना चाहिए , यह सुझाव संघ ने ही Bonus Commission (बोनस आयोग) के सामने रखा।

औद्योगिक क्षेत्र में संघ के नेतृत्व का स्वयं प्रतिनिधित्व प्रकट हुआ है। जीवन निर्देशांक की रचना की अशास्त्रीयता सर्वप्रथम भा.म.संघ ने ही प्रकट की और आगे चलकर अन्य श्रम संस्थाओं तथा सरकार को भी यह बात स्वीकार करनी पड़ी। स्मरण रहे कि भारत का सर्वप्रथम और सफल 'बंद आंदोलन' मुंबई में 20 अगस्त 1963 के दिन उसी की माँग पर हुआ था और वह संगठित करने में भारतीय मजदूर संघ ने पहल की थी। अलग अलग उद्योगों के मजदूरों की वेतन श्रेणियों का अलग-अलग खंडश: (Piecemeal) विचार न करते हुए देश के सभी मजदूरों की वेतन व्यवस्था का सर्वकष विचार वैज्ञानिक आधार पर हो यह माँग रखने वाली पहली ही संस्था याने भारतीय मजदूर संघ है। मजदूरों के परिवारों के माहवार खर्चे की जाँच आधार पर राष्ट्रीय न्यूनतम का निर्धारण; यह न्यूनतम अकुशल मजदूरों का प्रारंभिक वेतन समझकर अन्यान्य श्रेणियों के मजदूरों के वेतन श्रेणियों का Job evaluation के आधार पर निर्धारण; और संपूर्ण वेतन का जीवन निर्देशांक के साथ संबंध जोड़ते हुए असली वेतन की सुरक्षा यह त्रिसूत्री माँग संघ ने प्रस्तुत की।

चतुर्थ पंचवार्षिक योजना की कालावधि में राष्ट्रीय वेतन नीति, राष्ट्रीय मूल्य नीति तथा राष्ट्रीय आय नीति तय हो और इस दृष्टि से देश के सभी आर्थिक पक्षों की गोलमेज कॉन्फ्रेन्स (Round Table Conference) बुलाई जाए यह मौलिक सुझाव दिया। गजेंद्रगडकर कमीशन के सामने निवेदन पेश करते समय भा. रे. म. संघ के प्रतिनिधियों ने जो मूलग्राही विचार रखे उनके कारण दस विषय में भारतीय मजदूर संघ के विचारों की विशेषता सब के ख्याल में आयी।

रचनात्मक दृष्टिकोण से इन विषयों का अध्ययन करने हेतु भारतीय श्रम अन्वेषण केंद्र, मुंबई तथा भारतीय चीनी उद्योग अन्वेषण केंद्र, लखनऊ की स्थापना की गयी। लखनऊ अन्वेषण केंद्र में भारत के चीनी उद्योग की आय वृद्धि के लिए सरकार के सामने एक सर्वंकष योजना अभी-अभी पेश की है। मुंबई केंद्र ने वेतन तथा मूल्यों के विषय में किया हुआ अन्वेषण सभी औद्योगिक श्रमिकों के लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ इंजीनियरिंग उद्योग के विषय में भी इसी तरह के मौलिक सुझाव वेतन आयोग के सामने पेश किए गए हैं। कर्मचारी राज्य बीमा योजना की त्रुटियों के विषय में प्रस्तुत किया गया आवेदनपत्र ESIC के अधिकारियों की प्रशंसा के लिए कारण बना जिसके कई सुझाव स्वीकार किए गए हैं।

प्रादेशिक संगठनों तथा अखिल भारतीय महासंघों की गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत हुआ ही है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि हम समन्वयवादी नहीं किंतु समन्वय सम हैं और संघर्षवादी नहीं अपितु संघर्ष-सम हैं। औद्योगिक शांति तथा अशांति दोनों अवस्था में संघ ने मजदूरों का मार्ग दर्शन किया है।

प्रखर राष्ट्रीयता यह भा.म. संघ की विशेषता है। इसी कारण चीन तथा पाकिस्तान के आक्रमण के समय राष्ट्रीय मजदूर मोर्चा बनाने में संघ ने या तो पहल की या उसमें पूरी शक्ति से हिस्सा लिया। हरेक उद्योग में एक ही राष्ट्रवादी यूनियन रहे यह नारा दिया और गैर राजनैतिक स्तर पर सभी राष्ट्रवादी तत्वों की एक ही National Federation of Labour बनती है तो उसमें अपना स्वतंत्र अस्तित्व विलीन करने का आश्वासन दिया। मजदूर क्षेत्र में लाल रंग का प्रस्थापित महत्व ध्यान में रखते हुए भी अपना गैरिक ध्वज भारत के निजी परंपरागत रंग का रखने का निर्णय राष्ट्रीयता के कारण लिया गया। विशेषतः भारत के ट्रेड यूनियन क्षेत्र में 'राष्ट्रीय'' श्रम दिवस' की पद्धति प्रारंभ करने का श्रेय भा.म. संघ को ही है। प्रसन्नता की बात है कि अब उ.प्र. आदि कई राज्यों में अन्य श्रम संस्थाओं ने भी इसको अपना लिया है। राष्ट्रीयता के कारण ही सस्ती लोकप्रियता की चिंता न करते हुए उत्पादन वृद्धि पर संघ ने आग्रह किया है। मुंबई के G.K. W. में संघ से समझौता होने के पश्चात् मजदूरो की उत्पादकता उनके इंग्लैंड में स्थित कारखाने की तुलना में अधिक बढ़ गयी, यह कई उदाहरणों में से एक है। भारतीय कालगणना के अनुसार छुट्टियों की शास्त्रीय तथा व्यवहार्य योजना संघ ने प्रकाशित की है।

मानवता की मौलिक इकाई राष्ट्र है वर्ग नहीं। इस मान्यता के कारण गिरोहवादियों का Workers of the World Unite' यह हर राष्ट्र को विघटित करने वाले नारे को त्याग, संघ ने संसार के सभी राष्ट्रों को संगठित करने वाले Workers Unite the World यह ध्येय वाक्य दिया। मानवता के आधार पर हर एक राष्ट्र पूरी तरह से संगठित रहे और मानवता सभी राष्ट्रों का सामंजस्य पूर्ण परिवार बनी रहे यह हमारे आदर्श हैं।

प्रतीक के विषय में विदेशियों का अंधानुकरण न करते हुए संघ ने औद्योगिक चक्र, कृषि तथा समृद्धि की परिचायक बाली और एकता की परिचायक मुट्ठी के साथ मानवी अंगूठे को (Opposable Thumb) प्रधानता दी, जिसको कि मानवी विकास श्रम के इतिहास में हँसिया, हथौड़ा और हल का आदि कारण माना है।

अंतर्गत संगठन की दृष्टि से भी संघ ने भारतीय पद्धतियों का ही आधार लिया है। कानून तथा संविधान के अंतर्गत रहते हुए भी हमने अपने परिवार की रीति विकसित करने का प्रयास चलाया है। संविधान को व्यवस्था का विवरण मानकर सभी स्तरों पर हम यह देखते हैं कि संविधान संघ का साधन बने न कि संघ संविधान का। अन्य संस्थाओं के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय पद्धति की पारिवारिक भावना के अभाव में संविधान संस्थाओं के विघटन का कारण बन जाता है। पारिवारिक भावना के रहते हुए संविधान अंतर्गत व्यवस्था का विवरण बन जाता है। इस तथ्य को संगठन की नींव बनाने वाला भारतीय मजदूर संघ यह एकमात्र श्रम संगठन है। इसके कारण अन्य संस्थाओं में दिखने वाली त्रुटियों तथा दोषों से हम मुक्त रहेंगे यह दृढ विश्वास है।

यह बात स्पष्ट है कि 'भारत के अन्यान्य श्रम संस्थाओं में से एक' यही केवल भूमिका भारतीय मजदूर संघ की नहीं है। अपने सिद्धांतों तथा पद्धतियों के कारण संघ यह अपने ढंग की अकेली संस्था है। हमारे लिए यह गौरव का विषय है कि हम सबको इसके निर्माण का श्रेय है। क्योंकि यह संस्था सही अर्थ में अपौरुषेय है। यह भारत की राष्ट्रशक्ति के संकल्प का आविष्कार मात्र है।

भारत का नव जागृत मजदूर आशा भरी दृष्टि से इस अधिवेशन की ओर देख रहा है। आज वह जीवन-मरण के प्रश्न का मुकाबला कर रहा है। आसमान को छूने वाली मँहगाई दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही और उसकी क्षतिपूर्ति शत-प्रतिशत न करने का निश्चय सरकार तथा मालिकों का है। बेकारी, अर्धबेकारी, छँटनी और मजदूर विरोधी नीतियों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। मजदूरों की सेवा की सुरक्षा तथा असली वेतन निरंतर घटता जा रहा है। इन परिस्थितियों में मजदूरों को एक ओर साहसवाद (Adventurism) का और दूसरी ओर समर्पण (Surrenderism) का शिकार न बनाते हुए वास्तविकतावाद (Realism) के आधार पर उनकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना यह आपका दायित्व है। यह विश्वास है कि इस दायित्व का निर्वाह यह अधिवेशन करेगा और अपने नए रचनात्मक नेतृत्व का परिचय देगा।

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भारतीय मजदूर संघ , प्रथम अधिवेशन (दिल्ली)

दिनांक 12-13 अगस्त 1967

निर्वाचित महामंत्री के नाते मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का प्रथम भाषण

(प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन में निर्वाचित प्रथम महामंत्री के नाते मा. ठेंगड़ी जी का प्रेरक संबोधन। उक्त अधिवेशन दिल्ली में 12-13 अगस्त 1967 को संपन्न हुआ था। कुछ आलेखों, दस्तावेजों में अधिवेशन की तिथि 13-14 अगस्त 1967 छपी है जो सही नहीं है।)

आप लोग 'काम के घंटे निश्चित हों' यह माँग करते हैं, पर यहाँ भारतीय मजदूर संघ स्वयं आपसे अधिक काम ले रहा है। अधिवेशन के दौरान ही दिन में निरंतर 12-12 घंटे काम में लगाए रखा। यह तो परस्पर विपरीत बात है किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि आपके धैर्य की परीक्षा के लिए ही ऐसी योजना की गयी है।

यहाँ 2000 प्रतिनिधि आए हैं, पर उनका आभार प्रदर्शित करने में मुझे कठिनाई है। क्योंकि आप सभी भारतीय मजदूर संघ के लिए आए हैं और भारतीय मजदूर संघ स्वयं आपका है। हाँ, आपने जो भारतीय मजदूर संघ के लिए प्रेम प्रदर्शित किया है, उसका मैं आदर कर सकता हूँ। इन्द्र भगवान ने भी दोनों दिन वर्षा को रोककर रखा, अतएव उनका धन्यवाद करना चाहूँगा। दिल्ली के कार्यकर्ता लगन के साथ जुटे हैं, मैं उनकी लगन की सराहना करता हूँ।

अपने कार्य का परिचय तो उसके नाम से ही हो जाता है। 'भारतीय' शब्द इसके स्वरूप का, 'मजदूर' इसके क्षेत्र का एवं 'संघ' इसके संवैधानिक संगठन का द्योतक है। अर्थात भारतीय मजदूर संघ नाम ही इसका परिचय है।

हम मौलिक अधिकारों में काम का अधिकार' (Right to work) जोड़ना चाहते हैं। 'काम और रोटी' की गारंटी नहीं मिल सकती तो बेकारी भत्ता बीमा योजना (Unemployment Insurance) लागू होनी चाहिए ।

पंचवर्षीय योजना श्रम प्रधान बने तथा अन्यों पर आश्रित न रहकर स्वावलंबी रहे। अर्ध बेकारों की संख्या कम होनी चाहिए । उत्पादन की प्रक्रियाओं विकेंद्रीकरण होना चाहिए । खेतों पर काम न पर अर्ध बेकार घर पर छोटे-छोटे उद्योग चलाकर काम पावें। मजदूरों का श्रमिकीकरण दूसरे रूप में भी आ सकता है। वह है सहकारी सिद्धांत के आधार पर श्रमिकों के हाथों में उनके उद्योगों का स्वामित्व सौंपना (Labour co-operation) I

जहाँ उद्योग के स्वरूप विशेष के कारण उसका स्वामित्व केवल मजदूरों के हाथों में न देते हुए और भी अन्यान्य संबंधित पक्षों को स्वामित्व में प्रतिनिधित्व देना उचित हो, वहाँ स्वामित्व की रचना के विषय में जब कभी कुछ भी निर्णय करना होगा तो श्रमिकों का मत निर्णायक होना चाहिए । मजदूरों के साथ उद्योग से संबंधित सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व बोर्ड आफ मैनेजमेंट पर रखने वाला 'स्वायत्त निगम' यह श्रमिकीकरण का तीसरा रूप है।

कई उद्योग ऐसे भी हो सकते हैं, जिनका इस प्रकार श्रमिकीकरण करना उचित नहीं होगा। केवल राष्ट्रीयकरण का विरोध करने हेतु यह मौलिक विचार लेकर भारतीय मजदूर सामने नहीं आया है।

12 साल में हम अपना संतोषजनक प्रारंभ मानते हैं। इसका अखिल भारतीय स्वरूप एक ऐतिहासिक तथ्य है। यह मजदूर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सिद्ध होगा। यही एकमात्र श्रम संगठन (Labour Organisation) है जो भारतीयता का बोध कराता है। यह हमारे लिए जहाँ गौरव का विषय है वहाँ उत्तरदायित्व का आह्वान भी है। इस इस कार्य में हम सभी जुट जाएं यही प्रार्थना है।

भारतीय मजदूर संघ , तृतीय अधिवेशन (मुंबई )

दिनांक 22-23 मई 1972

प्रतिबद्ध श्रम संगठन किससे ? राष्ट्र से? या दल से ?

(भा.म.संघ तृतीय अखिल भारतीय अधिवेशन में मा. ठेंगड़ी जी का उद्बोधन। द्वितीय अधिवेशन, कानपुर में मा. ठेंगड़ी जी का भाषण प्रथम खंड में समाहित है।)

दो वर्ष पूर्व हम कानपुर में एकत्रित हुए थे। उस समय आगामी राष्ट्रीय घटनाओं के बारे में जो अनुमान किए थे वे सही निकले। जैसा सोचा था, बंगाल के मार्क्सिस्ट कम्युनिस्टों की शक्ति के विषय में पूरे देश में एक अतिरंजित चित्र उपस्थित हुआ था। उस समय अपने वार्ता और विचार' में कहा गया था:

'यह सत्य है कि सी.पी.एम. के पास अपना निजी Revolutionary Force या Revolutionary Leadership नहीं है। सी.पी.एम. के नेता उतने ही 'बुर्जुवा' हैं, जितने उनके विरोधी दलों के लोग हैं। उन्होंने बंगाल में गुण्डा लोगों को प्रोत्साहित करते हुए विश्रृंखलता निर्माण करने का प्रयास किया है। किंतु सभी लोग यह जानते हैं कि ये गुंडे पेशेवर होते हैं आदर्शवादी नहीं।'

कलकत्ता में गुंडों के दल हमेशा ही सक्रिय रहे हैं। अपने लाभ के लिए वे सत्तारूढ दल का कुंकुम लगा लेते हैं। इनके अपने कोई सिद्धांत नहीं। मार्क्सिस्टों ने इन्हें बढ़ावा तो दिया है किंतु इनको नियंत्रित करना मार्क्सवादियों के बस की बात नहीं है। क्योंकि उन्हें नियंत्रित करते हुए अपना Auxillary force बनाने के लिए पार्टी के पास जो निजी फोर्स चाहिए उसका अभाव है। प्रतीत होता है कि मार्क्सिस्टों की प्रमुख Constituency समाचार पत्र ही है। इसलिए मार्सिस्टों की शक्ति से डरने की भी आवश्यकता नहीं है और उन्हें अधिक महत्व भी देना उचित नहीं है।' कानपुर में अपने अधिवेशन में जब यह बात कही गयी तब बाहर के लोगों के मन में इसके विषय में पूरा विश्वास नहीं था किंतु आज परिस्थितियों ने अपने इस अनुमान की सत्यता का परिचय दिया है। इस बीच बंगाल में अपना काम पर्याप्त मात्रा में बढ़ा है यह संतोष का विषय है।

 

सही अनुभव

सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के बारे में भी कानपुर में जो कहा गया था उसका भी आज पुनः स्मरण कराना उपकारक रहेगा।

आज चारों ओर उनकी जो दौड़-धूप या मारकाट दिखाई देती है, उसका उद्गम उनके आत्मविश्वास में नहीं, अपितु विफलता (Frustration) में है। वैसे तो आज उनके अंदर भारी फूट दिखाई देती है। किंतु सभी कम्युनिस्ट पार्टियों की सम्मिलित शक्ति भी उन्हें बचा नहीं सकती। इसलिए हम यह आवाहन नहीं करते कि कम्युनिस्टों से बचाने के लिए सबको अग्रसर होना चाहिए। हमें यह पूरा विश्वास है कि हमारे सभी कार्यकर्ता रजाई ओढ़कर सो जाएं तो भी यहाँ कम्युनिज्म नहीं आ सकता। किंतु हाँ वे इससे भी खतरनाक परिस्थिति के निर्माण के लिए माध्यम या साधन बन सकते हैं और यह परिस्थिति है अराजकता (Chaos) की। Chaos को हम कम्युनिज्म से अधिक खतरनाक मानते हैं। कम्युनिस्टों की स्थिति इससे Catalytic Agent के समान होगी।

चुनाव और हम

कानपुर के पश्चात् देश में दो आम चुनाव हुए हैं, जिनके परिणाम आज हमारे सामने हैं। चुनावों का परिणाम अन्य सभी केंद्रीय श्रम संस्थाओं पर हुआ क्योंकि वे किसी न किसी राजनैतिक दल से संबद्ध हैं। भारतीय मजदूर संघ पर कुछ भी परिणाम नहीं हुआ क्योंकि हम वास्तव में ही राजनीति या राजनैतिक दलों से अलिप्त हैं। हमारी इस स्वस्थता का परिचय ही पिछले दिनों की घटनाओं ने दिया है। हमारी धारणा है कि राष्ट्र निर्माण का कार्य शासकीय सत्ता पर ही पूर्णरूपेण आधारित रखना यह गलत है। शासकीय सत्ता राष्ट्र के अनेक साधनों में से एक प्रमुख साधन है। किंतु राष्ट्र का निर्माण स्वायत्त स्वयं शासित, सामाजिक आर्थिक इकाईयों के स्वस्थ संगठन पर ही अवलंबित है और भारतीय मजदूर संघ उनमें से एक इकाई है। अतः हमारा लक्ष्य राष्ट्र निर्माण है। अन्यों के समान हम सत्ता को अतिरिक्त महत्व नहीं देते हैं। भविष्य में भी हम इसी का दृढ़ता से पालन करेंगे।

हमारी नीति

शासन के विषय में हमारा मन कोरे कागज के समान है। न उसमें प्रेम है न विद्वेष है इस कागज पर क्या लिखा जाना चाहिए यह तय करना सरकार के हाथ में है। (The Ball is in Government's Court) यही शास्त्रीय नीति है। राष्ट्रीय संकटकालीन स्थिति (National Emergency) के समय को छोड़कर जब हम बिना शर्त युद्ध प्रयास का पूरा समर्थन करेंगे। सर्वसाधारण सभी परिस्थितियों में हमारी यही नीति रहेगी।

कानपुर में हमने एक बात की ओर संकेत किया था। वह याने देश की श्रमिक क्षेत्र में तेजी से होने वाली रिक्तता (vaccum) का। कानपुर के पश्चात् यह देखा गया है कि पुरानी अखिल भारतीय मान्यता प्राप्त संस्थाएँ या तो पीछे हट रही हैं या उनमें गतिरोध हुआ है। इस अवधि में इंटक में कई दलबंदियाँ पैदा हुईं। गुजरात में बसावडाजी के नेतृत्व में National Organisation of Labour का निर्माण हुआ। इसका कार्य गुजरात के बाहर भी अखिल भारतीय स्तर पर फैलाने का उनका विचार है। केवल बंगाल में इस बीच इंटक के कार्य में वृद्धि हुई है। यह नए इंडीकेटी युवा कार्यकर्ताओं के कारण। किंतु ये कार्यकर्ता ट्रेड यूनियनिस्ट कम हैं और राजनैतिक नेता अधिक। फिर उनके स्थिरता के बारे में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। राजनैतिक आकाँक्षाओं को लेकर ये लोग श्रमिक क्षेत्र में आए। इस कारण उनके बीच भी आगे चलकर दलबंदियाँ नहीं होंगी। ऐसा विश्वास से नहीं कहा जा सकता।

बंगाल के श्रमिक क्षेत्र में मार्क्सिस्टों को कमजोर करने का सत्कार्य इन्होंने किया है, यह संतोष की बात है। किंतु स्वयं उनके भविष्य के विषय में उनकी स्थिरता के बारे में संदेह ही है। बंगाल के बाहर सभी प्रदेशों में इंटक की हालत गिरती जा रही है।

AITUC की अवस्था

मई 1970 में मार्क्सिस्टों ने AITUC (ऐटक) से निकलकर अपनी स्वतंत्र संस्था Centre of Indian Trade Union (CITU) का निर्माण किया। इसके कारण AITUC की शक्ति बहुत कम हो गई। केवल संख्या बल ही कम हुआ इतना ही नहीं। आमतौर पर देखा गया है कि आदर्शवादी, कट्टर युवा कार्यकर्ता CITU के साथ चले गए और AITUC के साथ रहने वाले बहुसंख्यक कार्यकर्ता ऐसे ही हैं जिनको Revolutionary Zeal प्राप्त नहीं हुई, परिश्रम करने की तैयारी समाप्त हुई, आरामपरस्ती बढ़ गई और किसी जमाने में किए हुए कार्य के फल का आराम से उपभोग लेने की प्रवृत्ति बढ़ गई। एक बार प्राप्त हुई Position को जैसे तैसे बचा के रखना यही उनका प्रमुख प्रयास है।

हिंद मजदूर सभा

हिंद मजदूर सभा के साथ कुछ अच्छे कार्यकर्ता तथा अच्छी यूनियनें हैं। अपने स्थान पर वे ठीक ढंग से काम भी कर रहे हैं, यह सराहनीय है। किंतु अखिल भारतीय स्तर पर उनका Impact नहीं है क्योंकि उनकी हालत मराठा कॉन्फेडरेशन के समान हो गयी है। अपने स्थान पर विभिन्न कार्यकर्ता अपना प्रभाव जमाए हुए हैं। किंतु सब मिलकर एक अखिल भारतीय दृष्टिकोण, अखिल भारतीय आदर्श तथा अखिल भारतीय रणनीति (Strategy) नहीं है फलतः अखिल भारतीय शक्ति के नाते हिंद मजदूर सभा का अस्तित्व श्रमिक क्षेत्र में प्रतीत नहीं होता।

हिंद मजदूर पंचायत

हिंद मजदूर पंचायत के बारे में कुछ भी कहना हमारे लिए कठिन है। यह घोषणा की गई थी कि (हि.म.पं.) हिंद मजदूर सभा में विलीन हो गई है। हमने इस घोषणा का स्वागत किया है। किंतु व्यवहार में विलीनीकरण नहीं हुआ और होगा भी तो उसके कारण संयुक्त हिंद मजदूर सभा की शक्ति उतनी मात्रा में बढ़ेगी ही ऐसा भरोसा नहीं। व्यवहार में हमेशा 2+2 मिलकर चार ही नहीं बनते। कभी 2+2-1 यह भी अनुभव आता है। इस विलीनीकरण के फलस्वरूप भी परिणाम निकल सकता है कि चौबे जी छब्बे बनने गए और दुबे बनकर आए ऐसा कहीं न हो किंतु खैर आज इसके विषय में कुछ भी कहना संभव नहीं है। एक बात केवल हुई है। इस घोषणा के कारण हिंद मजदूर पंचायत कम से कम आज तो अखिल भारतीय मान्यता की होड़ में से बाहर आ गई है।

 

अन्य संस्थाएँ

श्रमिक क्षेत्र के Vacuum के कारण कुछ अन्य संस्थाएँ भी निर्माण हुई हैं। पंजाब में अकाली दल शासन में आने के बाद उन्होंने शासन के सहारे अपनी मजदूर संस्था निर्माण करने का प्रयास किया किंतु सही ट्रेड यूनियनिस्टों के अभाव में यह संस्था ज्यादा समय तक नहीं चल सकी। शासन के सहारे खड़ी की गई संस्था शासन हाथ से निकलते ही समाप्त प्रायः हुई।

तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड्गम ने बहुत साल श्रमिक संस्था निर्माण करने का प्रयास चलाया था। किंतु उनके कार्यकर्ता अधिक राजनैतिक थे। श्रमिक क्षेत्र के लिए आवश्यक धीरज, सातत्य, अखंड प्रयास आदि गुणों का अभाव था। किंतु शासन में आने के पश्चात् उन्होंने भी शासन के आश्रय से अपनी श्रमिक संस्था बढ़ाने का प्रयास किया। कुछ समय तक ये बहुत ही सफल रहे। किंतु एक ओर सच्चे ट्रेड यूनियनिस्ट कार्यकर्ताओं का अभाव और दूसरी ओर आर्थिक चिंतन का अभाव इन दोनों कारणों से इस श इस श्रमिक संस्था की हालत धीरे-धीरे गिरती जा रही है। अखिल भारतीय मान्यता के लिए ये भी प्रार्थी हैं। किंतु एक तो इनका काम एक ही राज्य में है और दूसरी बात यह है कि उस राज्य में भी उनकी शक्ति क्षीण हो रही है।

रिपब्लिकन पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी अखिल भारतीय श्रमिक संस्था गठित करने का विचार कर रहे हैं। उनके लिए सबसे लाभदायक बात यह है कि कई कारणों से उनके पास Ready membership बहुत बड़ी संख्या में है तथा बौद्धिक क्षमता रखने वाले कार्यकर्ता भी हैं। किंतु उन कार्यकर्ताओं में भी ऊपर निर्दिष्ट धीरज आदि गुणों की कमी है। ये लोग थोड़ा प्रयास करेंगे तो बड़ी संख्या खड़ी कर सकते हैं। खासकर खेतिहर मजदूरों तो इनको Ready membership बहुत ही है। किंतु दुख की बात यह है कि उनके पास इस दिशा में सातत्य से परिश्रम करने वाले कार्यकर्ताओं का अभाव है।

Vacuum के कारण और भी कुछ संस्थाएं मैदान में आयी हैं। स्वतंत्र पार्टी से प्रेरित कुछ लोगों का प्रयास स्वतंत्र यूनियनों में co-ordination निर्माण करने की दृष्टि से चल रहा है। किंतु इसमें से कोई ठोस चीज निकली नहीं। Indian Federation of Independent Trade Union यह संस्था देश के पूर्वी अंचल में कुछ क्रियाशील है। किंतु इसका काम दो तीन प्रदेशों तक ही सीमित है और दूसरा इनके पास पेशेवर नेता कार्यकर्ता ही अधिक हैं। इससे संस्था का विकास होने के बजाय दिन प्रतिदिन संकुचन होता जा रहा है। National front नाम की और एक संस्था बंगाल में है। उसका काम सीमित क्षेत्र में है। किंतु उनके नेता कुछ राष्ट्रवादी आदर्श का परिचय रहे हैं। इनके साथ समन्वय की वार्ता चल रही है। मतलब यह कि Vacuum के फलस्वरूप नई श्रम संस्थाओं की संख्या इन दिनों में बढ़ी अवश्य है। किंतु Vacuum की पूर्ति करने की क्षमता उनमें नहीं है।

 

भा.म.संघ तथा सीटू

इस अवधि में केवल दो ही संस्थाएं प्रगति कर रही हैं। भारतीय मजदूर संघ तथा CITU. उनमें भी CITU प्रमुख रूप से बंगाल तथा केरल में ही केंद्रित है। भारतीय मजदूर संघ का विस्तार सभी प्रदेशों में हो रहा है और पिछले चुनाव में C.P.M. की हार के पश्चात् उसके Wing के में काम करने वाले CITU को बंगाल में भी गहरी चोट पहुंची है। भारतीय मजदूर संघ पर चुनाव का इस तरह का विपरीत परिणाम कहाँ भी नहीं हुआ।

संयुक्त मोर्चा

भारतीय मजदूर संघ तथा CITU की प्रगति देखकर पुरानी मान्यता प्राप्त संस्थाओं ने अपना संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास चलाया। Trade Union Unity के नाम पर उन्होंने बनाई National Council of Trade Union और यह वही संयुक्त मोर्चा है। इस प्रयास के पीछे Unity को भावना कम तथा B.M.S. तथा CITU को रोकने की इच्छा अधिक है।

एकता और हम

इसमें Unity संबंधित जो कार्यवाही है या होगी उसका हम स्वागत करते हैं। फिर भी Unity के पक्ष में और सही Unity हासिल करने के लिए हम भा.म. संघ को विसर्जित करने की तैयारी रखते हैं। किंतु यह यूनिटी सही (genuine तथा संपूर्ण total) होनी चाहिए।

संयुक्त मोर्चा: संभावनाएँ

संयुक्त मोर्चे के विषय में हमने अपने अनुमान इसके पूर्व ही बताये हमने कहा है इसकी सफलता के मार्ग में तीन बाधाएँ हैं। एक तो Trade Union Unity की सच्ची (genuine) भावना का तीनों में भाव है। वे इस प्रयास को आत्मरक्षा Self-Preservation की Strategy के नाते उपयोग में ला रहे हैं। दूसरी बात, यूनियन की Recognition के बारे में विषय में सर्वसम्मत प्रक्रिया उत्क्रांत करना तीनों के लिए संभवनीय न होगा। (निहित स्वार्थ तीनों के भिन्न भिन्न होने के कारण) तीसरी बात चोटी के नेताओं में सीटों के बँटवारे के आधार पर कुछ समझौता हो भी गया तो उसको नीचे के विभिन्न स्तरों पर क्रियाशील करना काफी कठिन होगा। क्योंकि निम्नस्तर पर विभिन्न निहित स्वार्थो का संघर्ष अधिक प्रत्यक्ष तथा अधिक तीव्र होता है। इन तीनों कारणों से संयुक्त मोर्चे की सफलता को हमने संदेहजनक बताया था। उनमें से क्रमांक 2 की बात की सत्यता का परिचय इन दिनों में सबको मिला है। संयुक्त मोर्चे की बात केवल संबंधित पक्षों पर ही छोड़ दी तो इसमें सफलता मिलने की संभावना निकट भविष्य में नहीं है।

 

सरकार का मंतव्य

किंतु इसी समय इसमें और भी एक factor उपस्थित हो गया है। वह है सरकारी इच्छा तथा योजना। नई कुछ घटनाओं के आधार पर यह अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त गुंजाइश है कि सरकार जिस तरह Committed Bureaucracy, Committed Judiciary Committed Press चाहती है उसी तरह वह Committed Trade Union Movement (प्रतिबद्ध श्रम संगठन) निर्माण करना चाहती है। इंटक को सरकार आश्रित बनाना और इस तरह की इंटक के साथ एकता (Unity) या संयुक्त मोर्चा (United Front) बनाने के लिए AITUC तथा HMS को प्रवृत्त करना यह उनकी Strategy है। AITUC या HMS के नेताओं को ऊँचे ओहदों पर बिठाकर उनकी संस्थाओं को अपने साथ मिला लेना यह नीति सरकार के लिए असंभव नहीं, अनोखी भी नहीं। नीचे के विभिन्न स्तरों के नेता इसका विरोध कर सकते हैं किंतु चोटी के नेताओं को समझना सरकार के लिए कठिन नहीं। इस परस्पर विरोधी हेतुओं के संघर्ष में सरकारी प्रयास सफल होगा या असफल यह बताना इस समय संभवनीय नहीं है।

सरकारी प्रयास का भविष्य

सरकार का यह प्रयास सफल होगा या असफल ? इस संबंध में आज कुछ भी नहीं कहा जा सकता। किंतु दोनों संभावनाओं को ख्याल में रखते हुए हमें अपनी नीति निश्चित करनी होगी।

असफलता की अवस्था में

मान लो सरकार असफल रही। तो क्या होगा? उस समय श्रमिक क्षेत्र की स्थिति यथापूर्ण छिन्न-भिन्न रहेगी। उसमें हमारी जिम्मेदारियाँ, कठिनाईयो तथा प्रगति की आशाएँ यथापूर्व रहेंगी। उस परिस्थिति में हमें अपना संगठन मजबूत बनाने का भगीरथ प्रयत्न यथापूर्व ही करना होगा।

सफलता की अवस्था में

किंतु मान लो सरकार सफलता प्राप्त करती है। तो क्या होगा? उस परिस्थिति में Committed Trade Union Movement का निर्माण होगा। प्रारंभिक अवस्था में सरकारी छत्रछाया के कारण इस Movement की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ेगी। अपनी-अपनी आशा आकाँक्षाओं को लेकर तरह तरह के लोग उसमें शामिल होंगे। संख्या बहुत बढ़ गई। ऐसा दृश्य उपस्थित होगा। यही अवस्था प्रारंभिक स्थिति में इंटक की हो गई थी। किंतु थोड़े ही दिनों में घटना क्रम में परिवर्तन का प्रारंभ होगा। केवल स्वार्थवश आए हुए सभी लोगों की आशाएँ कोई भी पूरी नहीं कर सकता। धीरे-धीरे अधिकाधिक लोगों के लिए निराशा, विफलता (Frustration) भ्रम-निराशा (disillusionment) का काल खंड प्रारंभ होगा। सरकार के प्रति Committed होने के कारण यह नई यूनियन आवश्यकता होने पर भी सरकार के खिलाफ सच्ची लड़ाई नहीं छेड़ सकेगी। हमारा 'कबूतर और हमसे ही गुटरगूँ' यह अवस्था वास्तव में ज्यादा दिन नहीं चल सकती और मजदूरों की जायज माँगे सरकार पूरी नहीं कर सकेगी। सरकारी प्रतिष्ठा का glamour (चमक-दमक) उस अवस्था में ज्यादा तक सहारा नहीं दे सकता। इस नई Commitment movement के बारे में मजदूरों की धीरे-धीरे वही प्रतिक्रिया बनेगी जो इंटक के बारे में अभी बनी हुई है। बगैर संघर्ष के मजदूर रह नहीं सकेंगे और प्रतिष्ठा प्राप्त नेता सच्चा संघर्ष छेड़ नहीं सकेंगे। प्रारंभ में मजदूरों को बहकाने के लिए ये कुछ मिलापी कुश्तियाँ भले ही खेलें। किंतु यह केवल लड़ाई का नाटक है, सच्ची लड़ाई नहीं, यह बात मजदूर समझ जाएंगे। ज्यादा देर तक मजदूरों को बुद्धू बनाना किसी के लिए संभवनीय नहीं है। उस अवस्था में केवल सरकारी छत्रछाया के glamour से मजदूरों को रोके रखना संभव नहीं होगा। मजदूर Committed Trade Union से निराश होकर सच्ची genuine trade union की खोज, अपने हितों के लिए करने लगेंगे।

मजदूरों का एकमात्र सहारा

इस तरह विवश हुए श्रमिकों को सहारा देना यह सच्चे ट्रेड यूनियन का काम करने के लिए उस समय मैदान में भारतीय मजदूर संघ के अलावा और कौन रहेगा? क्योंकि दूसरी एकमात्र वैकल्पिक संस्था CITU साहसवादी (Adventurist) है तथा उसकी Commitment सच्चे ट्रेड यूनियनिज्म के साथ नहीं Revolution के साथ है। मजदूरों की माँगों की पूर्ति के लिए सच्चे ट्रेड यूनियनिज्म की आवश्यकता है। यह कार्य सफलतापूर्वक करना भारतीय मजदूर संघ के लिए ही व्यवहार्य है। उस अवस्था में हमारे ऊपर आनेवाली जिम्मेवारी का निर्वाह करने के लिए कितनी दृढ़ता तथा शक्ति की आवश्यकता रहेगी इसका अंदाजा हम सभी कार्यकर्ताओं ने अभी से करना चाहिए । इसमें हमने सुस्ती की तो परिणामस्वरूप होने वाली हानि केवल भारतीय मजदूर संघ की नहीं रहेगी। संपूर्ण राष्ट्रीय क्षेत्र की यह हानि होगी। मतलब संभाव्य वैकल्पिक अवस्थाएं हमसे अपेक्षा करती हैं कि केवल संस्था के हित के लिए नहीं अपितु मजदूर क्षेत्र के हितों की दृष्टि से शीघ्रातिशीघ्र अधिकतम शक्ति संपादन करें।

मैंने थोड़े समय में अधिक कार्य करने की बात कही है। इसका आधार हमारा कार्यकर्ता होगा। अधिक कार्यकर्ता अधिक काम करें और जो अधिक काम करते हैं वे पूरा समय देने को तैयार हों। साथ ही इस क्षेत्र के कार्य के लिए हमें भी योग्यता प्राप्त करनी होगी। अतः इस निमित्त गुण विकास का प्रयत्न करना होगा। क्या निर्माण करना है यह आँखों से ओझल नहीं। भाषणबाजी से सस्ती नेतागिरी आ सकती है। यह भावना हमारे लिए उचित नहीं। जो अधिक बोलते हैं या अधिक प्रसिद्ध होते हैं, आवश्यक नहीं कि वे बुद्धिमान ही हों। यह भी संभव है कि अधिक बुद्धिमान लोग कम बोलते हैं। व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा के कारण भी लोग बड़ा मंच मिलने पर मर्यादा का विस्मरण कर सकते हैं। भाषणों से लोकेषणा पूर्ण हो सकती है पर कार्य सिद्ध हो यह आवश्यक नहीं। अतः प्रसिद्धि को हम संगठन का या कार्यसिद्धि का विकल्प न मानें। वह पूर्णतः भिन्न शास्त्र है। कभी-कभी लोकतंत्र के नाम पर चाहे जो बोलना भी लोग अधिकार समझते हैं। पर यह सत्य नहीं। किसी बात पर निर्णय लेने के लिए 4/6 कार्यकर्ता बैठे हैं। प्रस्तावक ने छूटते ही कहा कि मेरे प्रस्ताव का शायद कोई मूर्ख ही विरोध करेगा, क्या यह लोकतंत्र होगा ? क्या इसमें लोगों की भावना या विचारों का सम्मान है? या तो उस बैठक में अन्य विचार के साथी चुप बैठना पसंद करेंगे या प्रस्तावक से झगड़ा करना होगा। अतः हमें समझना चाहिए हम क्या बोलें? कहाँ बोले? कैसा बोलें? अर्थात बोलने पर नियंत्रण हो।

इसी प्रकार सुनने पर भी नियंत्रण आवश्यक है। आज के समय में इस दृष्टि से पर्याप्त सतर्कता अपेक्षित है। क्योंकि केवल कोई दुश्मनी के कारण ही उल्टी सीधी बातें अफवाहों के रूप में फैलाता हो तो यह बात नहीं। इसकी संभावना तो है ही। अतः एक दूसरे के बारे में अधिक विश्वास आवश्यक है। पर ऐसे अपने बंधुओं में से ही कुछ लोग मिल सकते हैं जो किसी बुरी भावना से नहीं, अपितु स्वभाववश एक दूसरे को आपस में लड़ाने में मजा लेते रहते हैं। मेरे पास आवेंगे, मेरे भाषण की तारीफ करेंगे और फलां-फलां मेरी निंदा कर रहा था ऐसी बात धीरे से मेरे कान पर डाल देंगे। हमें किसी के बारे में शिकायत हो तो हम सीधे उसी आदमी से बात करें। अन्यथा ऐसे व्यक्ति से बात कहें जो सुधार सकता हो। आसपास कहीं भी नहीं। साथ ही गैर जिम्मेदारी से बोलने वालों को भी हमें यह ताकीद देनी होगी। बाईबिल में कहा है कि अहं रूपी शैतान और भगवान हृदयरूपी सिंहासन पर एक साथ विराजमान नहीं हो सकते। अपने यहाँ भी एक संत कवि का दोहा प्रसिद्ध है:

जहाँ मैं हूँ वहाँ हरि नहीं , जहाँ हरि है वहाँ मैं नहीं।

प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय॥

अहंकार को कम करते करते ही ध्येयार्पण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। प्रभावी तथा दृढ कार्य करने वाले इसी आधार पर खड़े रहें तो उन्हें यश अवश्य मिलेगा।

भारत की वर्तमान स्थिति का अधिक वर्णन करना आवश्यक नहीं। शायद इस भीषण स्थिति से देश को बचाने के लिए अग्रसर राष्ट्र जीवनी शक्ति का प्रमुख हथियार इस नाते भा.म.संघ को ही अपने को सिद्ध करना होगा। अतः जो कुछ बताया गया है उसे प्रत्यक्ष व्यवहार में कैसे लाया जा सकता है। इस पर सब ध्यान दें। उस पर अमल करें। परमात्मा हमसे ही यह पुण्य कार्य करवाना चाहता है ।

अधिवेशन का संदेश

शक्ति संपादन के साधनों का विवरण हमारे मंच से बार बार हुआ है। उनका उपयोग तथा अनुसरण भी हम सब कार्यकर्ता अधिकाधिक मात्रा में कर रहे हैं। उसी मार्ग का अवलंबन अधिक श्रद्धा तथा निश्चय के साथ करते हम आने वाले दिनों में अपनी राष्ट्रीय जिम्मेवारी का निर्वाह करने के लिए स्वयम् अपने को समर्थ बनाएं यही समय की माँग है।

शीघ्रातिशीघ्र अधिकतम शक्ति का संपादन करना यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है और यही बंबई अधिवेशन का समयोचित संदेश है।

भारतीय मजदूर संघ , चतुर्थ अधिवेशन (अमृतसर)

19 और 20 अप्रैल, 1975

महामंत्री की रिपोर्ट

(अमृतसर में हुए चौथे अखिल भारतीय त्रिवार्षिक सम्मेलन में महामंत्री द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन)

प्रारंभ में भारतीय मजदूर संघ उन लोगों की स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करता है, जो विचारणीय अवधि के दौरान, हमसे बिछुड़ गए। मजदूर संघ क्षेत्र ने अपने कई निष्ठावान कार्यकर्ताओं को खो दिया, जैसे सर्वश्री सतीश लुम्बा, एस. आर. बसावड़ा, आबिद अली, वसन्त कुलकर्णी, दीवान चमनलाल और के. जी. बोस।

राष्ट्रीय मंच पर हमने सर्वश्री प्रेमनाथ जी डोगरा, मोहनकुमार मंगलम, सरदार गुरनाम सिंह, बख्शी गुलाम मोहम्मद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, दयानन्द बान्दोडकर, बरकतउल्ला खान, श्रीमती सुचेता कृपलानी, वी. के कृष्णमेनन, डी.संजीवैया, चारु मजूमदार, बाबा साहब आप्टे, नाना पालकर, जैसी महान हस्तियों को खो दिया।

राष्ट्र को जो सबसे महान क्षति इस अवधि में हुई, वह थी आदरणीय श्री गुरुजी का महानिर्वाण जो राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक संगठनों तथा आंदोलनों के लिए मार्गदर्शक और दार्शनिक थे।

जहाँ तक भारतीय मजदूर संघ का सवाल है, मृत्यु के निर्मम हाथों ने हमारे कुछ अनन्यतम सहयोगियों को हम से छीन लिया है। इनमें से प्रमुख हैं, (1) श्री रामस्वरूप विद्यार्थी, अध्यक्ष, दिल्ली प्रदेश भारतीय मजदूर संघ और मध्य रेलवे कर्मचारी संघ (2) श्री चाँद रतन आचार्य, महासचिव, राजस्थान राज्य बी. एम. एस. (3) श्री वसन्त करमाकर, संगठन सचिव, बीमा कर्मचारी राष्ट्रीय संघ और (4) श्री गंगाधर नायक सचिव, महाराष्ट्र राज्य बी. एम. एस. में उनका योगदान अमूल्य था और मजदूर क्षेत्र तथा बी. एम. एस. इन राष्ट्र निर्माता मजदूर संघवादी लोगों के चले जाने के बाद वैसा कभी नहीं हो सकेगा, जैसा पहले था। भारतीय मजदूर संघ भारी हृदय से इन सभी लोगों की पवित्र स्मृति में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है, जिन्होंने भारत माता के उल्लेखनीय सेवक का दर्जा प्राप्त कर लिया था।

हम सब के लिए यह बहुत ही संतोष की बात है कि हमारे आदरणीय अध्यक्ष श्री बी. के. मुखर्जी ने पक्षाघात के भंयकर प्रहार को सफलतापूर्वक झेल लिया और इसे तथा अन्य तकलीफों को भी उन्होंने अपनी चारित्रिक इच्छाशक्ति की दृढ़ता के कारण ही बर्दाश्त किया। वे गत अढ़ाई तीन वर्षों से बीमार रहते हुए भी उसी तत्परता और ताजगी के साथ बी. एम. एस की गतिविधियों का निर्देशन कर रहे हैं। हम सभी भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे जल्दी पूर्ण स्वस्थ हों।

 

संगठनात्मक प्रगति

पिछली बार हम लोग मुंबई 22 और 23 मई सन् 1972 को मिले थे। उसके बाद की अवधि में विभिन्न राज्यों और उद्योगों में बी. एम. एस. की काफी प्रगति हुई। 1-1-72 को बी. एम.एस. की संबद्ध संस्थाओं की संख्या 1211 थी और इसकी कुल सदस्यता लगभग छः लाख थी। 1-1-75 को यह आंकड़ा 1313 और सदस्य संख्या 8 लाख 40 हजार हो गयी। राष्ट्रीय औद्योगिक फेडरेशनों की संख्या 11 से बढ़कर 14 हो गयी।

इस अवधि में बी. एम. एस. को जम्मू और कश्मीर में राज्य स्तर की मान्यता मिल गयी, प्रेक्षक के रूप में पश्चिम बंगाल में राज्य श्रम-सलाहकार बोर्ड में निमंत्रित किया गया, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र और कर्नाटक में नवनिर्मित समितियों में प्रतिनिधित्व मिला। उड़ीसा और गुजरात में राज्य की न्यूनतम वेतन समितियों में प्रतिनिधित्व दिया गया। दिसंबर 1973 और फरवरी 1974 सरकारी क्षेत्र की औद्योगिक संबंध गोष्ठियों में शामिल किया गया; 20 अगस्त, 1973 को राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद् और मजदूर संघ आंदोलन की गोष्ठियों में निर्मित संचालन ग्रुप में प्रतिनिधित्व दिया अगस्त 11974 में कोयला खान के बारे में राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद् समिति भी प्रतिनिधित्व दिया गया; अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एशियाई क्षेत्रीय गोष्ठी में जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय श्रम स्तर के बारे में अक्तूबर-नवंबर 1974 में नई दिल्ली में आयोजित की गई थी, प्रेक्षक के रूप में निमंत्रित किया गया।

हमने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इनमें हिस्सा लिया :- (1) 22 फरवरी 1973 को राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम कर्मचारियों के भाग लेने संबंधी गोष्ठी (2) अप्रैल 1974 में श्रम और आबादी नीतियों संबंधी राष्ट्रीय गोष्ठी (3) नवंबर 1974 में मजदूर संघ के शिक्षा अधिकारियों के लिए कर्मचारियों की आबादी संबंधी शिक्षा और कार्यशाला तथा (4) दिसंबर 1974 में नई दिल्ली में संघ नेताओं के लिए पहले विकास कार्यक्रम के बारे में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन गोष्ठी और (5) 2-3 दिसंबर 1974 को कलकत्ता में न्यूनतम वेतन संबंधी आई. एल. ओ. की गोष्ठी, जुलाई 1972 में सीमेंट उद्योग में भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध संस्था को त्रिपक्षीय वार्ता के लिए निमंत्रित किया गया, 1973 में भारतीय विद्युत मजदूर संघ, बिजली के बारे में त्रिपक्षीय गोष्ठी में हिस्से लेने वाला एक पक्ष था। बीमा कर्मचारियों का राष्ट्रीय संगठन संयुक्त मोर्चे में भी के साथ था, और के साथ 22 जनवरी, 1954 को संयुक्त मोर्चा बनाने संबंधी वार्ता इसने भाग लिया। 3 अप्रैल 1974 को बैंक कर्मचारियों के राष्ट्रीय संगठन को श्रम मंत्रालय ने बातचीत के लिए निमंत्रित किया, हालाँकि अधिक दबाव के कारण बाद में यह प्रयास छोड़ देना पड़ा।

11 अप्रैल को बी.एम.एस. और बी.आर.एम.एस. को श्रम मंत्रालय ने रेल कर्मचारियों के संघर्ष के लिए बुलाया जो राष्ट्रीय सहयोग समिति का एक अंग था, और इसी वजह से अप्रैल 1975 में रेल मंत्रालय के साथ बातचीत में और मई 1974 में रेल हड़ताल में भी यह शामिल रहा। भारतीय मजदूर संघ पटसन कर्मचारी फैडरेशन, फरवरी 1975 में पटसन हड़ताल के लिए पश्चिम बंगाल संयुक्त मोर्चे का एक सदस्य बन गया और राज्य तथा केंद्रीय दोनों स्तरों पर इसे मान्यता मिल गयी। की महाराष्ट्र और चंडीगढ़ शाखाओं ने अपने अपने इलाकों में लगातार संयुक्त कृषि समिति में नेतृत्व बनाए रखा है। बी. एम. एस. ने 9 अगस्त को दिल्ली में श्रम संगठन के सी.डी.एस. विरोधी राष्ट्रीय सम्मेलन में हिस्सा लिया और बाद में सम्मेलन द्वारा गठित राष्ट्रीय अभियान समिति का सदस्य बन गया।

मुंबई अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि 1972 का वर्ष, संगठन के लिए " असंरक्षित श्रम वर्ष" और आंदोलन के लिए 'बोनस के रूप में मनाया जाए। बी. एम. एस. ने देश भर में बोनस के मामले पर मजदूरों को संगठिन करने में पहल की और दूसरे मोर्चे पर इसने अन्य चीजों के साथ-साथ अमृतसर, बटाला और मुंबई में प्राइवेट चालकों को, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान में और महाराष्ट्र में कृषि मजदूरों को, महाराष्ट्र में बुनकर मजदूरों को, पूर्वी उत्तर प्रदेश में वन मजदूरों को, कानपुर, देहरादून, गुडगाँव और चंडीगढ़ में दर्जी कर्मचारियों को, दिल्ली में घरेलू नौकरों को, कोचीन में निर्माण ठेकेदारों के मजदूरों को, दिल्ली में दूतावासों के कर्मचारियों तथा समाज कल्याण संगठनों के कर्मचारियों को, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में फार्मासिस्टों और कंपाउंडरों को, कालीकट मे जहाज के कर्मचारियों को, पालघाट में बढ़इयों को, कोचीन में चूने के भटटों में काम करने वाले कर्मचारियों को और मुंबई में पुलिस अस्पताल के कर्मचारियों को संगठित किया।

श्रम मंच

1972 का वर्ष इंटक में राष्ट्रीय स्तर पर अब तक के पहले विघटन की पूर्णता के लिए मजदूर संघ के इतिहास में महत्वपूर्ण वर्ष माना जाएगा। इसके बाद जो राष्ट्रीय श्रम संगठन बना, वह गांधीवादी विचारधारा के काफी समीप मालूम पड़ता है, हालाँकि इसकी वर्गीकरण की क्षमता की अभी विभिन्न स्थितियों और विशेष अवधि में जाँच की जानी है। एच.एम.पी. के केंद्रीय नेताओं ने बार बार एच.एम.एस. में शामिल होने की और फिर उससे अलग होने की घोषणा की। संगठनात्मक रूप से एच.एम.पी. ने कोई प्रगति नहीं की। कलकत्ता में दिसंबर 1974 में अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में एच.एम.एस. विघटन से बच गया। ए.आई. टी.यू.सी. और सी.आई.टी.यू. के बीच रस्साकसी से मजदूर क्षेत्र में कम्युनिस्ट ताकतों को संगठित होने में मदद नहीं मिली है।

सत्ताधारी दल के साथ संबंध होने के कारण ए.आई.टी.यू.सी. का विभिन्न राज्यों में विस्तार के लिए काफी नुकसान हुआ है। सी. आई. टी. यू. विभिन्न राज्यो में विस्तार के लिए काफी प्रयास करता रहा है और हालाँकि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक कारणों से इसे कुछ धक्का लगा, फिर भी इसने कुछ राज्यों में अच्छी प्रगति कर ली है तथा विभिन्न केंद्रों में धीरे-धीरे संगठन निर्माण के कार्यक्रमों में जुटा हुआ है। लेकिन इसने रेल कर्मचारियों के राष्ट्रीय फेडरेशन बनाने का प्रयास छोड़ दिया है। दोनों यू.टी.यू.सी अपनी-अपनी क्षमता के अनुपात में पहले की तरह ही मजदूरों की सेवा में जुटे हुए हैं। डी.एम.के. के नेतृत्व वाले प्रगतिशील मजदूर फेडरेशन की शक्ति और साख लगातार घटती जा रही है। इंडियन फेडरेशन आफ इंडिपेंडेंट यूनियन के मामले में भी यही हुआ फारवर्ड ब्लॉक या एस.यू.सी. आदि जैसी वाम पक्षीय पार्टियों द्वारा संरक्षित विभिन्न मजदूर संघ फेडरेशनों अथवा राष्ट्रीय मोर्चा की प्रगति या ह्रास बारे में कोई निर्णय देना जोखिम की बात होगी।

पश्चिम बंगाल की बदलती हुई स्थिति में भी बड़े आराम से यह कहा जा सकता है कि किसी भी विचारधारा की प्रगति में गरीबी और दुर्बलता के मुकाबले शक्ति या अधूरी समृद्धि ज्यादा हानिकारक हो सकती है। रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, अपने मजदूर संघ में अपने राजनीतिक समर्थकों के एक हजारवें हिस्से को भी शामिल नहीं कर सका क्योंकि इसके पास मजदूर संघ कार्यकर्ताओं की पर्याप्त संख्या नहीं थी। पंजाब अकाली पार्टी के मजदूर दल के पास बहुत सारे सदस्य थे, जिन्हें संगठित करना था, किसान मजदूर पार्टी की मजदूर संघ शाखा की शक्ति खत्म होती जा रही है। पश्चिमी महाराष्ट्र में समिति सर्व श्रमिक संघ ने ग्रामीण इलाकों में सफलतापूर्वक अपने प्रभाव का विस्तार किया। मुस्लिम लीग के स्वतंत्र मजदूर संघ या तो ढीले पड़ते जा रहे हैं या पीछे हटते जा रहे हैं। जम्मू और कश्मीर में वस्तुतः स्वतंत्र केंद्रीय मजदूर संघ में जड़ता बनी हुई है।

तत्कालीन स्वतंत्रता ने स्वतंत्र और जिम्मेदार मजदूर संघों को समन्वित करने के लिए एक केंद्र बनाने का जो प्रयास किया, उसका कोई परिणाम नहीं निकला। मजदूर क्षेत्र में गिरजाघरों के प्रभाव में कुछ वृद्धि हुई जो अधिकांशत: इसकी गैर मजदूर संघ गतिविधियों और सामाजिक सेवा के कारण ही हुई। आई.एन.टी.यू.सी., बी.एम.एस. सी.आई.टी.यू ने इस अवधि में कृषि मजदूरों को संगठित करने का क्रमवार प्रयास शुरू किया। शिल्प संघ और वर्गवार संघों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है।

29 मई, 1972 को मजदूर संघों की एक राष्ट्रीय परिषद् बनायी गयी, जिसमें आई. एन.टी.यू.सी., एच.एम.एस और ए.आई.टी.यू.सी के प्रतिनिधि शामिल थे। इसके बाद एक प्रतिद्वंद्वी संयुक्त परिषद् बनायी गयी, जिसमें भी एच.एम.पी, यू.टी.यू.सी आदि के प्रतिनिधि शामिल थे। (अब यह दोनों परिषद् भंग हो गयी हैं।)

इस अवधि के दौरान ए.आई.आई.ई.ए., एन.एफ.पी.टी.ई., श्रमजीवी पत्रकारों, आयकर कर्मचारियों, केंद्रीय सचिवालय कर्मचारियों और आई.ए आई.एन.टी.सू.सी. की कुछ प्रादेशिक शाखाओं में विभाजन की भावना और गहरी हो गयी। ए.आई.आर.एफ. में जार्ज फर्नांडीस के पक्ष और विपक्ष वाले गुटों में भी टकराव हुआ। केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के परिसंघ में भी, गयी। जिसने सितंबर 1968 में संयुक्त संघर्ष किया था, दरार पड़ गयी।

यह ध्यान देने की बात है कि असंगठित कर्मचारियों की संख्या संगठित मजदूरों की संख्या से काफी अधिक है और अगर नए सिरे से पता लगाया जाए तो यह मालूम होगा कि गैर मान्यता प्राप्त और स्वतंत्र मजदूर संघों की कुल संख्या किसी भी एक केंद्रीय श्रम संगठन की सदस्य संख्या से काफी अधिक है। नवनिर्मित संगठनों की यह भावना बढ़ती जा रही है कि वे निष्पक्ष रहें, ताकि जरूरत पड़ने पर वे सभी का अथवा सी.एल.ओ. में से किसी एक का समर्थन प्राप्त कर सकें।

यह असंबद्ध संगठन विभिन्न व्यक्तियों के इर्द गिर्द ही सीमित रहते हैं। ऐसे दलों में एक सबसे बड़े दल ने मुंबई में श्री आर. जे. मेहता के नेतृत्व में, गुण्डागर्दी और आतंकवाद को रोकने में कुछ उत्कृष्ट काम किया है।

बी.एच.ई.एल., एच.एम.टी. एच.ए.एल., बी.ई.एल, जैसे कुछ उद्योगों में राष्ट्रीय स्तर पर द्विपक्षीय समझौता वार्ता में भाग लेने और विभिन्न उद्योगों में तालाबंदियों, नियमानुसार काम करने अथवा सामूहिक आकस्मिक अवकाश लेने, घेराव, बंद, छटनी, तालाबंदी आदि के साथ साथ इस अवधि में जो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई, वे हैं आम बीमा, कोकिंग कोल, कोयला खान और 103 कपड़ा मिलों का राष्ट्रीयकरण, गेहूँ के थोक व्यापार को सरकारी नियंत्रण में लेना और बाद में इस नीति को छोड़ देना, जून 1972 में इसके संचालन के बारे विशेषज्ञ समिति की सर्व सम्मत रिपोर्ट, 2 अप्रैल, 1973 को तीसरे वेतन आयोग की अंतिम रिपोर्ट, 12 सितंबर 1972 को बोनस समिति की अंतरिम रिपोर्ट और 30 सितंबर 1974 को इसकी अंतिम रिपोर्ट, 1973 को बेरोजगारी के बारे में भगवती समिति की रिपोर्ट, 23 सितंबर, 1972 को एक आध्यादेश जिसमें न्यूनतम बोनस वृद्धि को कार्यरूप देना, ग्रेच्युटी भुगतान कानून बनाना, एडीशनल एमाल्यूकून्ट कंपलसरी डिपोजिट कानून 1974 और राष्ट्रीय श्रम आयोग की सर्वसम्मत सिफारिशों को भी भारत सरकार द्वारा लागू न करना है।

जहाँ तक औद्योगिक संबंधों का सवाल है, यह अवधि सुरक्षित, अधिक व्यापक और विभिन्न उद्योगों में सुरक्षा के बारे में बराबर संघर्ष करने की अवधि रही। सीमेंट कर्मचारियों, केंद्र सरकार के कर्मचारियों और रेल कर्मचारियों की अखिल भारतीय हड़तालें, लोको कर्मचारियों, गार्डों तथा केरल, त्रिपुरा और बिहार के सरकारी कर्मचारियों की हड़तालें, इंडियन एअरलाइन्स, जीवन बीमा निगम, एअर इंडिया, इस्पात, कोयला, तथा केरल और तमिलनाडु के कृषि मजदूरों, इंजीनियरी, पटसन, सूती कपड़ा मिल, सड़क परिवहन, बागान, नारियल जटा और काजू कर्मचारियों की हड़तालें तथा महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में मजदूर संघों के संयुक्त मोर्चों के बंद यह सारी बातें इस अवधि के दौरान हुए महत्वपूर्ण संघर्षों के कुछ नमूने हैं।

इस अवधि की विशेष बात है कि शिक्षकों, प्रोफेसरों, डाक्टरों, इंजीनियरों, बैंक अधिकारियों आदि के हड़ताल के प्रयत्न अधिकारियों द्वारा आपात् स्थिति का दुरुपयोग, भारत रक्षा नियम और आंतरिक सुरक्षा कानून के अधीन मजदूर संघ नेताओं की गिरफ्तारी, धारा 144 तथा कर्फ्यू लगाना, पुलिस की ज्यादतियाँ एवं शांतिपूर्ण कर्मचारियों के विरुद्ध सी.आर.पी., बी.एस.एफ., प्रादेशिक सेना आदि की लामबंदी- इन सारी दमन कार्रवाइयों से बिना शक यह साबित होता है कि सरकार तथा अन्य मालिक, लोकतंत्र के नियमों का पालन करने को तैयार नहीं थे इस अवधि की एक विचित्र बात यह थी कि मालिकों द्वारा तालाबंदी की घोषणा से हड़तालों से हुई हानि की अपेक्षा बहुत अधिक जन-दिवसों की हानि हुई। इनमें सरकार और सरकारी संस्थाएँ शामिल हैं।

इस अवधि में आदेशों और समझौतों को लागू करने में अनिच्छा की प्रवृत्ति बढ़ी और कुछ आवश्यक प्रबन्ध कार्यों के नाम पर निरंकुशता में भी पर्याप्त वृद्धि हुई। प्रबंधकों की निर्दयता के कारण कार्यभार बढ़ा। सुरक्षा नियमों में कमी आयी। दुर्घटना की दर में वृद्धि हुई और कुल मिलाकर घायलों की संख्या बढ़ती गयी। सभवतः केवल बंदरगाह और गोदी कर्मचारियों की हड़ताल को छोड़ कर, जो अपने आप में भी एक वर्ग है, इस अवधि के कर्मचारियों के संघर्ष का पूरा इतिहास अलोकतंत्री दमन की निर्बाध कहानी है। अगर एक पक्ष लोकतंत्र के सिद्धांतों को मानना नहीं चाहता है तो दूसरे पक्ष के पास इससे निपटने के बहुत से उपाय नहीं रहते। इसी अवधि में विदेशी तथा देशी एकाधिकार को पर्याप्त रूप से नयी रियायतें दी गयीं जो नयी औद्योगिक नीति संबंधी प्रस्ताव के अधीन लागू की गयीं।

अब तक अधिकारी वर्ग ही दृढ़ता से कर्ताधर्ता बन गया। नौकरशाही का पूँजीवाद सरकारी क्षेत्र में बढ़ता गया और अब यह सारी अर्थव्यवस्था पर छा गया है। सत्ताधारी दल ने पाँचवी पंचवर्षीय योजना का मजाक बना दिया है और अस्थायित्व के नाम पर सरकारी नीतियाँ दिशाहीन हो गयी हैं। कोई भी तार्किक निर्णय पूर्णतया राजनीतिक आधार पर लिया जाता है। आर्थिक न्याय नहीं बल्कि राजनीतिक स्वार्थ, निर्णय का मुख्य आधार बन गया है।

बी.एम.एस. का रवैयाः

विचारणीय अवधि के दौरान बी. एम. एस ने बोनस समीक्षा समिति, बेरोजगारी के बारे में विशेषज्ञों की समिति कर्मचारियों की शिक्षा समीक्षा समिति का गठन किया तथा तीसरे वेतन आयोग में अपनी संबद्ध संस्थाओं द्वारा ज्ञापन प्रस्तुत किए और गवाही दी।

मुंबई अधिवेशन के बाद बी.एम.एस. की सर्वोच्च परिषद् की 12-13 मई 1973 को ग्वालियर में बैठक हुई। केंद्रीय कार्यकारिणी ने आठ बार विचार विमर्श किया। विभिन्न केंद्रों पर स्थानीय और औद्योगिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अलावा हम लोगों ने दिसंबर 1974 में पंचगनी में और जनवरी, 1975 में पालघाट में क्षेत्रीय प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का आयोजन किया। दिसंबर 1974 बैंक प्रबन्धन राष्ट्रीय संस्थान की मदद से महाबलेश्वर में एन.ओ.बी.डब्लू. के कर्मचारियों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया। राज्य शाखाओं और राष्ट्रीय औद्योगिक फेडरेशन ने अपनी कार्यकारिणी और आम परिषद् की बैठकें अपने संविधान के अनुसार बुलायीं।

विचारणीय अवधि के दौरान पास किए गए प्रस्तावों तथा विभिन्न अवसरों पर जारी किए गए वक्तव्यों के जरिए बी. एम. एस. ने उपभोक्ता विरोधी वार्षिक बजट और केंद्रीय तथा राज्य स्तरों पर पास किए गए। श्रम विरोधी कानूनों की निंदा की तथा विभिन्न उद्योगों में मजदूरों के विभिन्न संघर्षों के प्रति एकता प्रकट की। आर्थिक क्षेत्र में बाढ़, सूखा, मानसून के प्रकोप, बांग्लादेश से शरणार्थियों के आगमन, विश्वव्यापी मुद्रास्फीति, अंतरराष्ट्रीय तेल संकट, आबादी के विस्तार और कथित 'कमी' तथा 'मंदी' का बहाना लेकर सरकार की असफलता को छिपाने वाली नीति का पर्दाफाश किया और अन्य बातों के साथ साथ माँग की कि 10 मई 1974 को जिन केंद्रीय कर्मचारियों ने हड़ताल की, तथा जिन हड़ताली रेल कर्मचारियों को दंडित किया गया, वह वापस लिया जाए, केंद्रीय कर्मचारियों को मँहगाई भत्ते की किस्तें, जो रोक रखी गयी हैं, वह दी जाएँ और उनके वेतन में संशोधन किया जाए, क्योंकि मूल्य सूचकांक 272 के अंक को पार कर गया है। सरकार ने जिन रुग्ण कपड़ा मिलों को अपने हाथ में लिया है, उनके कर्मचारियों की सभी बकाया राशि का भुगतान किया जाए और कपड़ा उद्योगों में जो कानून बनाए गए हैं, अथवा जो समझौते हुए हैं या जो निर्णय दिए गए हैं, उन्हें इन रुग्ण इकाइयों के लिए लागू किया जाए; बोनस, ग्रेच्युटी, ई.एस. आई., परिवार पेंशन योजना, आदि से संबंधित कानून में समुचित संशोधन किया जाए।

अनाज तथा कपड़ा, खाने के तेल, चीनी, मछली, मिटटी का तेल, ईंधन आदि आवश्यक वस्तुओं के लिए सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की जाए. जिसका निरीक्षण जन समितियाँ करें ताकि इन वस्तुओं की निरंतर सप्लाई बनी रहे और (कम से कम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आधा किलो अनाज मिल सके) यह अच्छे किस्म का हो और सस्ते दाम पर हो सभी क्षेत्रों में मालिकों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने कर्मचारियों के लाभ के लिए ऐसी वितरण व्यवस्था अपनाएंगे।

सभी कर्मचारियों को पूरा मुआवजा दिया जाए, जिनमें वह प्रतिष्ठान भी शामिल हैं, जहाँ 50 से कम कर्मचारी हैं, और जिन्हें बिजली को कटौती अथवा बिजली की कमी से नुकसान हो रहा है। वर्तमान समिति क्षमता का पूरा विभिन्न उपयोग किया जाए और उत्पादन बढ़ाने में आने वाली रुकावटें दूर की जाएँ। विभिन्न उद्योगों में आकस्मिक, अस्थाई, और बदली कर्मचारियों की समुचित पुष्टि की जाए। महाराष्ट्र मथाड़ी, हमाल और अन्य श्रमिक कानून के आधार पर असुरक्षित मजदूरों की सुरक्षा के लिए हर राज्य में कानून बनाया जाए; सहकारी क्षेत्र में कर्मचारियों के औद्योगिक संबंध में कानून बनाया जाए, जिसमें किसी मजदूर संघ को गुप्त मतदान द्वारा मान्यता देने की व्यवस्था हो। हर उद्योग में समानुपाती प्रतिनिधित्व के आधार पर बीच बचाव करने वाली सुसंगठित एजेंसियाँ बनायी जाएं। 'वर्क मैन' की परिभाषा में संशोधन किया जाए, जिससे कि मैनेजर के अतिरिक्त वर्ग वाले सभी व्यक्तियों को इसमें शामिल किया जा सके। समझौता वार्ता की अवधि के दौरान पर्याप्त भत्ता दिया जाए। त्रिपक्षीय वेतन बोर्डों के स्थान पर द्विपक्षीय समझौतों को प्रोत्साहन दिया जाए।

राष्ट्रीय नीतियों के बारे में:

बी.एम.एस. ने यह भी माँग की कि नियोजन की विभिन्न प्रक्रियाओं में कर्मचारियों के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाए, रोजगार उत्पादकता, मूल्य, आय और वेतन के बारे में राष्ट्रीय नीतियाँ बनायी जाएँ। इनका आधार गोलमेज सम्मेलन में व्यक्त जनमत को बनाया जाए। इस सम्मेलन में सभी आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व हो और इसे खासतौर से इन उद्देश्यों के लिए बुलाया जाए; संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में काम करने के अधिकार की स्वीकृति औद्योगिक मिल्कियत के आधार एक राष्ट्रीय आयोग का निर्माण, और टेकनीक विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति जो स्वरूप अनुकूल हो, का फिर प्रारूप तैयार प्रगतिशील श्रमिकीकरण और कपड़ा उद्योग, पटसन, परिवहन, बीड़ी उद्योगों में पूर्ण श्रमिकीकरण के बारे में सक्रिय विचार; कर्मचारियों राज्य बीमा, प्रोवीडेंट फंड, शिक्षा आदि के प्रबंध को मजदूर प्रतिनिधियों के हाथों में सौंपना, आवश्यकता पर आधारित न्यूनतम वेतन के स्तर राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन निर्धारित करना, वास्तविक का पूरा संरक्षण, इस सिद्धांत की स्वीकृति को जब तक वर्तमान वेतन और वास्तविक वेतन में अंतर है, तब तक बोनस को अतिरिक्त वेतन माना इसकी कानूनी न्यूनतम सीमा को साढ़े बारह प्रतिशत तक बढ़ाना, मुद्रा, व्यवस्था लागू करना, जिससे कर्मचारियों के सभी पुनर्भुगतान और बचत को सूचकांक से संबंध किया जा सके और सूचकांक को वैज्ञानिक आधार पर फिर से निर्धारित करना जिसमें थोक और खुदरा मूल्यों के अंतर को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाए; सार्वजनिक प्रशासकों का विशेष व्यवसाय बनाकर उसे कानूनी मान्यता दी जाए, और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की स्वायत्तता तथा उसके उत्तरदायित्व में संतुलन बनाए रखा जाए।

ग्रामीण और पिछड़े इलाकों के लिए बी. एम. एस. ने माँग की कि क्षेत्रीय असंतुलन को दूर किया जाए, भूमि सुधारों के कानून को तथा सभी अतिरिक्त भूमि को भूमिहीन मजदूरों में फिर से बाँटने की व्यवस्था को लागू किया जाए, खासकर इन्हें उन मजदूरों में बाँटा जाए, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हैं। जब तक राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम वेतन कानून लागू नहीं किया जाता है तब तक इसे सभी कृषि मजदूरों तथा देश के असंगठित क्षेत्र और ग्रामीण आवास कार्यक्रमों में काम करने वाले मजदूरों पर भी लागू किया जाए, जिससे उनको लाभ हो सके, व्यापक सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रमों, छोटी सिंचाई और मजदूरों को प्रोत्साहन देने वाली योजनाओं को ग्रामीण इलाकों में लागू किया जाए।

हरित क्रांति से लाभान्वित होने वाले ग्रामीण समृद्ध वर्ग को अनुशासित किया जाए, निःशुल्क चिकित्सा और शिक्षा की सुविधाएँ आबादी के हर वर्ग को दी जाएँ, वन पर आधारित उद्योगों को संगठित किया जाए। वनवासी कर्मचारियों को ठेकेदारों और संरक्षकों के षड्यंत्रों से बचाया जाए और वन सेवाओं में वनवासियों के लाभ के लिए कुछ सुरक्षित स्थान रखे जाएँ। देश भर में ऋण राहत उपायों को व्यापक ढंग से किया जाए, ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारों के लिए अपना धंधा खुद शुरू करने की सुविधाएँ, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन, मछली पालन, कृषि, इंजीनियरी, डेयरी, कताई-बुनाई और बढ़ईगीरी के माध्यम से दी जाए। हथकरघा और बिजली करघों के बुनकरों को सस्ते मूल्य पर धागे की निरंतर सप्लाई की जाए, लघु उद्योग शुरू करने के लिए शिक्षित बेरोगारों को राजकीय सहायता दी जाए। बड़े कारखानों के आसपास सहायक इकाइयों का विकास किया जाए और स्वचलन पर आम प्रतिबंध लगाया जाए। ग्रामीण क्षेत्र में साधन एकत्रित करने की नीति के रूप में बी.एम. एस ने सामूहिक बैंकिंग एजेंसी के जरिए सूक्ष्म नियोजन व्यवस्था लागू करने का अनुरोध किया है।

आर्थिक और वित्तीय अनुशासन

कर ढाँचे के बारे में बी.एम.एस. ने कहा है कि कर ढाँचे को संशोधित कर इसे और आसान बनाया जाए। सभी अप्रत्यक्ष कर समाप्त किए जाएँ, वेतनभोगी वर्ग के ऊपर से कर हटा लिया जाए। आयकर की छूट की सीमा बढ़ाकर 12 हजार रुपये कर दी जाए, और श्रम बहुल उद्योगों में तैयार होने वाली निर्यात को विशेष वस्तुओं पर कर में रियायत दी जाए।

विदेशी पूँजी के बारे में विदेशी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए। विदेशी स्वामित्व वाले सभी उद्योगों का भारतीयकरण और लोकतंत्रीकरण किया जाए। विदेशी सहयोग के सभी समझौतों में प्रतिबंध वाली धाराओं को नामंजूर कर दिया जाए। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में से विदेशी पूँजी को हटाया जाए और देशभक्त प्रवासी भारतीयों को पूँजी के रूप में रुपया लगाने का अवसर देने की व्यवस्था की जाए।

काले धन की बुराई को रोकने के लिए ने कहा कि कीमतों वाले नोटों का चलन बंद किया जाए। घाटे की अर्थव्यवस्था समाप्त की जाए, प्रशासनिक व्यय में पर्याप्त कटौती जाए, सभी अपशिष्ट बेकार और भड़कीले निजी खर्चों पर उपभेक्ता-कर लगाया जाए। राज्यों की निर्धारित राशि से अधिक पैसा लेने की आदत खत्म की जाए।

राष्ट्रीय वित्तीय अनुशासन तैयार कर इसे लागू किया जाए और करों की चोरी करने वालों, काला बाजार करने वालों, मुनाफाखोरों, जामाखोरों, तस्करों, सटोरियों, मिलावट करने वालों तथा अन्य भ्रष्ट और समाज विरोधी तत्वों के खिलाफ कड़े उपाय किए जाएँ।

सामान्य आर्थिक उपायों के रूप में ने सुझाव दिया है कि औद्योगिक और आयात लाइसेंस नीतियों को युक्ति संगत बनाया जाए, आयातित विदेशी सामान की जगह देश में ही सामान तैयार करने के कार्यक्रम को पूरा प्रोत्साहन दिया जाए, छोटी बचत को बढ़ावा देकर इस राशि को औद्योगिक विकास में लगाया जाए। ऐशो आराम की चीजें बनाने वाले उद्योंगो पर रोक लगायी जाए और उपभोक्ता वस्तुओं वाले उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। उपभोक्ता पद्धति में समुचित परिवर्तन किया जाए, स्वदेशी भावना को पुनर्जीवित किया जाए और उपभोक्ता मंच, उपभोक्ता संघर्ष और आवश्यकता हो तो उपभोक्ताओं की हड़ताल संगठित की जाए।

प्रगति की दर में वृद्धि करके राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के लिए निश्चित अभियान चलाया जाए। ग्रामीण तथा शहरी संपत्ति की अधिकतम सीमा निर्धारित की जाए, लाभ तथा लाभांश की अधिकतम राशि तय की जाए और सभी वित्तीय अभिकरणों का विकेंद्रीकरण किया जाए तथा भूमि में न्यूनतम और अधिकतम आय के बीच जल्दी से जल्दी एक दस का अनुपात स्थापित किया जाए।

सरकारी नीतियों के बारे में

अंत में इसने सरकार तथा एकाधिकार के घरानों और विभिन्न राष्ट्रीय निगमों के बीच कलुषित संगठन के विरुद्ध देश को चेतावनी दी और सभी देश भक्तों से कहा कि वे इनके राष्ट्र विरोधी षड्यन्त्र को नाकाम करने के लिए एक संयुक्त मोर्चा बनाएँ। इसने मजदूरों को भी सरकार और मालिकों की भुलावा देने वाली चालों के विरुद्ध सावधान किया, जो भाषावाद, प्रांतीयता, सांप्रदायिकता और राजनीतिक भेदभाव आदि का सहारा लेकर पदों का निर्धारण करते हैं और झूठे प्रोपोगंडे द्वारा मालिकों तथा कर्मचारियों के बीच, कम वेतन पाने वाले और अधिक वेतन पाने वालों के बीच, ग्रामीणों और शहरियों के बीच, असंगठित वर्ग के कर्मचारियों के बीच, देशवासी और विदेशियों के बीच, कर्मचारियों और उपभोक्ता के बीच, तथा न्यूनतम 30 प्रतिशत और वेतन भोगी मजदूरों के बीच भेदभाव की प्रवृत्ति ला देते हैं। बी.एम.एस. ने सभी हड़तालों पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार कार्यपालिका के हाथों में सौंपने की व्यवस्था की आलोचना की। यह उद्योगों और सेवाओं का "आवश्यक" तथा 'अनावश्यक" रूप में वर्गीकरण करने के विरुद्ध है। इसने औद्योगिक विवादों में पुलिस के हस्तक्षेप की कारवाई और डी.आई.आर., मीसा, धारा 144 आदि जैसे गैर-लोकतांत्रिक उपायों को लागू करने और मजदूर समस्या को कानून और व्यवस्था की समस्या मानने की आलोचना की।

अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष

1975 का वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष है। भारत सरकार ने सद्भाव दिखाकर यह प्रस्ताव पास किया कि वह इस वर्ष समान कार्य के लिए समान वेतन देने के उपाय लागू करेगी। दरअसल यह व्यवस्था काफी पहले लागू हो जानी चाहिए थी। नवंबर 1969 में बी.एम.एस. ने राष्ट्रीय माँग पत्र पेश किया था जिसमें काम करने वाली महिलाओं, काम करने वाली गृहणियों, अंशकालिक कार्यकर्ताओं और यहाँ तक कि वेश्याओं के हित में उनकी ड्यूटियों और माँगों का ब्यौरा था। कपड़ा मिलों के निर्माण कार्यक्रमों, बीड़ी, अबरक, काजू खान और बागान आदि उद्योगों में काम करने वाली महिलाएँ 1947 से ही यह माँग करती आ रही हैं। मैं आपसे यह भी अनुरोध करता हूँ कि इस अधिवेशन में आप यह विचार करें कि काम करने वाली भारतीय महिलाओं के लाभ के लिए इस वर्ष कोई विशेष योजना आरंभ करना उचित है या नहीं?

हमारे अनुसंधान कार्यः

भारतीय श्रम अनुसंधान केंद्र इस समय जर्मनी की "लचीली कार्य अवधि" की जटिलता का अध्ययन कर रहा है, जहाँ काम करने के घण्टों के बारे में कोई बन्धन नहीं है और मजदूर स्वयं निश्चित करते हैं कि सवेरे कब काम शुरू किया जाए और शाम को कब खत्म किया जाए, बशर्ते उपस्थिति की न्यूनतम अवधि जिसमें मजदूरों के प्रतिनिधियों को इस बात की अनुमति दी गयी है कि वे अपनी कंपनी के वित्तीय और आर्थिक मामलों में पूरी रुचि ले सकते हैं। इस बारे में भी अनुसंधान कर रहा है, (1) लेखा परीक्षा के राष्ट्रीयकरण के सम्भावित परिणाम् (2) प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के संदर्भ में ब्याज की विभिन्न दरें प्रभावोत्पादक होंगी। लेकिन उपयुक्त आँकड़ों के अभाव में केंद्र के हाथ बँधे हुए हैं। इसका एक उदाहरण दिया जा सकता है कि राष्ट्रीय लेखा के प्रकाशन में सामान्यतः असामान्य रूप से विलंब होता है और जब यह प्रकाशित हो जाता है तो पता लगता है कि रिजर्व बैंक से पर्याप्त सूचना के अभाव में इस पर प्रतिकूल असर पड़ा है। सामान्य तौर पर आवश्यक आँकड़ें या तो उपलब्ध नहीं होते हैं या अगर उपलब्ध भी हुए तो पर्याप्त और आधुनिकतम नहीं होते।

एक बात यह भी है कि सरकार अनुसंधान केंद्रों के उचित सुझावों पर अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती है, उदाहरण के तौर पर बी. एल. आर. केंद्र ने पहले सुझाव दिया था कि एक स्वायत्त मुद्रा अभिकरण बनाया जाए जो इस बात के लिए जिम्मेदार हो कि (1) मुद्रा नियंत्रण के जरिए मूल्य को व्यस्थित किया जाएगा और (2) ऋण-नियंत्रण के जरिए पूर्ण रोजगार की व्यवस्था की जाएगी किंतु इस सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। बैंकों के राष्ट्रीकरण के बाद इस केंद्र ने सुझाव दिया कि एक सुदूरगामी वित्तीय सलाहकार सेवा संगठित की जाए लेकिन यह सुझाव भी अरण्य रुदन की तरह बेकार साबित हुआ। अब यह बताया जाता है कि केंद्र सरकार ने सिद्धांत रूप में निश्चय कर लिया है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों को ग्रामीण इलाकों में और शाखाएँ खोलने की अनुमति नहीं दी जाएगी। भविष्य में, जिन इलाकों में बैंकों की सुविधा नहीं है, वहाँ सरकारी बैंक अथवा किसान सेवा समितियाँ खोली जाएँगी। वास्तव में यह अपनी पुरानी नीति के निराकरण वाली बात है।

अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण

कुछ अन्य केंद्रीय मजदूर संगठनों से हट कर बी. एम. एस. ने यह आदत नहीं बनायी है कि विदेशी मामलों और विदेशी संबंधों की समस्याओं पर व्यापक ढंग से टिप्पणी की जाए। बशर्ते कि मामले सीधे तौर पर हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और मजदूर क्षेत्र को प्रभावित न करते हों। अनाज और तेल के आयात मूल्यों में वृद्धि, विदेशी मुद्रा संकट, बहुराष्ट्रीय निगमों और हमारी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ विभिन्न केंद्रीय मजदूर संगठनों के प्रति सरकारी रवैये में सोवियत संघ के प्रभाव आदि ऐसी समस्याएँ हैं, जिन पर बी. एम. एस. ने गम्भीरता से ध्यान दिया है।

हालाँकि संगठनात्मक ढंग से बी.एम.एस. का काम बढ़ रहा है, विभिन्न स्तरों पर संचार की व्यवस्था पहले से मजबूत हो गयी है, फिर से इसे और दृढ़ करने की जरूरत है, ताकि हम नयी चुनौतियाँ का पर्याप्त सतर्कता से सामना कर सकें। मूल इकाइयों से केंद्रीय मुख्यालय को और केंद्रीय मुख्यालय से मूल इकाइयों को खबरें भेजने की व्यवस्था में बीच के स्तरों को और ज्यादा सतर्क और तत्पर होने की जरूरत है।

अब यह समय आ गया है कि केंद्रीय मुख्यालय से एक पत्रिका प्रकाशित की जाए, जो न केवल बी.एम.एस. की गतिविधियों का प्रचार करे, बल्कि हमारे विभिन्न वर्गों के ताजा समाचारों तथा अधिकारपूर्ण विचारधाराओं की जानकारी दे। प्रकाशनों के मामले में हमारी प्रगति संतोषजनक है, लेकिन कुछ क्षेत्रों से यह सुझाव मिला है कि इस कार्य की देखभाल के लिए केंद्र में एक नियमित विभाग बनाया जाए। इसी तरह हमारे केंद्रीय कार्यालय को और साधनों की जरूरत है। अध्ययन कार्यक्रमों और कार्यकर्ताओं के सम्मेलनों को अधिक व्यापक बनाना होगा। विभिन्न स्तरों पर हमारे बौद्धिक वर्ग को और मजबूत करना होगा। हमारे जनसंपर्क साधनों में अधिक प्रगति की जरूरत है।

बी.एम.एस. के कार्यों में वृद्धि के साथ साथ यह महसूस किया गया कि विकास की समस्याओं से निपटने के लिए बी.एम.एस. के संविधान में कुछ संशोधन करना जरूरी है। हमारी राजकोट की बैठक में राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इन संशोधनों का अनुमोदन कर दिया। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस पर विस्तार से विचार करें और इस अधिवेशन में इन संशोधनों के बारे में अपना अंतिम निर्णय दें ।

बी.एम.एस. की प्रगति के बारे में यह अनुमान लगाया गया था कि श्रम मंत्रालय इसे राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दे देगा। मंत्रालय ने जुलाई 1972 में घोषणा की थी कि वह सभी केंद्रीय मजदूर संगठनों के प्रमाणित सदस्यता के आधार पर केंद्रीय मान्यता देने के पूरे प्रश्न पर फिर से विचार करेगा और मान्यता प्राप्त तथा गैर मान्यता प्राप्त सभी संगठनों को अपनी सदस्यता के आँकड़े देने होंगे तथा सत्यापन कार्यों के लिए तैयार रहना होगा। लेकिन, बाद में, निरीक्षण की प्रतिक्रिया को छोड़ देना पड़ा और इसका आधार यह बताया गया कि ए.आई.टी.यू.सी. और एच.एम.एस. दोनों मान्यता प्राप्त संगठनो ने सत्यापन की प्रक्रिया को नामंजूर कर दिया है। अब और अन्य कोई भी उचित तरीका नहीं है जिससे मान्यता के प्रश्न का निर्धारण किया जा सके। प्रत्यक्षतः यह मामला पूर्ण रूप से राजनीतिक कारणों से लटका पड़ा है। न्याय का सवाल असंगत हो गया है। फिर भी बी. एम. एस. को विश्वास है कि सरकार को हमारी बढ़ती हुई ताकत को देखते हुए जल्दी ही केंद्रीय मान्यता देने के सवाल पर विचार करना होगा। संगठनात्मक मोर्चों पर हमारे दृढ प्रयत्नों के कारण सरकार के लिए बी. एम. एस. को सभी राष्ट्रीय त्रिपक्षीय वार्ताओं में शामिल किए बिना देश में औद्योगिक शांति बनाए रखना असंभव हो जाएगा। सरकारी मान्यता मजदूरों की मान्यता के आधार पर ही मिलेगी। श्रम मंत्रालय भी इस तथ्य को अच्छी तरह जानता है। इसलिए वह इन वर्षों में भारतीय श्रम सम्मेलन की बैठक बुलाने से कतराती रही है।

आई.एन.टी.यू.सी. से अलग के विभिन्न केंद्रीय श्रम संगठन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में प्रतिनिधित्व पाने के मामले में अब तक न्याय से वंचित रहे। बी.एम.एस. ने निर्णय किया है कि सबके लिए वह तत्काल कोई माँग नहीं करेगा। बी.एम.एस. को कार्यकारी वर्ग का विशाल समर्थन मिल जाने से, जो निश्चित ही जल्दी प्राप्त हो जाएगा, सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना रसूख खोए बिना यह अन्याय और पक्षपात जारी रखना मुश्किल हो जाएगा। प्रगति करने वाले और आत्मविश्वासी संगठन के लिए धैर्य एक वास्तविक गुण है।

हमने अब तक किसी भी अंतरराष्ट्रीय संगठन अथवा मजदूर संघ से संबद्ध होने के लिए भागदौड़ नहीं की है। इसकी बजाय हम इस बात का इंतजार करते हैं कि यह संगठन खुद ही अनुभव करे कि हमारी मान्यता उसके लिए उपयुक्त होगी।

राष्ट्रीय मंच पर:

राष्ट्रीय स्तर पर गुजरात और बिहार के आंदोलनों ने देश के राजनीतिक जीवन को एक नई दिशा प्रदान की है। सामूहिक संगठनों की नीतियों और कार्यक्रमों पर निश्चित रूप से इनका गतिशील असर होगा। भारत सरकार ने 'आपात स्थिति', डीआइआर, मीसा आदि कुछ ऐसे मामलों के जरिए विपक्षी दलों पर अनुग्रह किया है, जो राजनीतिक पार्टियों और गैर राजनीतिक सामूहिक संगठनों के लिए एक चुनौती है।

आज सारा वातावरण राजनीतिक और गैर राजनीतिक आंदोलनों से भरा हुआ है। राजनीति के मामले में बी.एम.एस. ने पहले ही अपनी स्थिति पूरी तरह स्पष्ट कर दी है। हम लोग अपने आपको "अर्थवाद" यानी रोटी-मक्खन की एकता तक ही सीमित रखना न ही चाहते और न हो हम "राजनीतिक एकात्मवाद" को मानते हैं, जो मजदूर संघ को कैसी राजनीतिक दल का एक अंग या अग्रणी संगठन समझता है। हम सही अर्थों में मजदूर संघवाद का समर्थन करते हैं,जो राष्ट्रीयता की दृढ़ नींव पर आधारित है। हम राजनीति और राष्ट्रनीति अथवा लोकनीति में भेद मानते हैं। बाद वाली चीज तब कार्यशील होती है, जब राष्ट्र के सामने विदेशी आक्रमण अथवा अंतरराष्ट्रीय संकट के कारण जीवन और मरण का सवाल उपस्थित होता है। बी. एम.एस. राष्ट्रनीति के लिए पूरी तरह समर्पित है, लेकिन राजनीति के लिए नहीं, बृहस्पति ने राजवृत्तम से लोकवृत्तम को अलग बताया है:

लोकवृत्ताद् राजवृत्त्

अन्यवाह बृहस्पतिः।

हम पहले वाले को स्वीकारते हैं लेकिन बाद वाले को नहीं।

अपनी राजकोट की बैठक में बी. एम. एस. की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जे.पी. आंदोलन से उत्पन्न स्थिति पर विस्तार से विचार किया और निम्नलिखित अनौपचारिक निर्णय पर पहुँची:

1) हमारे व्यक्तिगत कार्यकर्ता-सदस्य इस बात के लिए स्वतंत्र हैं कि नागरिक के रूप में वे जो भी चाहें अपना राष्ट्रीय दायित्व समझें।

2) बी.एम.एस. इस आंदोलन में अपने आपको शामिल नहीं करेगा।

3) स्थानीय और राज्य स्तरों पर बी.एम.एस. से संबद्ध संस्थाएँ इस बात के लिए स्वच्छंद हैं कि वे इस आंदोलन के लिए अथवा अन्य कारणों से मजदूर संघों के संयुक्त मोर्चे में शामिल हों। उनका निर्णय संबद्ध मामलों के गुण दोषों पर और उनके अपने स्तरों में आम स्थिति को प्रवृत्ति पर आधारित हो। अब यह इस अधिवेशन पर निर्भर करता है कि वह इस निर्णय को स्वीकार करे अथवा नामंजूर कर दे।

संयुक्त मोर्चा के बारे में अब तक हमारी नीति रही है कि अगर संबद्ध मामले राष्ट्रीय हितों के ढाँचे में हैं तथा मजदूरों के लिए लाभप्रद हों तो उसमें शामिल हुआ जाए और फिर अगर संयुक्त संघर्ष के बारे में सामान्य सहमति हो तब इसको अपनाया जाए। कुछ एक अपवादों को छोड़कर संयुक्त मोर्चा के बारे में हमारा अनुभव अब तक दुःखद नहीं रहा है। यह बात फिर इस अधिवेशन पर ही निर्भर करती है कि इस नीति को जारी रखा जाए या इसे बदल दिया जाए। इस समय हम लोग आई.एन.टी.यू.सी. और ए.आई.टी.यू.सी. को छोड़, शेष सभी मजदूर संघों की राष्ट्रीय अभियान समिति के एक घटक हैं।

'समग्र क्रांति" के बारे में बी.एम.एस. ने अब तक कोई निश्चित रवैया नहीं अपनाया है। हालाँकि समग्र क्रांति का समर्थन करने वालों के साथ मोटे तौर पर हमारी सहमति है, लेकिन वर्तमान राष्ट्रीय स्थिति के बारे में हम निश्चित नहीं हैं, कि समग्र क्रांति से सचमुच इसका कोई कारगर समाधान होगा या नहीं? हमारे प्राचीन इतिहास ने राजनीतिक आंदोलन और नव जागरण देखे हैं। लेकिन उसने कोई भी इकलौती "समग्र क्रांति" नहीं देखी। खुद बी. एम. एस. भी राष्ट्रीय नव जागरण का एक प्रमुख अंग है। लेकिन "समग्र क्रांति" राष्ट्रीय नवजागरण से भिन्न है। राष्ट्र निर्माताओं के रूप में हमें पारिभाषिक शब्दावली के प्रति बहुत सावधानी बरतनी है क्योंकि शब्दावली से बुरे परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। जैसा कि जीसस ने कहा कि "दि लेटर किलथ"। इसीलिए हम लोग अपने राष्ट्रीय इतिहास में इस नए नाम के निश्चितार्थ का गहराई से अध्ययन कर रहे हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि अगर आप चाहें तो इस मामले पर अपने विचार व्यक्त करें और आपका निर्णय अंतिम तथा अनिवार्य होगा।

सही कार्य:

इस बीच एक तथ्य निश्चित और विवादों से दूर प्रतीत होता है। राष्ट्र के सामने गम्भीर संकट उपस्थित है और इसका भावुक अथवा यथार्थवादी कोई भी उपचार तब तक व्यावहारिक नहीं होगा जब तक सभी देशभक्त ताकतों को एकत्र नहीं किया जाए। हम राष्ट्र-शक्ति के हाथों में प्रभावशाली अस्त्र हों, जिसने हमें श्रम के क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रेरणा दी है और जो हमेशा से हमारे और हमारे अधिष्ठान का निर्देश केंद्र रहा है।

इसी विचार को लेकर मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप कृपया संगठनात्मक पक्ष पर गम्भीरता से ध्यान दें। हमारे मानवीय और वित्तीय साधनों की प्रगति दर और हमारे संगठन की प्रगति दर एकरूपता नहीं है इसीलिए विकास के कार्यों में कठिनाइयाँ उपस्थित हो रही हैं। यह विकास के कार्य ऐसे नहीं हैं, जिनका स्वागत न किया जा सके और जो आपकी जानकारी में न हों। यह बहुत अच्छी बात होगी कि इन कठिनाइयों को दूर करने के उपायों के बारे में हमें संगठन के मूल स्तर से सुझाव मिलें।

निःसंदेह बी.एम.एस. संतोषजनक ढंग से प्रगति कर रहा है। लेकिन तरह तरह के संकट देश को और तेजी से घेरते जा रहे हैं। आज भारत माता आशा करती है कि उसके सभी बेटे और बेटियाँ पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाएंगी और माँ को पूरा विश्वास है कि राष्ट्र-निर्माता होने के नाते आप आगे आएंगे और सर्वाधिक उचित ढंग से धरती माता के पवित्र कार्यों में अपने आपको फिर से समर्पित करेंगे।

नेशनल आर्गेनाइजेशन आफ बैंक वर्कर्स ( NOBW)

अधिवेशन , (चंडीगढ़ )

उद्घाटन भाषण

दिनांक: 11-04-1971

 

आज आप सब बंधुओं के बीच खुद को पाकर बड़ी खुशी हो रही है। इस द्विदिवसीय अधिवेशन में आपने बैंक कर्मचारियों के सम्मुख उपस्थित समस्याओं पर विचार किया, उनके विषय में मार्गदर्शन देने वाले प्रस्ताव पारित किए, अपनी अगली कार्यवाही की दिशा भी निश्चित की, राष्ट्रीय बैंक कर्मचारी परिषद् (एन.ओ.बी.डब्ल्यू) के संगठन को अधिक मजबूत बनाने की दृष्टि से भी विचार विमर्श किया तथा कुछ निर्णय भी लिए। इन सब बातों को ख्याल में रखें तो यह कहा जा सकता है कि कम से कम समय में आप ने ज्यादा से ज्यादा काम किया है। इस सफलता के लिए आपका अभिनंदन करता हूँ।

किंतु इस अधिवेशन में सब से महत्वपूर्ण बात यह हुई जो किसी भी औपचारिक कार्यवाही- (Resolution) में दिखाई नहीं देगी। औपचारिक बैठकों के अलावा बिल्कुल औपचारिक ढंग से हम काफी समय तक एक दूसरे से मिले और सबने मिलकर पारिवारिक जीवन के आनंद का अनुभव किया। यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। अपना यह भारतीय मजदूर संघ केवल एक केंद्रीय श्रम संगठन मात्र ही नहीं। हम केंद्रीय श्रम संगठन तो हैं ही किंतु एक तो कई संस्थाओं में से एक, यह हमारी भूमिका नहीं। देश में कई केंद्रीय श्रम संस्थाएँ हैं, उनमें से एक भारतीय मजदूर संघ भी है। इतना ही केवल नहीं, अपना यह संगठन अपनी कई विशेषताओं के कारण अपने ढंग का अनोखा ऐसा केंद्रीय संगठन है। दूसरी बात यह है कि अन्य लोगों के समान हम केवल केंद्रीय श्रम संस्था नहीं, वह कार्य तो हम सक्षमता से कर ही रहे हैं किंतु उसके अलावा हम राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं का एक विशाल परिवार भी हैं और यही हमारा सच्चा स्वरूप है।

अपने कार्य का स्वरूप पारिवारिक है। हम केवल विधान के आधार पर कार्य नहीं चला रहे। जो विधान के सहारे कार्य चलाते हैं वे विधान के ही बोझ के नीचे दबकर खत्म हो जाते हैं। विधान हमारा मालिक नहीं गुलाम है। विधान यह साध्य और हम सब लोग उसके साधन यह विचार गलत है। हमारा आधार पारिवारिकता का भाव है उसी के सहारे मजदूर संगठन हम खड़ा कर रहे हैं। हाँ, परिवार में भी कुछ व्यवस्था हुआ करती हैं वैसी हमारे यहाँ भी हैं। उसी को लिपिबद्ध किया गया। किंतु वह विद्यमान व्यवस्था का विवरण मात्र है। इसी पारिवारिकता के कारण ही हम लोग जब कभी एकत्रित होते हैं तो सभी को आनंद आता है। महत्वपूर्ण औपचारिक कार्यवाही के कारण नहीं किंतु अनौपचारिक ढंग के पारस्परिक संपर्क के कारण। यहाँ इस तरह का संपर्क और पारिवारिक वायुमंडल है। सब दो तीन दिन तक अनुभव कर सकें यही सब से श्रेष्ठ उपलब्धि है।

बोनस, पदोन्नति नीति (Promotion Policy) आदि के विषय में आप ने अपनी भूमिका स्पष्ट की। उन सब विषयों की गहराई में जाने की आवश्यकता अब नहीं। विभिन्न विषयों पर बैंक कर्मचारियों का मार्गदर्शन करने की क्षमता एन.ओ.बी.डब्ल्यू में है, यह बात सभी जानते हैं और इसके कारण ऊपर से आप को दुश्मनी करने वाले लोग भी अंदर राह देखते रहते हैं कि उपस्थित समस्यायों पर आप का अभिप्राय क्या है? आप के मार्ग दर्शन की प्रतीक्षा न केवल आपके सदस्य अपितु बाहर के बैंक कर्मचारी भी कर रहे हैं। जिस गहरायी में जाकर सूक्ष्मता के साथ आपने निर्णय लिए हैं उसको देखने से मुझे विश्वास हो रहा है कि इस वर्ष भी सभी बैंक कर्मचारियों को सही नेतृत्व देने का कार्य आप योग्यता के साथ करेंगे।

एक समस्या विशेष निर्देश आवश्यक राष्ट्रीयकृत बैंकों के व्यवस्थापक मंडल पर बैंक कर्मचारियों के प्रतिनिधियों को लेने की दृष्टि तक शासन द्वारा निर्दिष्ट आज की पद्धति किस तरह सदोष है यह आप में दिखाया है। व्यवस्थापक मंडल में प्रतिनिधित्व के लिए बैंक कर्मचारियों को गुप्त मतदान पद्धति से मतदान तथा निर्वाचन करने का अधिकार प्राप्त हो यह माँग आपने स्पष्ट शब्दों में रखी है। इसी को लेकर आगे बढ़ना है यही बात बैंक कर्मचारियों के हित में है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आपको प्रतिनिधियों के नाते कुछ बैंक कर्मचारी व्यवस्थापक मंडल में शामिल किए गए तो उसके फलस्वरूप बैंक कर्मचारियों या आम जनता को कुछ लाभ होगा। परिस्थिति का सर्वांगीण विचार किया तो यह विचार में आता है कि आज की अवस्था बैंक कर्मचारियों के प्रतिनिधियों के रूप में कोई भी वहाँ बैठे तो उसके कारण कोई परिवर्तन आने वाला नहीं।

बैंकिग उद्योग के विषय में हमने एक मौलिक सुझाव दिया था। वह यानी स्वायत्त वित्तीय निगम (Autonomous Monetary) के निर्माण का। यह बात मानने के लिए सरकार तैयार नहीं। राष्ट्रीयकृत बैंक को चलाने के विषय में अभी तक कोई निश्चित नीति सरकार नहीं बना सकी और सत्तारूढ़ दल के द्वारा जो आशाएँ जनसाधारण के मन में निर्माण की गयी थीं उनकी पूर्ति करना निश्चित नीतियों के अभाव में किसी के लिए भी असंभव है। इस अवस्था में किसी भी संस्था का व्यक्ति व्यवस्थापक मंडल में समाविष्ट किया गया तो भी वह अपने कर्मचारी बंधुओं के और जनता के कल्याण की दृष्टि से उनका उपयोग नहीं कर सकेगा। परिणामस्वरूप थोड़े ही दिनों में उसे बदनामी लेकर निवृत्त होना पड़ेगा अतः व्यवस्थापक मंडल पर जाना यह एक प्रतिष्ठा का लक्षण नहीं माना जा सकता उल्टी बात हो सकती है। ए.आइ.बी.इ.ए. के प्रतिनिधि वहाँ रहते हैं, किंतु सामान्य कर्मचारियों की अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकते। यही दृश्य हमारे लिए अधिक लाभदायक होगा।

विरोधी दल के नाते कर्मचारियों की प्रतिनिधि की आवाज हम समय समय पर उठाते रहें और समस्याओं के विषय में उन्हें सही मार्ग दर्शन देते रहें तो इसके कारण कर्मचारियों का हित भी अधिक सिद्ध होगा और एन.ओ.बी.डब्ल्यू की शक्ति भी बढ़ेगी। मध्यावधि चुनाव के पश्चात् राष्ट्रपति महोदय ने तथा सत्तारूढ़ सरकार ने सभी मजदूर संस्थाओं का आह्वान किया है कि औद्योगिक शांति तथा उत्पादकता वृद्धि के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करें। हम राष्ट्रवादी होने के कारण इस आह्वान को समुचित तथा सक्रिय प्रोत्साहन देना चाहते हैं फिर सत्तारूढ़ दल ने गरीबी हटाने के विषय में जो आश्वासन दिए हैं उनके कारण तो सहयोग देने की इच्छा और भी बलवान हो रही है। किंतु पिछले दिनों में कुछ घटनाएँ ऐसी हुई कि जिनके कारण सरकार के हेतु की विशुद्धता के विषय में संदेह निर्माण होता है। राज्य सभा के पिछले सत्र में बोनस के बारे में एक प्राइवेट बिल आया था, बोनस की न्यूनतम राशि 4 प्रतिशत से 8 1/2 प्रतिशत की जाए यह प्रमुख बात उसमें थी। उस समय अनौपचारिक तौर पर शासक दल के नेताओं ने मान लिया था कि वे बिल सैलेक्ट कमेटी को भेजने के प्रस्ताव का समर्थन करें, किंतु इस सत्र में दोबारा वह बिल जब चर्चा के लिए आया तो श्रम मंत्री महोदय ने इस प्रस्ताव का सीधा विरोध किया और बताया कि बोनस का न्यूनतम दर बढ़ाने के पक्ष में सरकार नहीं है। उसके लिए जो तर्क उन्होंने दिए वह सारे ठीक वही थे जो कि मालिकों की अखिल भारतीय संस्था ने अपनी प्रकाशित पुस्तिका में दिए थे। यह देखकर सभी को आश्चर्य और दुःख हुआ।

इसी समय परिवार पेंशन के विषय में बिल आया, वास्तव में परिवार पेंशन योजना सरकार लागू करेगी, इस घोषणा का हम लोगों ने स्वागत किया था। किंतु यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अभी जो उसका स्वरूप है उसमें योजना के लिए मजदूरों के पैसे का भी कुछ अंश कटने वाला है जो कि उसका प्रोवीडैंट फंड में करता था। वास्तव में पद्धति यह है कि परिवार पेंशन योजना का बोझ सरकार को ही उठाना चाहिए, चाहे तो इस कार्य में सरकार संबंधित मालिकों से सहायता प्राप्त कर सकती है। किंतु मजदूरों को पैसा इस योजना के लिए काटा जाना बिल्कुल ही गलत है। खैर यह गलत काम तो सरकार ने किया और उसके साथ प्रोवीडैंट फंड योजना के विषय में जो रचनात्मक सुझाव दिए गए उनको भी सरकार ने अस्वीकार किया। यह दोनों घटनाएँ हमारे मन में सरकार के इरादों के विषय में शंका पैदा करती हैं।

और अब मान्यवर वित्तमंत्री श्री यशवंत राव चव्हाण की घोषणा आयी है कि आगामी दिनांक 24 अप्रैल, 1971 को वह बैंकिंग उद्योग तथा बैंक कर्मचारियों के सम्मुख जनता का माँग पत्र प्रस्तुत करने वाले हैं। दुनिया के इतिहास में इस प्रकार का कार्य यह पहली बार किया जा रहा है। प्रस्थापित सरकार, कर्मचारियों के सम्मुख ऐसा (Charter of Demands) पेश करे यह बात अब तक कहीं पर भी कभी नहीं हुई। यह कहना कठिन है कि श्री चव्हाण का यह क्रांन्तिकारी है या हास्यास्पद। जिस जनता का वह चार्टर है उनमें क्या बैंक कर्मचारी शामिल नहीं? जनता का मन क्या बैंक कर्मचारी नहीं जानते? उनकी इच्छाओं के विषय में श्री चव्हाण की तुलना में बैंक कर्मचारियों की जानकारी क्या कम है? सरकार के नाते श्री चव्हाण बैंक कर्मचारियों से अनुशासन पालन के लिए औद्योगिक शांति तथा उत्पादकता वृद्धि के लिए अपील करें यह बात तो समझ में आ सकती है किंतु कर्मचारियों के सामने वे चार्टर पेश करें यह कार्यवाही अनोखी है।

वास्तव में जनता का एक अंश के नाते बैंक कर्मचारी भी वित्तमंत्री जी को पूछ रहे हैं कि हमारे माँग पत्र का क्या हुआ? पिछले सत्तारूढ़ दल के पक्ष जो एक एक बैलट पेपर मतपेटी में डाला गया चुनाव में वे जनता के द्वारा शासन को प्रस्तुत किया हुआ माँग पत्र ही था। लोगों ने किसी दल को वोट नहीं दिया, किसी व्यक्ति को नहीं दिया। लोगों ने स्वयं अपनी आकाँक्षाओं को ही दिया है जिनकी पूर्ति करने का आश्वासन शासक दल ने दिया था। उस अपने माँग-पत्र के बारे में शेष जनता के साथ बैंक कर्मचारी भी श्री चव्हाण को पूछ रहे हैं ऐसे समय वित्तमंत्री ने ही जनता के माँग-पत्र की बात 'उलटा चोर कोतवाल को डाँटे' वाली श्रेणी की है। मालूम होता है कि सरकार को यह विश्वास है कि अभी तक दिए हुए आश्वासन पूरे नहीं कर सकते और इसके कारण सरकार खोज रही कि अपनी असफलताओं के लिए अन्य दल तथा नेताओं को स्केप गोट बनाना आसान था। किंतु अब स्पष्ट बहुमत होने के कारण इस तरह की बहानेबाजी नहीं चल सकती।

इसलिए अपनी असफलता का दोष जिनके माथे थोपा जा सकता ऐसे बलि के बकरों की खोज सरकार कर रही है। इस प्रक्रिया में बैंक कर्मचारी को ही उन्होंने सबसे पहले पकड़ लिया है। वास्तव में आर्थिक क्षेत्र में आने वाली असफलता का कारण स्वयं सरकार तथा उनकी गलत नीतियाँ ही हैं। आर्थिक नारे देना यह एक बात और राष्ट्र का पुनर्निर्माण यह दूसरी। दूसरे कार्य सफल होना इनके बस की बात नहीं। सरकार की यह चाल हमें समझनी चाहिए और लोगों को समझाना चाहिए ताकि आर्थिक क्षेत्र की असफलता में जनता के मन में भ्रम निर्माण करने में सरकार सफल हो सके। केवल आकर्षक नारों हम संतुष्ट नहीं हो सकते। हम यह देखना चाहते कि घोषित आदर्श प्राप्ति के लिए आवश्यक वास्तविकतावादी नीति सरकार अपना रही और इस नीति को क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक सरकार के पास है। बातों में स्थिति निराशाजनक सी ही है।

आकर्षक योजनाओं के बावजूद यह सत्य कि अधिकतर उत्पादन तथा समानांतर वितरण सिद्धांत का कार्यान्वित करने की कोई भी व्यावहारिक योजना सरकार के पास नहीं है। इसके कई उदाहरण हर एक क्षेत्र में पाए जाते हैं । केवल उदाहरण के लिए सरकार की घोषित भूमि नीति का ही विचार करें। भूमि सुधार नियम विभिन्न राज्यों में आ गए हैं। फिर भी चर्चाएं चल रही कि क्या सीलिंग और छोटा किया जाए। शासक दल में ही इस विषय में दो राय हैं। एक राय यह कि सीलिंग और छोटा किया तो अलाभकारी (uneconomic holdings) की संख्या तथा विस्तार बढ़ जाएगा और वह हमारी अर्थनीति पर बड़ा बोझ होगा। इसके अलावा सीलिंग कितना भी छोटा किया तो भी ग्रामीण विभागों के सभी भूमिहीन लोगों को हम भूमि दे सकेंगे, यह संभव नहीं। दूसरी राय यह है कि सीलिंग छोटा करना यह समाजवाद की माँग है। गैर-लाभकारी इकाइयों को लाभकारी बनाने के विषय में विचार किया जा सकता है किंतु सर्वप्रथम सीलिंग छोटा किया जाए और अतिरिक्त भूमि का बँटवारा किया जाए। यह दूसरी राय रखने वाले आदर्शवादी लोग किताबी समाजवाद के कारण इस प्रकार की बात बोल रहे हैं किंतु प्रत्यक्ष व्यवहार में अलाभकारी खेत की समस्या का हल कैसे निकाला जाए इसका कोई भी स्पष्ट उत्तर उनके पास नहीं है। हमारे अलाभकारी खेत प्रायः बिखरे हुए हैं, एक दूसरे से सटे हुए नहीं हैं।

मेरे कहने का मतलब यह कदापि नहीं कि सीलिंग छोटा न हो, किंतु उसके फलस्वरूप निर्माण होने वाली समस्याओं का हल न निकालते हुए केवल किताब का आधार लेकर घोषणा करना ठीक नहीं। मिश्र में आसवान बाँध पूरा होने के पश्चात् उससे लाभान्वित भूमि का बँटवारा छोटे-छोटे अलाभकारी खेतों में किया गया किंतु यह सभी खेत एक दूसरे से सटे हुए थे। इसके कारण अलग खेतों के स्वामित्व के अधिकार अलग-अलग भूमिहीनों को देने के बाद भी सर्विस को-आपरेटिव के द्वारा अलाभकारी जोत को लाभकारी बना दिया। हमारे देश में अलाभकारी खेत बिखरे हुए होने के कारण सर्विस को-आपरेटिव के माध्यम का ठीक उपयोग हम नहीं कर सकते और इस कारण इन खेतों को लाभकारी बनाना भी हमारे लिए संभव नहीं है।

प्रश्न यह है कि क्या इस कठिनाई से हमारे लिए और कोई रास्ता नहीं? ऐसी बात नहीं है। हर गाँव के क्षेत्र में हम जमीन की दोबारा चकबंदी कर सकते हैं। इस प्रक्रिया से बिखरे हुए अलाभकारी खेतों को एक दूसरे से सटा हुआ बना सकते हैं। इसके कारण जिनकी जमीन लेनी पड़ेगी उनको मुआवजा भी हिसाब से दिया जा सकता है। मुआवजे क रूप में उसी क्षेत्र की दूसरी जमीन भी दी जा सकती है। किंतु इस प्रकार अलाभकारी जोत एक दूसरे से सटे हुए रहे तो सर्विस को-आपरेटिव का पूरा उपयोग करते हुए उन सब को लाभकारी बना सकते हैं।

स्पष्ट है कि इस प्रकार का कोई रचनात्मक विचार हमारे शौकिया समाजवादी लोगों के पास नहीं है। वे इसलिए नारा लगा रहे हैं। क्योंकि उनकी जीविका किताब में ही है। इस प्रकार का पुस्तकीय दृष्टिकोण या पाठ्यक्रमीय समाजवाद (Textbook Socialism) हमारी सरकार का है। यह धारणा सभी बुद्धिमान लोगों की है।

नीतियाँ अच्छी रहीं तो भी उनको कार्यान्वित करने के लिए संगठन की मशीनरी हर स्तर पर आवश्यक है। राष्ट्र का आर्थिक पुनर्निर्माण केवल नौकरशाही के भरोसे नहीं हो सकता। यहाँ तक कि तानाशाही भी केवल नौकरशाही के भरोसे नहीं लायी जा सकती। लोकसभा में बहुमत प्राप्त हुआ इसी के आधार पर पार्टी मशीनरी के आधार पर नौकरशाही के माध्यम से यदि कोई तानाशाही लाना चाहेगा तो वह नौकरशाही का बंदी बनकर रहेगा। वही बात राष्ट्रनिर्माण की है। इस कार्य के लिए जो आदर्शवादिता और लगन चाहिए वह नौकरशाही में नहीं पायी जाती। संसार में जहाँ-जहाँ क्रांति हुई और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण हुआ वहाँ-वहाँ यह देखा गया है कि क्रांतिवादी नेताओं के पास सभी स्तरों पर काम करने वाली उनकी अपनी पार्टी मशीनरी है, आदर्शवादी कार्यकर्ताओं के गुट हैं। यह गुट नौकरशाही पर दबाव लाकर उनसे काम ले सकते हैं और वह संभव न हुआ तो नौकरशाही को हटाकर प्रशासन की वैकल्पिक व्यवस्था भी वे निर्माण कर सकते हैं। इस प्रकार के कार्यकर्ताओं की संख्या कम रही तो भी चलेगा किंतु हर स्तर पर उनका गुट प्रभावी होना चाहिए। नौकरशाही ने साथ दिया तो उसके सहयोग से, और उसने विरोध किया तो उसको ठुकराते हुए यह गुट का जाल पूर्वनियोजित रूप से राष्ट्र निर्माण का कार्य पूरा करेगा।

यह बात स्पष्ट है कि इस तरह की पार्टी मशीनरी विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के गुट का फैला हुआ जाल हमारे प्रधानमंत्री या सत्तारूढ़ दल के पास आज नहीं है। कारण भी स्पष्ट है। श्री एम. एन. राय ने कहा कि क्रांति पूर्व कालखंड में जगह-जगह लड़ाकू क्रांतिवीरों के सक्रिय गुट निर्माण होते हैं, वे लड़ने का काम करते रहते हैं, युद्ध और युद्धकाल की शिक्षा दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं और इस प्रकार क्रांति कार्य में उन्हें जो अनुभव प्राप्त होता है, उनके अंदर जिन गुणों का विकास होता है उनके कारण क्रांति उत्तर कालखंड में यह क्रांति युद्ध के काल में ही हो जाती है। श्री राय का यह प्रतिपादन विभिन्न क्रांतियों के अनुभव पर आधारित है। कार्यकर्ताओं के गुट ही अपने-अपने विभाग में तथा स्तर पर प्रशासन का काम सँभाल लेते हैं। इसके लिए आवश्यक क्षमताओं का विकास तथा जनता का विश्वास, दोनों की सिद्धि क्रांतियुद्ध के काल में ही हो जाती है। श्री राय का यह प्रतिपादन विभिन्न क्रांतियों के अनुभव पर आधारित है।

लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने के बाद भी श्रीमती इन्दिरा गांधी के पास इस प्रकार के संगठन की मशीनरी नहीं है। यह सर्वविदित है क्योंकि श्री राय ने जिस प्रकार के क्रांति युग की कल्पना की थी उस प्रकार का युद्ध छेड़ते हुए भी हमें इंडियन इनडिपेंडेंस एक्ट, 1947 के अंतर्गत स्वराज्य की प्राप्ति हुई। इसी प्रकार के संगठन का अभाव सत्तारूढ़ दल के लिए स्वाभाविक है क्योंकि सत्ता के हस्तांतरण के पश्चात् दल के मूल्यों में परिवर्तन आया, त्याग पर राष्ट्रनिर्माण के ध्येय का स्थान भोग पर आधारित सत्ता संपादन ने लिया और क्रांतिकारी मनोवृत्ति का स्थान अवसरवादिता ने लिया। नव-निर्माण का महान कार्य इस मशीनरी के माध्यम से होगा, यह आशा व्यर्थ है। चूहों के कंधों पर बंदूकें देकर महान युद्ध जीता नहीं जा सकता। इस प्रकार की संगठन की मशीनरी श्रीमती गांधी के पास नहीं थी। अतः अपने ही दल के भरोसे क्रांति लाने का उनका विचार मृग मरीचिका के समान है।

गैर-राजनीतिक स्तर पर काम करने वाला कट्टर राष्ट्रवादी क्रांतिकारी संगठन देश में आदर्शवादी के गुट हर स्तर पर तथा उद्योग-सेवा में निर्माण करने का श्रेय भारतीय मजदूर संघ को राजनैतिक स्वार्थ से ऊपर उठते हुए केवल राष्ट्र निर्माण का विचार सरकार ने सामने रखा तो इस कार्य में पूरा सहयोग देने की सिद्धता भारतीय मजदूर संघ की है किंतु हमें पूरा विश्वास होना चाहिए हमारे कार्य का उपयोग राष्ट्र निर्माण के लिए ही किया जा रहा कि व्यक्तिगत या दलगत स्वार्थ के लिए।

भारतीय मजदूर संघ ने प्रारंभ से ही सुझाव दिया कि स्वायत्त मुद्रा सत्ता (autonomous monetary authority) का निर्माण किया जाए, उसके लिए रिजर्व बैंक की रचना तथा स्वरूप में उचित परिवर्तन लाये जाएं, मुद्रा नियंत्रण के माध्यम से मूल्य नियंत्रण तथा पालिसी माध्यम से पूर्ण रोजगारी द्विविध उद्देश्य उस ऑथोरिटी के रखे जाएं, एक-एक परिवार तथा गाँव की लघु योजना बनाकर उसे कार्यान्वित करते हुए आज के अविश्वसनीय लोगों को विश्वसनीय बनाने हेतु देशव्यापी फाइनेन्सियल कंसलटेशन सर्विस का निर्माण किया जाए, आदि सुझाव हमने कई बार दिये हुए हैं। देश की अर्थनीति में बैंकिग का वही स्थान है जो कि देश की शांति सुरक्षा व्यवस्था में रेलवे का है। शांति सुरक्षा की दृष्टि से रेलवे यह देश की जीवन रेखा तो अर्थ रचना की दृष्टि से बैंकिग यह देश की जीवन रेखा है। इसको सफल बनाना कर्मचारियों के सहयोग से ही संभव है। फाइनैन्सियल कन्सलटेशन सर्विस को व्यावहारिक रूप देना यह बैंक कर्मचारियों के द्वारा सकता है और उसके ऊपर देश का आर्थिक भविष्य निर्भर है। यह कार्य करने के लिए बैंक कर्मचारियों को प्रवृत्त करना तथा उन्हें सक्षम बनाना यह काम एन.ओ. बी.डब्ल्यू के जैसी राष्ट्रवादी ही रचनात्मक कार्य कर सकती है। राष्ट्र निर्माण की लड़ाई में राष्ट्र की सेवा का सब से अगुआ पथिक यानि बैंक कर्मचारी ही है और इस भूमिका का निर्वाह करने की क्षमता उनके अंदर निर्माण करना यह कार्य भारतीय मजदूर संघ ही कर सकता है।

इस परिस्थिति में हमारे कर्त्तव्य स्पष्ट हैं। हम किसी की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं करते किंतु यह प्रामाणिकता अपने विचार तथा आचार से प्रस्थापित करना यह जिम्मेदारी सरकार की ही है। यह बात उन्होंने सिद्ध कर दी तो राष्ट्र निर्माण के कार्य में उनके साथ सहयोग करने के लिए भारतीय मजदूर संघ सदा ही तैयार है। किंतु मजदूर वर्ग के हित को अगर वह सिद्ध न कर पाए और निर्वाचन पूर्व आश्वासन केवल चालबाजी मात्र दिखाई दिए। सरकार से संघर्ष करते हुए अपनी बातें मनवाने के लिए भारतीय मजदूर संघ नित्य सिद्ध रहेगा। यही हमारी भूमिका है। हम राजनैतिक झंझट में जाना नहीं चाहते। जहाँ एक ओर अपने जायज अधिकारों की प्राप्ति के लिए हम संघर्षरत हैं वहीं दूसरी ओर राष्ट्र निर्माण कार्य के लिए हम समन्वयक्षम तथा सहयोगक्षम भी हैं। मतलब यह है कि हमारी नीति उत्तरदायित्व पूर्ण सहयोग और प्रतियोगी सहयोगिता की है। एक राष्ट्रवादी श्रमिक संस्था के नाते हम इसी भूमिका को ही ले सकते हैं। यह सभी बातें ध्यान में रखते हुए हम धीरज के साथ आगामी भविष्य काल में सरकारी नीति के निर्धारण के विषय में सतर्क रहें और उनकी नीति को देखकर अपना पथ हम निश्चत करें।

साथ ही साथ एक अपरिहार्य बात भी ध्यान में रखें। सरकारी नीतियाँ गलत रहीं तो उनका विरोध करने के लिए हमारी संगठित शक्ति का निर्माण आवश्यक है। वे नीतियाँ उचित रहीं तो भी उनको कार्यान्वित कराने के लिए हमारे प्रबल संगठन शक्ति की आवश्यकता है। दोनों परिस्थितियों में हमारी सफलता हमारी शक्ति पर ही निर्भर रहेगी। अतः चारों ओर की परिस्थितियों के विषय में सतर्क सावधान रहते हुए विभिन्न कठिनाइयों के बावजूद हम अपना संगठन शीघ्र ही बलवान बनाएं यही आवश्यक है। इसी माध्यम से राष्ट्र पुनःनिर्माण में हमारा सहयोग लिया जा सकता है।

देश आज दोराहे पर खड़ा है। निकट भविष्य में उसके भाग्य का निर्णय होने वाला है। उसे पराए राष्ट्रों का गुलाम बनाने के लिए हमारे ही कुछ भाई जयचन्द और मानसिंह बनने का प्रयास चला रहे हैं। चारों ओर असंतोष तथा विफलता का वायुमंडल है। अनुचित ढंग से विस्फोटक आए तो देश का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। इस संकटमय परिस्थिति में आर्थिक क्षेत्र की कठिनाईयों से मुकाबला करते हुए पुन: आर्थिक निर्माण सफल बनाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी बैंक कर्मचारियों की ही है। देश को वर्ग बैंकिंग (Class Banking) से सामूहिक बैंकिंग (Mass Banking) तक ले जाना हमारा ही कर्तव्य है। यह जानकारी चंडीगढ़ अधिवेशन का संदेश लेकर हम यहाँ से अपने अपने स्थान पर वापस जाएं यही अभिप्रेत है।

 

 

सोपान 1

( कुछ प्रमुख बिंदु)

· हमें यह पूरा विश्वास है कि हमारे सभी कार्यकर्ता रजाई ओढ़कर सो जाएं तो भी यहाँ कम्युनिज्म नहीं आ सकता।

· हमारा लक्ष्य राष्ट्र निर्माण है। अन्यों के समान हम सत्ता को अतिरिक्त महत्व नहीं देते। भविष्य में भी हम इसी दृढ़ता का पालन करेंगे।

· मजदूर तथा देश का कल्याण यही उसका (भा.म.संघ) का उद्देश्य रहे; मजदूर, उद्योग तथा राष्ट्र तीनों के हित एक ही दिशा में जाने वाले हैं यह उसकी मान्यता रहे; अधिकार और कर्तव्य दोनों पर वह समान आग्रह रखे; नेतागिरी, राजनैतिक दलगत स्वार्थ, मालिक, सरकार और विदेशी विचारधारा का प्रभाव, इन सब बातों से वह सर्वथा मुक्त रहे।

· राजनैतिक दल निरपेक्ष सभी राष्ट्रवादी तत्वों के लिए एक सामान्य मंच के नाते वह कार्य करे। राष्ट्रीय संस्कृति तथा परंपरा के प्रकाश में मजदूरों का, मजदूरों के लिए, और मजदूरों द्वारा चलाई गयी संस्था इस भूमिका का वह निर्वाह करे; और मजदूरों को संपूर्ण राष्ट्र के साथ मनोवैज्ञानिक एकात्म स्थापित करते हुए अधिकतम उत्पादन के द्वारा राष्ट्रोत्थान के कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग देने में वह सिद्ध हो

· जब तक प्रत्यक्ष वेतन जीवन वेतन के स्तर तक नहीं आता तब तक बोनस को विलंबित तथा पूरक वेतन माना जाए यह माँग की। न्यूनतम तथा अधिकतम व्यय योग्य आय में एक और दस का अनुपात प्रतिपादन किया। मूल्य वृद्धि के लिए वेतन वृद्धि उतनी ही मात्रा में जिम्मेवार है जितनी मात्रा में वेतन वृद्धि उत्पादकता वृद्धि से अधिक होगी, यह सिद्धांत प्रतिपादन किया।

· श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण, राष्ट्र का औद्योगिकीकरण तथा उद्योगों का श्रमिकीकरण (Nationlise the Labour Industrialise the Nation; Labourise the Industry) यह संघ की त्रिसूत्री माँग भी उसकी विचार पद्धति का ही परिचय देती है। उद्योगों के श्रमिकीकरण की कल्पना भी संघ की जगत् के श्रम क्षेत्र को एक मौलिक देन है।

· हमारी जड़ें भारत भूमि में हैं, राष्ट्रीयता के आधार पर हम मजदूर आंदोलन चलाना चाहते हैं। दुनिया के मजदूरों एक हों (Workers of the world unite) नहीं, अपितु मजदूरों दुनिया को एक करो (Workers unite the world) हमारा नारा है। वास्तविक राष्ट्रवादी संगठन आज खड़ा हो रहा है।

· भारतीय मजदूर संघ, राष्ट्र की अस्मितताओं के सहारे खड़ा श्रम संगठन है, जिसके सहभागी बनने का महान श्रेय हमें मिला है। काफी समय हो गया है। यह भगवान का कार्य है, राष्ट्र का कार्य है, और हम सबका कार्य है।

· 'हमें यह डर नहीं है कि देश में कम्युनिज्म छा जाएगा। कम्युनिज्म अपने ही अंतर्विरोधक बोझ में दबकर खत्म हो रहा है। यह प्रक्रिया जागतिक स्तर पर पहले ही प्रारंभ हो चुकी है और यह निःसंदेह है, यद्यपि पुराना मकान गिरते गिरते भी कई साल निकल जाते हैं, तो भी यह बात इतनी ही निश्चित है कि कम्युनिज्म का Optimum Point पहले निकल गया है।

· इसी नीति के परिणामस्वरूप हमने तय किया है कि शासन किसी भी दल के हाथ में हो, हमारी शासन के प्रति नीति एक जैसी ही रहेगी। वह होगी प्रतियोगी सहकारिता (Responsive Co-operation) की। जिस मात्रा में शासन मजदूरों से सहयोग करेगा उसी मात्रा में हम शासन से सहयोग करेंगे। जिस मात्रा में शासन मजदूरों से असहयोग करेगा उसी मात्रा में हम शासन से असहयोग करेंगे। जिस मात्रा में शासन मजदूर विरोधी नीति अपनाएगा उसी मात्रा में हम शासन विरोधी नीति अपनाएंगे।

· भारतीय मजदूर संघ यह स्वयम् Committed Trade Union Movement है किंतु genuine Trade unionism के नाते हमारी Commitment राष्ट्रहित के चौखट के अंतर्गत मजदूर हित के प्रति है। हम किसी की भी नेतागिरी के लिए, राजनैतिक दल के स्वार्थ के लिए या शासन तथा शासक दल के लिए committed नहीं रह सकते। इस तरह की commitment, genuine Trade Unionism तथा मजदूर हितों से मेल नहीं रखती।

· सब काम हम अकेले नहीं कर सकेंगे। अतः जो गुण कार्य के लिए आवश्यक हैं, वे जिनमें हों, ऐसे लोग ढूंढ़ने का काम भी करना होगा। इन्हें ढूंढकर समर्पित करना, भा.म.संघ में रुचि उत्पन्न करना, उनमें ध्येय जागृत करना तथा इन्हें एकत्रित गूँथना। ऐसे लोगों का संग्रह master mind group कहलाता है जो संगठन का आधार होता है। अनुकूल परिस्थिति में इस ग्रुप की संख्यात्मक वृद्धि करनी चाहिए तथा प्रतिकूल परिस्थिति में गुणात्मक वृद्धि की ओर ध्यान दिया जाए।

· इस प्रकार विविध प्रकार के गुणों की वृद्धि द्वारा, ध्येयवाद की जागृति द्वारा, सब परिस्थितियों में अविचल रहने वाला कार्यकर्ता वर्ग हमें खड़ा करना होगा। हमारे कार्य का यही दृढ़ अधिष्ठान होगा। कुछ लोग चतुराई से या चालाकी से एकत्रित या प्रभावित हो सकते हैं पर उसमें स्थायित्व नहीं होगा। स्थाई लोक संग्रह तो कार्यकर्ता की प्रामाणिकता, सच्चाई में से ही हो सकता है। इसलिए समर्पित कार्यकर्ताओं का ग्रुप खड़ा हो। इस निमित्त हमें अपना 'मैं' कम करना होगा।

· देशभक्त मजदूर संगठन के रूप में बी. एम. एस. का रवैया है कि उत्पादन बढ़ाया जाए और समान वितरण किया जाए। लेकिन सरकार द्वारा हड़ताल के अधिकार पर पाबंदी लगाने की किसी भी कार्यवाही को यह बर्दाश्त नहीं करेगा। बी. एम. एस. ने माँग की है कि काम करने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी जाए। "हड़ताल का अधिकार", काम करने के अधिकार का स्वभाविक परिणाम है। इस अधिकार पर रोक लगाना पूरी तरह अलोकतांत्रिक और अधिकारवादी है इसकी बजाए औद्योगिक विवादों के समाधान के लिए ऐसी उपयुक्त व्यवस्था की जाए कि हड़ताल का अधिकार निष्प्रयोजनीय हो जाए।

· वैसे तो राष्ट्रवादी श्रमिक के नाते हम देश के पुनर्निर्माण के लिए चाहे जितना काम करने और स्वार्थ त्याग करने को तैयार हैं किंतु हमें यह भरोसा होना चाहिए कि यह त्याग देश के लिए वास्तव में उपयुक्त

· कार्य सिद्धि की दृष्टि से यह आवश्यक है कि जनसंगठन राजनीति तथा राजनीतिक दलों से अलग और स्वतंत्र रहे। जनसंगठन राजनीतिक दल का अंग बने, यह सिद्धांत स्वीकार किया तो देश में जितने दल हैं उतने जनसंगठन ही क्षेत्र में निर्माण होंगे। यह बात एकता में बाधा डालने वाली है।

· जाग्रत, स्वयं प्रेरित तथा संगठित किसान-मजदूर ही सही माने में भारत के भाग्य विधाता हैं। उस अवस्था में राष्ट्र निर्माण हेतु बनने वाली योजनाएँ नीचे से ऊपर तक ग्रामों से दिल्ली तक जाएंगी। दिल्ली में 'एअर-कंडीशंड' कमरों से नीचे ग्रामों तक नहीं आएंगी।

· उत्पादन खर्चा घोषित करो' यह नियम सभी उत्पादकों पर समान रूप से लागू होना चाहिए । देशी उत्पादक तथा विदेशी उत्पादक-दोनों पर।

· आपातकाल के समय आदरणीय जयप्रकाश नारायण जी ने लोक संघर्ष समिति के अध्यक्ष के नाते श्री एस. एम. जोशी तथा सेक्रेटरी के नाते मुझे नियुक्त किया था और मुझे आदेश दिया था कि कम्युनिस्ट, गैर कांग्रेसी दलों से मिलकर सबका एक दल बन सकता है क्या? उसका प्रयास करना।

· अंग्रेजों की नीति रही "फूट डालो और शासन चलाओ" इस नीति के अंतर्गत हिन्दु मुसलमानों में वैमनस्य निर्माण का उन्होंने सफल प्रयास किया। किंतु सन् 1857 के अंत तक हम हिंदू-मुस्लिम एकता का ही दृश्य देखते हैं। बाद में अंग्रेजों ने अपनी फूट डालने की नीति बढ़ाई।

खंड - 4

सोपान -2

1. नव दधीचि प. पू. श्री गुरुजी (पुण्य स्मरण)

• दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. आत्म विलोपी तपःपूत व्यक्मित्व- मा. मोरोपंत जी पिंगले

- (सत्कार समारोह), दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. राष्ट्रधर्म का ज्ञान मार्तण्ड मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी (पुण्य स्मरण)

• गोविन्दराव आठवले

4. भारतीय विचार केंद्रम तिरुअनंतपुरम में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा उद्घाटन भाषण

5. बीजिंग रेडियो (चीन) द्वारा प्रसारित मा. ठेंगड़ी जी का भाषण

6. वाशिंगटन (अगस्त 1993) में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा दिया गया भाषण

7. रामलीला मैदान, दिल्ली (अप्रैल 2001 ) में मा. ठेंगड़ी जी का भाषण

8. बदलते परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के सम्मुख खड़ी चुनौतियाँ

- दत्तोपंत ठेंगड़ी

सोपान-2

 

नव दधीचि

प. पू. श्री गुरुजी (पुण्य स्मरण)

दत्तोपंत ठेंगड़ी

(पू. श्री गुरुजी के महाप्रयाण के पश्चात् तेरहवीं के दिन में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में मा. ठेंगड़ी जी के उद्गार)

जहाँ तक मुझे स्मरण है, दो साल पहले यहाँ के अपने स्वयंसेवक बंधुओं के साथ बातचीत करने का अवसर प्राप्त हुआ था किंतु, जिन परिस्थितियों में आज यहाँ हमारा एकत्रीकरण हो रहा है, यह बिल्कुल भिन्न है।

इस समय सभी लोगों के मन में उत्कट भावनाएं हैं; और उसे ठीक शब्दों में प्रकट करना कठिन है, यह बात भी सब लोग जानते हैं। एक पंक्ति मैंने पढ़ी थी, खामोशी गुनगुना रही है आज बेजुवाँ है जुबाँ मेरी। आज मेरी वाणी मूक हो गयी है ऐसा कवि कहता है। शायद आज यही भावना हममें से हरेक के हृदय में है। प.पू. श्री गुरुजी, उनका पार्थिव शरीर आज हमारे बीच से निकल गया है। यह तो एक ऐसी घटना जिसे प्रत्यक्ष देखने के बाद भी मन उस पर विश्वास नहीं करता। हम सबके लिए श्री गुरुजी हमारे बीच नहीं हैं, यह कल्पना करना भी कठिन है, किंतु यह एक सत्य घटना है।

दिनांक 5 जून 1973 को रात के 9 बजकर 5 मिनट पर श्री गुरुजी ने महानिर्वाण किया। संयोगवश पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार उसी दिन 2:30 बजे दोपहर में वहाँ पहुँचा था, किंतु प्रत्यक्ष महानिर्वाण के समय मैं उपस्थित नहीं था। वर्ग में चला गया था और कारण यही था कि उसी दिन उन्हें कुछ होगा ऐसा किसी ने सोचा नहीं था। अवस्था नाजुक है यह तो सब देख रहे थे। लेकिन इस तरह कि अंतिम अवस्था पहले भी आयी थी, और इसलिए उसी रात को ऐसा कुछ होगा ऐसा सोचा नहीं गया था। मैं वर्ग में था, वहाँ यह समाचार मिला।

आखिरी चाय

दोपहर 3:00 बजे से सांय 7:45 बजे तक श्री गुरुजी के पास मुझे बैठने का अवसर प्राप्त हुआ था। पीड़ा तो बहुत थी। लेकिन उस अवस्था में भी जो लोग उन्हें मिलने आते थे उनके साथ बात करने की प्रवृत्ति, उनका कुशल मंगल पूछने की प्रवृत्ति, यह दूसरे को गुमराह करने वाली थी। उस दिन दोपहर के 3:30 बजे जिन लोगों के साथ श्री गुरुजी की आखिरी चाय हुई, उस समय हम 4-5 लोग कार्यालय में उपस्थित थे। उसी समय उनसे मिलने के लिए अहमदाबाद के परिवार के लोग वहाँ आए थे। श्री महेश मेहता और श्री सुभाष मेहता तथा उनकी पत्नियाँ, जो अभी Newyork में हैं, यहाँ उनकी भतीजी के विवाह के अवसर पर आए थे। वे सपरिवार श्री गुरुजी के दर्शन के लिए आए थे। वे चाय के समय वहाँ थे।

उस समय श्री गुरुजी को श्वाँस लेने में बहुत कष्ट (Hard breathing) हो रहा था। हम लोगों को बाहर से ही सूचना थी "बोलिए मत।" किंतु जैसे ये लोग अंदर आकर बैठे श्री गुरुजी ने पूछा, "क्यों भाई, तुम लोग विवाह के निमित्त आए थे, अभी कितने दिन यहाँ! रहोगे?" फिर से पूछा, "आप न्यूयार्क में रहने वाले हैं या हिंदुस्तान में आने वाले हैं।" उन्होंने कहा, "हम हिंदुस्तान आने वाले हैं। " श्री गुरुजी ने आगे जानना चाहा, सर्विस करोगे या कारखाना? उन्होंने कारखाना निकालेंगे ऐसा उत्तर दिया। तो गुरुजी ने पूछा, "प्लास्टिक का ही न?" श्री मेहता ने उस पर कहा "हाँ प्लास्टिक का ही।' निकालेंगे न?" उन्होंने कहा हाँ?' जब जोर का Pulpitatiion चल रहा "बड़ौदा में ही हो, बोलने में भारी कष्ट होता हो ऐसे समय का यह प्रसंग है।

इतने में चाय आयी। चाय देने वाले जो अपने स्वयंसेवक थे, वे सबको चाय देने लगे। मेहता परिवार नागपुर के अपने स्वयंसेवक प्रेमजी भाई के यहाँ ठहरा था, वे साथ में थे। जब स्वयंसेवक प्रेमजी भाई के सामने चाय रखने लगा, श्री गुरुजी ने कहा, प्रेमजी भाई चाय नहीं लेते, उनके लिए दूध या तो शरबत जैसा कुछ लाओ। प्रेमजी भाई कोई संघ के बड़े अधिकारी नहीं हैं। सार्वजनिक जीवन में कोई बड़े व्यक्ति भी नहीं हैं किंतु श्री गुरुजी के मन में छोटे से स्वयंसेवक के साथ भी जहाँ अपनापन है उसका यह परिचायक है। जब श्वाँस लेने में भी बड़ी पीड़ा हो रही थी, अपने को सँभालना भी बड़ा कठिन था, प्रेमजी भाई चाय नहीं लेते इस बात का स्मरण रखना, छोटा सा प्रसंग है, परंतु अपने परिचय में आने वाले सब लोगों के प्रति उनके मन में जो आत्मीयता रहती थी इसका यह द्योतक है।

मृत्यु का स्वागत कैसे करोगे ?

बाद में सब लोगों को बड़ा दुःख हुआ। वे अपने बारे में तो कुछ नहीं, हमारी पूछताछ करते रहते हैं। यहाँ जब उनका अंतिम निवास नागपुर में था उस समय लोगों को कष्ट न हो इसलिए वे अपनी पीड़ा, अपने कष्ट किसी को बताते नहीं थे। आखिरी दिनों में लगातार कई दिन तक वे रात को बिस्तर पर सोये नहीं, कुर्सी पर बैठे रहते थे यह लोगों को कई दिनों के बाद Accidentally पता चला। उन्होंने स्वयम् अपनी ओर से बताया नहीं। कितनी भी पीड़ा हो, जो कोई मिलने आता, उनसे पूछते, भाई तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है? ऐसे ही वे अपनी पीड़ा को बर्दाश्त करते रहे। जिस ढंग से उन्होंने वह सारी पीड़ा सही, लगता है हम सब लोगों को सबक ही सिखा गए कि किस तरह मृत्यु का स्वागत करना चाहिए।

खड़े होने में भी उनको कष्ट होता था। खड़े होकर बैठने में उनको दम लगता था। ज्यादा देर तक खड़े नहीं हो सकते थे तो भी आखिर तक प्रार्थना का आग्रह नहीं छोड़ा; बिलकुल आखिरी दिन तक जब खड़े होकर प्रार्थना करना संभव नहीं हुआ, तब बैठकर प्रार्थना की। भारत माता की जय कहा। यही थे उनके अंतिम शब्द। बिल्कुल आखिरी दिन तक, वह एक अंतिम दिन छोड़ दिया तो, बड़े कष्ट बर्दाश्त करते हुए भी प्रार्थना बराबर करते रहे। यह जो सारा उनका व्यवहार रहा, मुझे लगता है कि हम लोगों को उन्होंने अपने जीवकाल में, जीवन किस तरह जीना चाहिए यह सिखाया, मृत्यु में यह भी सिखाया कि मृत्यु का स्वागत किस तरह करना चाहिए।

यह बात सही है कि हम सब स्वयंसेवकों को यह जो अंतिम समाचार है वह कुछ धक्का देनेवाला था। क्योंकि थोड़े ही दिन पूर्व समाचार आया था कि श्री गुरुजी की तबियत अच्छी हो रही है। तृतीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग में आए हुए स्वयंसेवकों से वे प्रांतश: मुलाकात करते रहे। बातचीत करते रहे। Terrace में उनका घूमना भी चालू था और अच्छे समाचारों के बाद एकदम यह दुःखद समाचार सुनने की मन:स्थिति में हम नहीं थे। सुबह डा. आबासाहब थत्ते को उन्होंने कहा, 'भाई, मालूम होता है कि आखिरी घंटी बज रही है। हमेशा जब वे कुर्सी पर बैठे रहते थे अपना कमंडल बाईं ओर रखते थे। केवल प्रवास पर जाते समय दाँये हाथ में कमंडल लेकर जाने की उनकी प्रथा थी लेकिन उस दिन सुबह से ही, अपना कमंडल हमेशा की तरह बाईं ओर न रखकर दाईं ओर रखा। जो बात उनके अंत:वासियों को कुछ असामान्य जैसी-हमेशा जैसी नहीं लगी।

उस दिन जब श्री गुरुजी की तकलीफ बढ़ने लगी, डॉक्टर लोगों ने एक सुझाव दिया कि श्री गुरुजी अगर नर्सिंगहोम में शिफ्ट हों तो अच्छा रहेगा। वैसे तो थोड़े ही दिन पूर्व श्री गुरुजी ने निश्चय से कहा था, मै कार्यालय को तब तक नहीं छोड़ने वाला हूँ, जब तक मैं नीचे जाकर प्रार्थना करने की अवस्था में नहीं आता, या दौरे पर जाने की अवस्था में नहीं आता। तब तक मैं कहीं नहीं जाऊँगा। ऐसा उन्होंने निश्चयपूर्वक कहा था। इसीलिए डॉक्टरों ने डरते-डरते कहा था अच्छा होगा अगर नर्सिंग होम में शिफ्ट हों तो।" परंतु इस पर श्री गुरुजी ने हँसकर पूछा, डॉ. जोशी के नर्सिंग होम में? "हाँ वहाँ जाएंगे तो अच्छा रहेगा।" फिर उन्होंने हँस दिया और कहा, अच्छा भाई कल देखेंगे।

वास्तव में वे एकदम इस बात को Reject ही करेंगे ऐसा सब लोग सोचते थे। लेकिन जिस ढंग से उन्होंने इस बात को लिया, डॉक्टर लोगों को थोड़ा विचित्र सा लगा। उनके लिए ऊँचा-नीचा किया जा सके ऐसा फाउलर कॉट लाने की बात की। उन्होंने कहा, "भाई जरूरत क्या है?, Cot लायी गई। वह Cot जब तैयार हो रही थी वे हँस रहे थे। उन्होंने उसको स्पष्ट भी नहीं किया। उस पर बैठे भी नहीं और भी कुछ घटनाएँ ऐसी रहीं, जिसके कारण पार्थिव शरीर में उनका अंतिम दिन होने का उनको ज्ञान हो गया था।

चार कदम आगे बढ़कर......

तबियत कुछ अच्छी हो रही है, एकदम खराब गई यह बात तो ठीक है। लेकिन तबियत जिस समय कुछ अच्छी हुई थी, उनके मन में कुछ पीड़ा थी। वे सोचते थे, कहते भी थे, "भाई, यह शरीर अब इतना जरजर हो गया है, सामान्य व्यवहार में भी दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है। इस तरह जीने में क्या फायदा है?" यह बात उनके मन में रहती थी और समय-असमय प्रगट भी होती थी इसलिए ऐसा लगता है कि प.पू. श्री गुरुजी ने यह मान लिया था कि अंतिम घड़ी निकट है। हो सकता है उन्होंने भी इस पर कुछ विचार किया हो। मृत्यु स्वाभाविक रूप से उनकी ओर चार कदम आगे बढ़कर आयी थी या वे स्वयम् चार कदम आगे बढ़कर मृत्यु से हस्तमिलाप करने गए थे। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी का स्वर्गवास जिस ढंग से हुआ था, उसे उन्होंने 'प्रयोगवेशन' कहा। स्वयं धीरे-धीरे सब चीजें छोड़कर मृत्यु के सामने पेश होना, क्या ऐसा यह मामला नहीं था? इतना ही था कि सावरकर जी ने घोषणा की थी. उन्होंने नहीं की। ऐसा तो कुछ मामला नहीं था? यह अन्वेषण का विषय हो सकता है।

मित्र , पिता, कर्ता

उनके चले जाने से सारे देश पर दुख और शोक की गहरी छाया फैल गई है। किसका कितना नुकसान हुआ, क्या क्षति हुई, यह बताना बड़ा कठिन है। क्योंकि क्या स्वयंसेवक, क्या Non-Swayamsevak ऐसे असंख्य लोग थे, जिनके साथ उनके प्रेम के, आत्मीयता के संबंध थे। सार्वजनिक जीवन में नेता और अनुयायी या तो नेता और उनके प्रशंसक ऐसा कहा जाता है। वे नेता नहीं थे हमारे लिए। सभी स्वयंसेवकों को तथा बाहर के समाज के लोगों को भी वे बड़े भाई या पिता के समान लगते थे। हरेक के सुख-दुख में वे सुखी और दुःखी होते थे। असंख्य लोग ऐसे थे, जो अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक सुख-दुःख की बात व्यक्तिगत रूप से या पत्र लिखकर उनको बताते थे और उनसे प्रेरणा, मार्गदर्शन तथा सांत्वना पाते थे, ऐसे असंख्य लोग थे। मुझे लगता है कि पिछले सौ वर्षों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसका व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार वे अपने ही हाथों से करते थे। आखिर तक, जिस दिन महाप्रयाण किया उस दिन भी पत्र लिखे। वास्तव में सब सुविधाएं थीं। कार्यालय में टाइपराईटर थे, Steno थे, सब कुछ था, लेकिन एक एक व्यक्ति को जो पत्र जाएगा उसमें मेरा और उसका व्यक्तिगत संबंध है बीच में टाइपराईटर की आवश्यकता नहीं, इस दृष्टि से हरेक पत्र स्वयं अपने ही हाथों से लिखते थे।

मुझे तो ऐसा निश्चयपूर्वक लगता है कि ऐसा दूसरा व्यक्ति नहीं होगा। हरेक के साथ व्यक्तिगत संबंध हो इस दृष्टि से कई परिवार थे। कहीं विवाह जमाते, कहीं पारिवारिक Partition के झगड़े निपटाते, कहीं मध्यस्थता करते, ऐसी कई घटनाएं हैं और ऐसे कई परिवार हैं जिनमें उन्होंने परिवार के कर्ता पुरुष के नाते काम किया। मानो इतने लाखों परिवारों का अपना कर्ता पुरुष अपने बीच से आज निकल गया है, ऐसी भावना हो रही है। राजा रघु के बारे में कहा गया कि रघु राजा वास्तव में सबके पिता थे। जिन्होंने जन्म दिया वे तो केवल जन्म के लिए हेतु मात्र थे, वास्तव में पिता तो रघु राजा ही थे, रघुवंश में कहा गया है: स पिता पितरस्तातां, केवलं जन्म हेतवो

श्री गुरुजी के बारे में ऐसी जिनकी धारणा थी ऐसे असंख्य परिवार हिंदुस्तान में हैं। लाखों परिवार यानि असंख्य लोगों का मित्र, पिता, कर्ता यह सारी भूमिका उनमें एकत्रित थी। सम्मिलित श्रेष्ठ व्यक्तित्व होते हुए भी. सबके साथ उनके स्तर पर आकर बातचीत करते थे। बाल स्वयंसेवकों को भी दूरत्व का अनुभव नहीं हुआ।

अजानता महिमानं तवेद.......

मैं एक समय उनके साथ था। छोटा स्वयंसेवक-उसको शिशु स्वयंसेवक ही कहना चाहिए, हम उनके वहाँ कार में गए थे। वह स्वयंसेवक सामने आया और एकाएक पूछता है, "क्यों रे! यह तेरी कार है?" उसको पता ही नहीं था कि तुम्हारी, आपकी वगैरह कहना चाहिए। उन्होंने कहा, "हाँ!" " तो अब इसमें बैठकर तू जानेवाला है। " शिशु द्वारा पूछने पर प. पू. श्री गुरुजी ने कहा, "हाँ जरूर जाऊँगा।" अभी यह बात तो छोटी सी है। एक शिशु स्वयंसेवक बिलकुल निर्भीक चित्त से आत्मीयता से उन्हें, "क्या यह तेरी कार है। " ऐसा पूछ सकता है। ऐसे कितने बड़े लोग हिंदुस्तान में होंगे जिनके साथ छोटा सा शिशु भी इस तरह बात कर सकता हो? एक Prophet के बारे में कहा गया, उन्होंने कहा, "बच्चों को मेरे पास आने से मत रोको।" प. पू. श्री गुरुजी का यही हाल था और इसी कारण बच्चों को भी लगाव था कि यह अपना खेल का एक साथी है, जिसके साथ बात कर सकते हैं, मजाक कर सकते हैं।

अब यह बच्चों को ही लगता था ऐसी बात नहीं। हम लोग जो उम्र से बड़े हो गए हैं, उनके साथ रहते थे, भूल ही जाते थे कि वे क्या हैं। ऐसा लगता था कि अपने साथ बातचीत करने वालों में से एक हैं, थोड़ा-सा बड़ा हो गए तो उससे क्या है? यद्यपि अपने बड़प्पन का आभास उन्होंने अपनी बातचीत या व्यवहार में कभी भी नहीं आने दिया और इसलिए जब कभी प्रसंगवश उनके श्रेष्ठत्व का एकदम साक्षात्कार होता था, वह प्रगट होता था, हम सब लोगों की भावना ठीक अर्जुन के जैसी हो जाती थी, जैसे विराट विश्वरूप दर्शन के पश्चात् अर्जुन ने कहा, चाहे प्रेम से हो या गलती से हो, मैंने कहा हे कृष्ण! हे सखा! हे यादव! ऐसा Singular में ही पुकारकर, मैंने बराबरी के नाते आपसे बात की, यह तुम्हारे श्रेष्ठत्व को न जान सकने के कारण मेरी गलती हुई है इसलिए भगवान मुझे क्षमा करो। सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण, हे यादव, हे सखेति। अजानता महिमानं तवेद , मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥

ठीक हम लोग भी ऐसा अनुभव करते हैं। कभी पता ही नहीं लगा उनके बड़प्पन का श्रेष्ठत्व का। सच्चा श्रेष्ठत्व वही है जो स्वयं अपने को भूल जाता है। कभी यह ख्याल तक नहीं कि वे अन्य लोगों से कुछ श्रेष्ठ हैं। जिसके साथ बात करते थे उसके साथ एकात्म होकर बात करते थे। इसके कारण सभी उम्र के सभी स्तर के लोगों से इतनी आत्मीयता उन्होंने प्राप्त की कि किसका कितना नुकसान हुआ यह कहना कठिन है। व्यक्तिगत ऐसे लाखों परिवार के लोगों को नुकसान हुआ है। कई लोगों को केवल उनके पास जाकर बैठने से सांत्वना मिलती थी, मार्गदर्शन मिलता था। अब यह सब कैसे होगा? इस रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी? यह विचार सबके मन में है। मार्गदर्शन व्यक्तियों को था, परिवारों को था, विभिन्न संस्थाओं को भी था; कितनी संस्थाओं को था इसकी गिनती करना कठिन है।

 

मात्र हिंदू ही नहीं

आज तो सार्वजनिक जीवन में थोड़ा सा भी किसी ने काम किया तो एकदम प्रसिद्धि के पीछे जाते हैं। छोटी-सी घटना हुई तो एकदम प्रसिद्धि कर देते हैं। यहाँ तो प्रसिद्धि का नाम नहीं। लोगों को यहाँ तक पता नहीं कि कितने लोगों के साथ श्री गुरुजी का प्रत्यक्ष संबंध था, कितनी संस्थाओं के साथ था। कभी प्रसिद्धि के पीछे नहीं गए। उनकी अंतिम बीमारी में भी उनकी प्रसिद्धि परांगमुखता का यह अनुभव आया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री वंसतराव नाईक उनसे मिलने के लिए आए। वहाँ बातचीत हुई। यह बात अखबारों में नहीं आई, संघ कार्यालय के समाचार में भी नहीं थी। न तो हमने ऐसे लोग देखे हैं, कोई भी आते हैं तो खटाक से समाचार छप जाता है कि फलाँ-फलाँ आए थे। अप्रैल के अंत में Socialist Party के प्रधान George Fernandes का चिंता और शुभेच्छा व्यक्त करने वाला पत्र आया था। कहीं भी उसका जिक्र नहीं।

विभिन्न लोगों के मन में इस तरह की आत्मीयता की भावना थी। केवल हिन्दुओं में ही थी ऐसा नहीं। लोगों को कल्पना नहीं होगी उतने अहिंदुओं से उनका आत्मीयतापूर्ण संपर्क था। राज्यसभा में जाने के पश्चात् मुझे यह अनुभव हुआ। Mr. जोकिम अलवा और उनकी पत्नी Madam Violet Alwa-जो राज्यसभा की Deputy Chairman थीं, जब कभी राज्यसभा का पहला Session शुरू होता था वे यही प्रश्न पूछते "क्यों भाई! नागपुर से आ रहे हो?" हमने कहा, "हाँ, नागपुर से आ रहा हूँ।" "तो गुरुजी की तबियत कैसी है?" यह पूछताछ होती रही। अभी जब समाचार आया था कि प.पू. श्री गुरुजी का स्वास्थ्य अच्छा हो रहा है, तब उन्होंने कहा था, "समाचार विश्वसनीय नहीं लगता। एक बात है, श्री गुरुजी को London ले जाने के लिए मेरा सुझाव है और आवश्यक सभी सुविधा कर देने को मैं तैयार हूँ।"

मुहम्मद अली भी अनाथ

गुरुजी की मृत्यु के पश्चात का एक प्रसंग है। मैं जब INTUC में काम करता था श्री मुहम्मद अली नाम के सज्जन से मित्रता हुई थी। वह कार्यालय में पहुँचा, तो लोगों को लगा यह यहाँ क्यों आ गया? वह तो गुरुजी को अंतिम दर्शन के लिए जहाँ रखे गए थे वह स्थान देखने आया था। बाहर आया तो रोने लगा। कहने लगा, "जब कभी आते थे. बड़े प्रेम से, आत्मीयता से पूछते थे, क्या है, कैसा है? बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है? दुकान कैसी चलती है? तो हमें ऐसा लगता था कि उनका हाथ हमारे सर पर है। अब हम अनाथ हो गए।" ऐसे कई उदाहरण हैं। अन्य संस्थाओं को भी ऐसा ही लगा है। एक ने तो कहा R. S. S. is not Orphaned. R.S.S. में तो सरसंघचालक हूँ ही, इसलिए यह तो संभव नहीं। परंतु कई लोगों का जरूर ऐसा लगा' fah They are orphaned. विभिन्न संस्थाओं के कार्यकर्ताओं के विविध कार्यों से उनका संपर्क था। पर वे केवल संघ कार्य में ही थे। सभी कार्यों में काम करने वालों का मार्गदर्शन करते थे, परंतु वे स्वयं किसी में नहीं थे। विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वालों का मार्गदर्शन गया। उनकी छत्रछाया गयी ऐसा सभी को लगेगा। कितना नुकसान हुआ यह कहा नहीं जा सकता।

वज्रादपि कठोराणि

जहाँ तक R. S. S. का संबंध हैं, संघ और गुरुजी का द्वैत समाप्त हुआ था। गुरुजी यानि संघ, संघ यानि गुरुजी। बहुत विस्तृत बताने की आवश्यकता नहीं। प.पू. डॉक्टर जी से जो सूत्र हाथ में लिया था, 33 साल तक लगातार, अखंड भ्रमण, 'चरैवेति' 'चरैवेति', का वास्तव में निर्वाह करते हुए. एक कोने से दूसरे कोने तक समस्त देश का भ्रमण लगातार किसी ने किया होगा तो श्री गुरुजी ने और कितनी ही आपत्तियों से टकराना पड़ा, किंतु मन का संतुलन न खोते हुए देश के प्रति जो अविचल श्रद्धा है उसके कारण, हम जो सोच रहे हैं वही सही है, उसी में राष्ट्र का हित है यह दृढ़ निष्ठा होने के कारण, अपने चरित्र के आधार पर महान संकटों में भी उन्होंने इस नैया को किस तरह निकाला यह विस्तृत करके बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपने ध्येय के विषय में स्पष्ट धारणा, और ध्येय का जहाँ तक संबंध है किसी भी तरह का समझौता करने की तैयारी नहीं, व्यक्तिगत बातों में मृदुतम सिद्धांत के विषय में कठोरतम; जैसे कहा जाता है, वज्रादपि कठोराणि, मृदुनी कुसुमादपि वज्र से भी कठोर और फूलों से भी कोमल।

Wherever the national interest was concerned, he never left any thing to chance. He was strict disciplinarian.

During the I. N. A. disturbances at Calcutta a learned visi tor asked him about his reaction to the style of revolt that was being organised there. Without a moment's delay he took out Shakespeare's 'Julius Caesar' from the near by shelf and pointed out the speech of Antony after the furious mob proceeds to attack Brutus. "Mischief, thou art afoot; now take what course thou wilt." Underlining the words "thou wilt" he said "here we differ; not "thou wilt"; it ought to be "we wilt."

लोकप्रियता नहीं राष्ट्रहित

947 के पश्चात् हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन का इतिहास देखिये। इस सार्वजनिक जीवन के मंच पर आए हुए जो विभिन्न मत हैं; राजनैतिक या गैर-राजनैतिक, इन सब मतों का अभिनय किस प्रकार हुआ हैं हम देखें। सबके मन में एक ही कामना है लोकप्रियता प्राप्त करनी चाहिए। परंतु, लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए सिद्धांतों में भी समझौता करने की तैयारी, आज एक बात कहेंगे, कल दूसरी बात मानो संपूर्ण सार्वजनिक जीवन का उनका लक्ष्य be all and end all यह लोकप्रियता संपादित करना ही है। फिर चाहे वह Power- सत्ता प्राप्त करने के लिए हो या सस्ती लोकप्रियता के लिए ही हो लेकिन गुरुजी का ऐसा नहीं था। जो बात राष्ट्रहित में सही दिखाई देती है, परंतु जनमानस दूसरा होने के कारण वह बात रखने से जनता में अप्रियता प्राप्त होगी, जनता के रोष का स्वीकार करने की हिम्मत के साथ उन्होंने राष्ट्रहित के लिए कोई बात आवश्यक है तो मुझे जनता के सामने रखना, स्पष्ट रूप से रखना, निःसंदिग्ध रूप से रखना, यह काम शायद ही पिछले 25 वर्षों में किसी ने किया होगा।

1948 के पहले एक महापुरुष थे, वे इस तरह का काम करते थे। उनके पश्चात् शायद अन्य और कोई नहीं जिसने यह काम इतनी कट्टरता से किया होगा। सत्य और असत्य के लिए उन्होंने केवल भगवान को साक्षी रखा। बहुमत अल्पमत की उन्होंने कभी फिक्र नहीं की और इसी कारण कई बार जन-मानस की एक लहर उनके खिलाफ उठी है ऐसा हमने देखा है। जिस समय संयुक्त महाराष्ट्र का आंदोलन चल रहा था, उस समय बंबई में जाकर यह स्पष्ट कहना कि Linguistic states-भाषा के आधार पर राज्यों की रचना राष्ट्र के लिए हानिकारक है। यह बड़े साहस की बात थी। जिस समय पंजाब में गैर सिक्ख सभी हिंदू विभिन्न दलों ने, राजनैतिक लालच में आकर अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए हमारी मातृभाषा पंजाबी नहीं हिंदी है ऐसा लिखवाना चाहिए, ऐसा कहा किंतु उस समय सब लोगों का रोष स्वीकार करते हुए भी स्पष्ट रूप से गुरुजी ने कहा, पंजाबी हमारी भाषा है, अतः जो पंजाबी हैं उन्हें पंजाबी लिखवानी चाहिए ।

किंग नहीं , ऋषि

कभी-कभी लोकप्रियता को व्यक्तित्व के श्रेष्ठत्व का मापदंड माना जाता है। बड़ा सस्ता है। ऐसा माना जाता है कि जो सर्वाधिक लोकप्रिय होगा वही व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन ऐसा यदि मान लिया तो इसमें कई कठिनाइयाँ आती हैं। कई लोग सत्ता पर होते हैं। तो सर्वाधिक लोकप्रिय प्रतीत होते हैं, पर जब वे सत्ता से हट जाते हैं तो कोई पूछता नहीं सब भूल जाते हैं। लोग दूसरे व्यक्ति को अर्थात उगते सूर्य को प्रणाम करते हैं। Authority forgets the dying king के बारे में कहा गया है, ऋषि के बारे में नहीं। इसलिए तत्कालीन लोकप्रियता को श्रेष्ठता के मापदंड के रूप में स्वीकार किया तो बड़ा कठिन होगा। श्रेष्ठता की परिचायक अगर तत्कालीन लोकप्रियता होती है, तो श्री गुरुजी के सत्य भाषण के कारण जनता के रोष की, असंतोष की लहर उनके विरुद्ध उठती है तो उन्हें श्रेष्ठ नहीं माना जाना चाहिए। यदि ऐसा हो तो हमारे राष्ट्र के मान्यवर क्रांतिकारी शहीद जिन्होंने देश के लिए आत्मबलिदान किए उनकी तुलना में राजकपूर को ज्यादा लोकप्रिय और श्रेष्ठ मानना चाहिए । राजकपूर आ जाएं तो जितनी भीड़ होगी, शायद सरदार भगतसिंह भी दुबारा आ जाएं तो इतनी भीड़ नहीं होगी ऐसा लगता है लेकिन लोकप्रियता स्थायी मापदंड नहीं।

सुकरात जिसका नाम आज दुनिया में चलता है, उसके विषय में कहा जाता है कि उसके समकालीन लोगों ने उसे मृत्युदंड की सजा दी थी। Hemlock नाम का जहर देकर उसको मरवाया था। समकालीन लोगों का रोष या गलतफहमी यदि व्यक्ति को श्रेष्ठ होने से वंचित रखती है तो सुकरात (Socrates) को श्रेष्ठ नहीं माना जाता, लोग उसके खिलाफ हो गए थे लेकिन आज दुनिया में सुकरात (Socrates) का नाम है, उसे विष देने वाले का नाम नहीं। जिसका उदाहरण हम जानते हैं, जीसस को शूली पर चढ़ाया था। उसके समकालीन लोग उसके खिलाफ थे, यहाँ तक कि सब लोगों के सामने Choice आया था, एक ओर जीसस हैं और एक ओर चोर डकैत हैं, और शूली एक ही है, तब जीसस को शूली पर चढ़ाया गया। लेकिन आज जीसस को जिन्होंने शूली पर चढ़ाया उनको तथा बच जाने वाले डकैत को कोई नहीं जानता जिसको लोगों ने शूली पर चढ़ा दिया उसी का दुनिया में बोलबाला चल रहा है। जिस मुहम्मद साहब को आगे चलकर संपूर्ण अरेबिया ने मसीहा के रूप में स्वीकार किया, उनको एक समय उन्हीं के जन्म स्थान मक्का के लोग जान से मार डालने के लिए प्रवृत्त हुए थे। एक विद्वान ने कहा है, "No Prophet is worshipped in his own Land."

Most Misunderstood (गलतफहमी के शिकार बनाए गए)

इमर्सन ने कहा है, "To be great is to be misunderstood." कई श्रेष्ठ पुरुषों के जीवन में ऐसे प्रसंग आए हैं। श्री गुरुजी के बारे में समय पर गलतफहमी फैलायी गई, इसको यदि ख्याल में रखा तो ऐसा लगता है, He is in a good company. लेकिन यह मापदंड श्रेष्ठता का नहीं हो सकता। एक नेता का कहा हुआ यदि माना जाए तो मूल्यांकन बदल जाएगा। उन्होंने कहा कि श्रेष्ठता का मापदंड है The extent of difficulties surmounted. हमारे यहाँ ही नहीं, विदेशों में भी श्रेष्ठत्व का मूल्यांकन किस ढंग से किया जा सकता है इसकी स्पष्ट कल्पना है।

एक बार अपने वर्धा जिला संघचालक जी पू. अप्पाजी जोशी की बातचीत महात्मा जी से चली। अभी की और स्थायी लोकप्रियता की दृष्टि से यह उदाहरण है। अप्पाजी जब युवा थे, संघ की स्थापना भी नहीं हुई थी तब उन्होंने महात्माजी से यह प्रश्न पूछा। उन्होंने उत्तर दिया देखो, तुमने दो नाम सुने हैं Julius और Jesus. Julius सम्राट थे आज दुनिया में उनके कितने अनुयायी हैं यह देखो और Jesus फकीर थे, आज दुनिया में उनके कितने अनुयायी हैं, कौन श्रेष्ठ है? स्थायी मापदंड बहुत अलग होते हैं। इसलिए आज लोग प. पू. श्री गुरुजी का सही मूल्यांकन नहीं कर पाएंगे परंतु, समय, उनके व्यक्तित्व को, कर्तृत्व को, तपश्चर्या को पूरी तरह से न्याय देगा इसमें कोई संदेह नहीं।

कई पुरुष प्रसिद्धि के कारण श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं वे पहाड़ के समान होते हैं। कहते हैं जो पहाड़ दूर से ही मनोरम दिखते हैं और यदि उनके नजदीक जाते हैं तो उनका असली रूप काँटे पत्थर वाला नजर आता है।

अन्य धर्मों के प्रति आदर

यहाँ बिलकुल उल्टा मामला था। जितना नजदीक जाओगे उतना व्यक्तित्व का मनोहर सौन्दर्य अधिकाधिक आकृष्ट करता था। उनके बारे में अनेक गलत बातें फैलाई गई हैं। जैसे एक बार अकारण ऐसा प्रचार किया गया कि वे अहिन्दुओं के विरोधक हैं। बिल्कुल गलत बात है। गुरुजी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि हम सभी धर्मों के बारे में आदर की भावना रखते हैं। सभी आध्यात्मिक महापुरुषों के विषय में उनके मन में सम्मान की भावना थी।

एक बार की घटना है कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन के लिए एक पुस्तिका लिखी गई। उसे प्रकाशित करना था। उसमें सद्गुणों के उदाहरणों के नाते मुहम्मद साहब और ईसा मसीह के जीवन की कुछ घटनाओं का निर्देश था। इस तरह की पुस्तिका प्रकाशित करना श्री गुरुजी को कहाँ तक अच्छा लगेगा ऐसा प्रश्न हमारे एक मित्र के मन में पैदा हुआ। उन्होंने श्री गुरुजी से सीधे ही पूछ लिया। श्री गुरुजी ने कहा, इसमें क्या आपत्ति है? मुहम्मद और ईसा दोनों ही श्रेष्ठ धार्मिक महापुरुष थे। उनके जीवन की घटनाएँ उदाहरण के स्वरूप सबके सामने रखना अच्छा ही है। मुहम्मदी मत या कुरान या मुहम्मद साहब से उनकी कोई शिकायत नहीं थी। इन श्रेष्ठ तत्वों और व्यक्तियों का नाम लेकर अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यहाँ के मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाने के प्रयास का उन्होंने विरोध किया। मुहम्मद मत का पूरी तरह पालन करते हुए भी यहाँ का मुसलमान पूरी तरह से राष्ट्रीय हो सकता है, ऐसा उसमें होना चाहिए, यही उनका आग्रह था।

पारसियों को तो वे अग्निपूजक हिंदू ही मानते थे। कोई कुरान पढ़ सकता है, कोई बाइबिल पढ़ सकता है कोई मस्जिद में तो कोई गिरजाघर में जा सकता है। उपासना का पूरा स्वातंत्र्य है। हमारे धर्म की यही विशेषता रही है। आप वेद पढ़िए, कुरान पढ़िए, बाइबिल पढ़िए, किंतु इस राष्ट्र के साथ एकात्म होकर रहिए। इस भारत को माता के नाते प्रणाम करना चाहिए। यहाँ की संस्कृति और परंपरा के साथ एकात्म होना चाहिए। यहाँ के महापुरुषों को अपना राष्ट्रीय महापुरुष मानना चाहिए। कुरान भी पढ़ सकते हो और गिरजाघर भी जा सकते हो।

संघ याने समग्र राष्ट्र

कई बार उनकी प्रसिद्धि पराङगमुखता के कारण कुछ टीकाएँ होती थीं। ऐसा लगता है कि अन्य कोई नेता होता तो बहुत कुछ प्रसिद्धि प्राप्त भी होती। स्वयं बढ़कर प्रसिद्धि से दूर रहने के कारण इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैल सकती हैं। कई लोगों ने कहा कि, "हाँ भाई! श्री गुरुजी की तपश्चर्या बड़ी थी लेकिन देश का पूरा चित्र, पूरा विचार उनके सामने नहीं था। वे केवल संघ का ही विचार करते थे।" यह कहने वाले नहीं जानते हैं कि R. S. S. यह कोई दल नहीं, संस्था नहीं, पंथ-संप्रदाय नहीं, समाज के अंतर्गत खड़ा किया हुआ एक संगठन भी नहीं, जैसे प.पू डॉक्टरजी तथा श्री गुरुजी का विचार है, 'संघ यानी समग्र राष्ट्र' और इसी दृष्टि से समग्र समाज के विषय में उनके मन में चिंता थी। समाज का जो शोषित, दलित, पीड़ित हिस्सा है, उसकी हालत देखकर उनके मन में बड़ी पीड़ा होती थी। मैं और हमारे कुछ कार्यकर्ता जो संघ में हैं. उनसे ही प्रेरणा लेकर मजदूर संघ में कार्य करते हैं और भी लोग विश्व हिंदू परिषद् में गए हैं, वनवासी क्षेत्र में जाकर बसे हैं और उनकी सेवा कर रहे हैं, जहाँ कोई प्रसिद्धि नहीं, समाचार नहीं, रेडियो नहीं; और भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जाकर प्रचार कर रहे हैं, उन सभी लोगों श्री गुरुजी से ही प्रेरणा प्राप्त की है।

मुझे स्मरण होता है कि उनके विचार कितने स्पष्ट थे। अलग-अलग क्षेत्रों के विषय में भी विचार कितने स्पष्ट थे। मैं INTUC (इंटक) में था। इंटक के एक अधिवेशन में, जमशेदपुर में, जनरल कौंसिल में मेरा निर्वाचन हुआ। मैंने वापस आकर श्री गुरुजी को बताया कि मैं चुना गया हूँ। मन में बड़ा आनंद था। तब उन्होंने पूछा, बड़ा समाधान हो रहा मैंने कुछ कहा नहीं हो ही रहा था। उन्होंने आगे पूछा, अच्छा, बताओ किस Constituency से तुम्हारा चुनाव हुआ है?" मैंने कहा, Manganese Constituency से।" गुरुजी ने पूछा कि कितने मजदूर काम करते हैं?" मैंने कहा, उस पर उन्होंने पूछा, एक प्रश्न का सीधा उत्तर दो, फिरा कर नहीं।" प्रश्न पूछा "यहाँ जो तीस हजार मजदूर हैं, जिनके प्रतिनिधि के रूप में तुम INTUC के General Council में चुने गए हो, क्या उनके प्रति तुम्हारे हृदय में वही धारणा है जो तुम्हारी माँ को तुम्हारे प्रति है?" मैंने ईमानदारी से कहा कि, नहीं। तब उन्होंने हँसकर कहा, इंटक के जनरल काउंसलीर हो सकते हो, भगवान की कौंसिल में अभी नहीं। सभी क्षेत्रों के उनके में स्पष्ट विचार थे।"

दोष गलतफहमी फैलाने वालों का

मुझे एक प्रसंग का स्मरण होता है। एक कम्युनिस्ट-साम्यवादी नेता प्रो. हीरेन मुखर्जी के साथ बातचीत हो रही थी और जब मैंने उनको कहा कि Property-संपत्ति के विषय में हमारी यह भूमिका है, यावत् जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम। अधिक योणिभमन्येत सस्तेनोदंडमर्हति अपने शरीर की आवश्यकतानुसार जो जितना अनाज अपने उदर में लेता है इतनी ही संपत्ति धारण करने का उसे अधिकार है।

सभी लोग यदि हृदय में धर्म के संस्कार ग्रहण करते हैं, तो शासन विहीन या न्यूनतम शासनयुक्त समाज रचना का निर्माण उनके लिए संभव होता है। श्री भीष्माचार्य ने कहा, "धर्मेणेव प्रजा सर्वेः रक्षन्तिस्म परस्परम्। धर्म के ही सहारे सब एक दूसरे की रक्षा करते थे। यह धर्म का, समष्टि का, एकांगी भाव का यानि धार्मिकता का संस्कार व्यक्ति के हृदय में अंकित करना, यही सही अर्थ में Anarchism की या न्यूनतम शासनयुक्त समाज रचना की पूर्व तैयारी है।

शासन विहीनताः हिंदू आदर्श

यहाँ यह दोहराने की आवश्यकता नहीं कि धर्म यानी Religion नहीं, धर्म यानी Universal Laws; और उनके प्रकाश में समय-समय पर की गई समाज रचना। श्री गुरुजी जिस आध्यात्मिक Order के थे उसी Order की एक श्रेष्ठ कार्यकर्त्रि Margaret Noble उपाख्य Sister Nivedita ने कहा है, "Hinduism is a fragment in a vast social industrial economic scheme called 'Dharma'. As man may well and rightly be the servant of 'Dharma' even without calling him self a Hindu"- न्यूनतम शासन की समाज रचना धर्म के आधार पर हो सकती है। यह एकमेव सनातन शास्त्रीय समाज है। यानी अति पुरातन होते हुए भी अति नूतन, अतः सनातन।

श्री गुरुजी राष्ट्रहित का सभी पहलुओं से विचार करते थे। एक स्पष्ट चित्र उनके सामने था। सरकार के बारे में, वे उसे राष्ट्र कार्य का ..साधन मात्र समझते थे। सभी राजनैतिक दलों को समान दृष्टि से देखते थे। राष्ट्र के प्राचीन आत्मा की जो प्रतिक्रिया सरकार के किसी नीति और कार्य के विषय में किसी भी समय होती थी, वही प्रतिक्रिया उनकी होती थी। न तो उन्हें प्रेम था, न विद्वेष। जो बातें राष्ट्रहित की होती थीं, उनकी प्रशंसा, और राष्ट्रहित के विरुद्ध थीं, उनकी आलोचना करते थे।

जब भारत स्वतंत्र होने लगा, उस समय हमें मालूम है कि महात्मा जी ने श्री गुरुजी को बुलाया और कहा कि हमको तुम्हारा समर्थन प्राप्त होना चाहिए । श्री गुरुजी ने Law and order कायम रखने के लिए without reservations पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। जब देश के विरोधी लोगों के द्वारा दिल्ली में शासन पलटने का षड्यंत्र चल रहा था, तब सरदार बल्लभभाई पटेल को कहा और देश को बचाया। पूज्य महात्मा जी ने 11 सितंबर को गुरुजी से बातचीत की थी।

सरकार: राष्ट्रकार्य का साधन मात्र

जिस समय संघ पर प्रतिबंध लगा। उस समय शासन के प्रमुख नेता के साथ जो पत्र व्यवहार हुआ वह हमारे सामने स्पष्ट रूप से है। वास्तव में घोर अन्याय हुआ था। कुछ दोष नहीं था। तो भी जानबूझकर Party Politics के कारण संघ को उसमें (involve) समाविष्ट किया गया। उस पत्र-व्यवहार में विरोध की छाया भी नहीं थी। उल्टे विशाल हृदय को धारण करते हुए प. जवाहर लाल जी को पत्र में लिखा कि हम सबको मिलकर राष्ट्र का निर्माण करना है। शासकीय क्षेत्र में आपका कार्य राष्ट्रहित, सांस्कृतिक क्षेत्र में हमारा कार्य, दोनों अपने अपने ढंग से राष्ट्र के निर्माण का प्रयास करें, और दोनों में co-ordination स्थापित करें, उसी में राष्ट्र का हित निहित है। उस समय किसी भी सामान्य व्यक्ति के हृदय में बदले की भावना आ सकती थी। प्रतिबंध की अवधि में जो अन्याय संघ पर हुआ, उसके कारण Righteous indignation मन में आना अत्यंत स्वभाविक था। इतने कष्ट सहने पड़े। अकारण जानबूझकर अन्याय के फलस्वरूप। किंतु श्री गुरुजी ने उस समय अपने विशाल हृदय का, सच्चे राष्ट्रवाद का परिचय दिया। जगह-जगह उन्होंने कहा, जो हुआ सो हो गया, सरकार भी अपनी ही है। जिह्वा भी अपनी और दंत भी अपने। अब तो ' वयम् पंचाधिकं शतम्'

Not to destroy (बर्बाद करने के लिए नहीं)

और एक जगह इसी तरह एक अहिंदू के साथ बात चल रही थी उसने पूछा, संघ के न होने के कारण लोगों का क्या नुकसान होगा? बहुत कुछ तो गुरुजी ने नहीं कहा। केवल इतना कहा, आप एक बात याद रखिए। have come to fulfil, not to destroy."

अब यह सारे वाक्य जो स्वाभाविक रूप से उनके मन में आते थे यह किस प्रकार का मन था, कितना विशाल मन था उसका परिचायक है। तरह तरह की भ्रांतियाँ उनके बारे में हैं, उनको दूर करना और उनका सच्चा दर्शन लोगों को कराना यह अब हमारा उत्तरदायित्व है और उसको पूरा करने की शक्ति वे देंगे ऐसा हमें पूरा विश्वास है। आज उनकी मृत्यु के बाद विभिन्न लोगों के द्वारा जो बातें आ रही हैं, यह आश्चर्यजनक है।

निर्विवाद श्रेष्ठत्व

एक कटटूर संघ विरोधी साप्ताहिक ने अपने Editorial में जो श्रद्धांजलि दी, उसमें उनके जीवन का जो वर्णन है, वह इतने अच्छे शब्दों में है कि मैं आश्चर्यचकित रह गया। इससे यह सैद्धांतिक रूप से स्पष्ट हो जाता है कि किसी को मतभेद भले ही हो, परंतु उनके व्यक्तित्व का जो श्रेष्ठत्व है, सभी लोगों ने उसे स्वीकार किया, विरोधियों ने भी उनकी मृत्यु के पश्चात् यह स्पष्ट होता है। वैचारिक मतभेद रहना चाहिए यह भी श्री गुरुजी कहते थे। हम Unity चाहते हैं उसका मतलब यह नहीं कि हम Uniformity of thought चाहते हैं। सबके विचार समान हों ऐसा हमारा मतलब नहीं। अलग-अलग वातावरण है अलग-अलग स्तर पर लोग खड़े हैं, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक रूप से हर तरह का अलग-अलग विचार हो सकता है। विचारों में वैशिष्ट्य भी होना चाहिए । लेकिन सारी विविधताओं को कायम रखते हुए जो भी कुछ common features हैं, common बातें हैं जैसा कि मातृभूमि के प्रति ऋण, इन बातों पर एकमत होना चाहिए । इस तरह 'Unity पर diversity' ही उनका विचार था। और कई बातों पर लोगों ने उनके साथ मतभेद रखे होंगे। उनमें असंतोष की बात नहीं थी, दुख की बात नहीं थी; लेकिन उनकी मृत्यु के बाद जिस ढंग से यह सारी प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं, प्रत्यक्ष विरोध करने वाले लोगों पर भी उनकी तपश्चर्या और व्यक्तित्व की जो छाप उनके हृदय पर है, हमारे सामने प्रकट हो जाती है।

A Barrier (अवरोध)

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का कार्य तथा श्री गुरुजी का कार्य परस्पर पूरक होता तो अच्छा होता ऐसा विचार मन में था। एक बार बाबा के साथ यह बात छिड़ी। उन्होंने हँसकर कहा, देखो, तुम बच्चे हो। समझते नहीं। मेरी बात समझने की कोशिश करो।" Between the scheduled castes and communism, Ambedkar is the barrrier; between the rest of the society and communism, Golwalkar is the barrier." पू. बाबा साहेब के इस वाक्य को समझना राष्ट्र की दृष्टि से आवश्यक है।

यह बात उल्लेखनीय है कि विश्व बौद्ध महासभा के प्रधान मान्यवर U Chan Thant जब भारत में आए थे तब उनकी श्री गुरुजी के साथ प्रदीर्घ वार्ता हुई थी और दोनों में एक मत हो गया था कि जंबूद्वीप में (S.E.Asia) सनातन धर्मियों की एकता प्रस्थापित होनी चाहिए, सनातन धर्म के आधार पर। जैन मत के स्याद्वाद के वे कट्टर प्रशंसक थे। विश्व हिंदू परिषद् के कार्य में जैन तथा बौद्ध आचार्यों को प्रविष्ट कराने में उनके व्यक्तित्व का बहुत हाथ रहा है।

In course of his very first visit to Calicut he so impressed the people that one of them (Shri P. K. M. Raja, an Advocate) remarked, "He is the highest personality of the mightiest Hindu organisation is his least qualification."

Blessings of Both (दोनों के आशीष)

Some zone had said, It is significant that he served and attended upon both, Swami Akhandanandji and Dr. Hedgewarji in their last sickness. Did his work indicate the happy blending of the blessings of both? From Akhandanandji he inherited among other things his 'KAMANDALU'; from Doctorji, the responsibility of Sarsanghchalakship. He acquitted himself in the most creditable way in case of both these charges. Needless to add that his power of concentration, inspite of physical ailment or circumstantial diversion was proverbial.

He treated all his followers as his friends, and all his friends became voluntarily his followers.

Of Julius Caesar, it is recorded that he could call every one of his thousands of soldiers by his first name. Shri Guruji could do this in case of lakhs of his friends and followers. A Nagpur Daily, which often indulged in criticism of R. S. S.,wrote in its leading article after his death that this became possible N not merely due to his memory which was certainly extraordinary, but to the deep affection he felt for every one who came in his contact.

आध्यात्मिक भूमिका

उनका जीवन हमने देखा है। पार्थिव शरीर के नाते वो हमारे बीच में नहीं हैं। लेकिन उनका जो यह संपूर्ण जीवन है, वह हमें मार्गदर्शन कर रहा है। ऐसा अखंड परिश्रमी कोई व्यक्ति नहीं जिसने इतने लम्बे अरसे तक लगातार इतना परिश्रम किया हो। सारा कार्य करते हुए भी अहंकार को कभी भी अपने मन में नहीं आने दिया। प्रसिद्धि की भी कभी लालसा नहीं रखी। यह कितनी बड़ी बात है, इसका हम विचार करें। उनसे कम कर्तृत्व करने वाले लोग भी दौड़ जाते हैं अखबारों के पास और रेडियो के पास, कि 'हमारा नाम क्यों नहीं आता?" श्री गुरुजी ने कभी भी अपने नाम की परवाह नहीं की। वह प्रसिद्धि की लालच जिसे एक अंग्रेज कवि ने कहा Last spur of the noble mind, कार्य प्रवृत होने के लिए उसके भी उपर, एक आध्यात्मिक भूमिका होने के कारण गुरुजी उठ सकते थे। इसलिए कि उनका मन आध्यात्मिक था, उच्च श्रेणी का था और इसी कारण जैसे एक मराठी कवि ने कहा है,

"फूलें कुणाल वहायची तर पुढे समाधि बराबरी

झर झर झर झर वाट चालतो तिथेंच त्याची वाट पहा।

यदि आप किसी को फूलों की माला अर्पण करना चाहते हो तो वह माला आप उसकी समाधि पर ही अर्पण कीजिए, वह बड़ी तेजी के साथ अपनी समाधि की ओर आगे बढ़ रहा है, आप वहीं उसकी प्रतीक्षा करें।

फूल चढ़ाने की जगह भी न दी

जिस समय श्री गुरुजी का महानिर्वाण हुआ, यह कविता मुझे स्मरण हुई, लगा कि इस प्रसिद्धि परांडगमुख महापुरुष ने, जिसने इतनी तेजी से सारा कार्य किया है, शायद मन में यही कहा होगा। किंतु जब श्री गुरुजी का एक अंतिम पत्र पढ़ा गया तो उसमें उनकी समाधि न बनाने का आपने आदेश दिया है। जीवन काल में तो सम्मान को स्वीकार किया ही नहीं, मृत्यु के पश्चात् समाधि पर भी फूल चढ़ाने का अवसर किसी को प्राप्त ही न हो यह भी व्यवस्था उन्होंने की।

Saint in hurry

उनका तेजी से चलने का ढंग हम सबने देखा है। वे बड़ी फुर्ती से चलते थे। मानो उनकी जो क्रियाशीलता थी उसी का प्रतिबिंब उनके चलने में प्रकट होता था। Saint Francis of Arsissi के बारे यहाँ तक कहा जाता था कि, "He was a Saint in hurry".

 

How Lovely Light!

शरीर बहुत अस्वस्थ है। यह जानते हुए भी वे यही बात कहते थे। कैन्सर के ऑपरेशन के पश्चात् जिस ढंग से उन्होंने तेजी के साथ प्रवास तथा कार्यक्रम प्रारंभ कर दिए, उनसे यह लगता था कि उन्होंने अपने मन ही मन भक्त हनुमान की तरह संकल्प किया होगा। भक्त हनुमान ने कहा- "रामकाज कीन्हें बिना अब मोहे कहाँ विश्राम" इसी तरह शायद श्री गुरुजी ने कहा- राष्ट्रकाज कीन्हें बिना अब मोहे कहाँ विश्राम।" अविश्रांत परिश्रम करते करते उन्होंने देह त्याग किया। जैसे आगे कहा, वे अपनी मोमबत्ती दोनों ओर से जला रहे थे। इस संदर्भ में मुझे एक अंग्रेजी कविता स्मरण हो रही है। जिसमें ठीक वो ही भाव निहित है, जो श्री गुरुजी के मन इस विषय में होगा। पंक्तियाँ ऐसी हैं।

" My candle burns at both ends,

It shall not Last the night;

But O'My foes and O'My friends,

How lovely is the light!"

हमसे दूर भी , पास भी

कई बार ऐसा कहने की पद्धति है कि सूर्य नारायण अब डूब गया अब अन्धेरा हो गया। शायद हमारे भी मन में ऐसे विचार आते हों। लेकिन हमारे सभी स्वयंसेवक बंधुओं को एक बात कहना चाहता हूँ कि अपने एक क्षेत्र प्रमुख मा. श्री बापुरावजी मोघे और श्री गुरुजी की अंतिम बीमारी के दिनों में उनके पास बैठे थे। उन्होंने कहा कि भगवान जिन महान आत्माओं को किसी न किसी जीवन कार्य को देकर भेजता है इस धरती पर उनका जीवन कार्य यदि पूरा नहीं हुआ और बीच में ही देहत्याग करना पड़े तो उन्हें मोक्ष प्राप्त न करते हुए उनका जो जीवन कार्य अधूरा छूट गया हो उसे पूरा करने की दिशा में प्रयत्नशील रहने के लिए भगवान कहता है, और जो लोग उसी कार्य को उठाए हुए हैं उन्हें प्रेरणा, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन देकर उसे पूर्ण करने का कार्य वे महान आत्माएँ अशरीर अवस्था में भी करती स्वामी विवेकानंद जी ने शरीर त्याग दिया था, किंतु महर्षि अरविंद ने ऐसा लिख रखा है कि जब वे जेल में थे और उनके जीवन का संदेश भगवान उनको दे रहा था उस समय योग की दीक्षा स्वामी विवेकानंद ने अशरीर अवस्था में ही वहाँ आकर दी। जब कि स्वामी जी ने तो कुछ वर्ष पूर्व ही देह का त्याग किया था, तब भी स्वामी जी यहाँ थे और उन्हें योग की दीक्षा देते थे। तो इस तरह महान आत्माओं का जीवन कार्य पूर्ण होने तक वे कार्यरत ही रहती हैं और जीवन कार्य पूर्ण होने के उपरान्त ही मोक्ष प्राप्ति की अनुमति उन्हें मिलती है, पहले नहीं। यह बात श्री गुरुजी ने स्वयं कही है। मैं समझता हूँ कि जैसे कोई खास प्रसंग न था, शायद हम लोगों को मार्गदर्शन करने की दृष्टि से ही यह बात उन्होंने कही होगी।

 

अंधेरा नहीं

लेकिन यदि इस दृष्टि से भी देखा जाए तो सभी स्वयंसेवकों को, सभी कार्यकर्ताओं को इस बात का विश्वास हो जाता है कि श्री गुरुजी का पार्थिव शरीर नष्ट हुआ होगा, लेकिन उनकी आत्मा हमारे साथ है जब तक उनका जीवन कार्य पूरा नहीं होता, तब तक हम सब लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए जैसे पहले, वैसे आज भी प.पू. गुरुजी हमारे बीच में ही हैं। यह विश्वास हम सब लोगों को शरीर का बंधन था इसलिए मन में चारों ओर भले ही रहते थे लेकिन शरीर स्थानबद्ध था, किसी एक ही स्थान पर रह सकता था। यह जो शरीर बंधन था वह अब हट गया, और इसलिए उनकी अशरीर आत्मा हम सभी स्वयंसेवक बंधुओं के साथ एक ही समय रह सकती है। यह भी एक बात हम लोगों के ध्यान में आ सकती है और इसी दृष्टि से सर्वसाधारणतया कहा जाता है कि अब अंधेरा हो गया ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं।

पुनः डॉक्टरजी

उन्होंने जो अंतिम व्यवस्था हमारे लिए रखी है वह भी खूब सोच समझकर ही रखी है। वह हम सब लोगों के लिए ठीक रहेगी। हमें कोई संदेह नहीं। नए सरसंघचालक के नाते मा. श्री बालासाहब देवरसजी की नियुक्ति प.पू. श्री गुरुजी ने अपने अंतिम पत्र में की है। प. पू. गुरुजी ने मा. बालासाहेब के विषय में पूना संघ शिक्षा वर्ग में परिचय दिया, आप में से कुछ स्वयंसेवकों ने संघ निर्माता, प्रतिष्ठाता, संस्थापक प.पू. डॉक्टर जी को नहीं देखा तो उनके मन में वह इच्छा अधूरी रही होगी। प.पू. डॉक्टर जी का दर्शन कैसे होगा, अब तो हो नहीं सकता। उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं। यदि किसी को भी यह देखना है कि प.पू. डॉक्टर जी कैसे थे, उनका व्यवहार कैसा था? तो मैं कहता हूँ आप मा. बालासाहेब की ओर देखिए, आपको पू. डॉक्टर जी का पूरा दर्शन हो जाएगा।

मैं नहीं , तू ही

महानिर्वाण के पूर्व प.पू. गुरुजी ने हमारे लिए कौन सी वसीयत छोड़ी है यह जानना भी उचित होगा। श्री गुरुजी की अंतिम यात्रा के समय पढ़े गए तीन पत्र और उनका ठाणे संघ शिविर का भाषण हमारे लिए उनकी वसीयत है। ये उनके Public Testaments हैं। जैसे नेपोलियन का सेंट हेलेना के टापू से बंदी अवस्था में अपने पुत्र को लिखा पत्र एक Political Testament माना जाता है, जैसे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी का काठमांडू का भाषण उनके Public Testament की योग्यता रखता है, इति शिवम्।

(श्री चंपकलाल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका 'नवदधीचि' 66 चौड़ा पुल, सूरत -1. प्रकाशन ति. रक्षाबन्धन, वि. सं. 2029)

आत्मविलोपी तपःपूत व्यक्तिमत्व

-मा. मोरोपंत जी पिंगले (सत्कार समारोह)

दत्तोपंत ठेंगड़ी

(जिन महापुरुषों ने राष्ट्रहित में ध्येय समर्पित जीवन जिया है अधिकांशतया वे आत्म विलोपी वृत्ति के थे। वे स्वयं की प्रसिद्धि नहीं अपितु कार्य की प्रसिद्धि चाहते थे। कार्य यशस्वी हो इसी उद्देश्य को लेकर वे अविश्रान्त जीवन पर्यन्त अविचल ध्येय पथ पर अग्रेसर रहे। ऐसे श्रेष्ठ महापुरुषों में रा.स्व.सेवक संघ के ज्येष्ठ श्रेष्ठ प्रचारक श्री मोरोपंत पिंगले का नाम आता है। उनकी आत्म विलोपी वृत्ति का श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने मोरोपंत जी पिंगले सत्कार समारोह में सुन्दर विवेचन किया है। उक्त व्याख्यान में जैसा गौरवगान श्री ठेंगड़ी जी ने श्री पिंगले जी कां आत्मविलोपी वृत्ति के संदर्भ में किया है वह स्वयं उन पर भी अक्षरशः लागू होता है। आत्मविलोपी महापुरुषों की मालिका में मा. ठेंगड़ी जी का भी नाम आता है। उक्त दृष्टिगत् प्रस्तुत व्याख्यान अत्यंत प्रेरक एवं मार्गदर्शक है....सं.)

मोरोपंत जी के गौरव समारोह में यद्यपि आज मैं सहभागी हो रहा हूँ. फिर भी कृपया ऐसा न समझिए कि मैं भी उन्हीं के समान पुराना और अच्छा स्वयंसेवक कार्यकर्ता हूँ। ऐसी अगर कोई कल्पना करता होगा तो मुझे एक दृष्टि से आनंद होगा कि स्वयं असत्य कथन न करने पर भी मेरे विषय में अगर ऐसा संभ्रम फैलता होगा तो वह अच्छा ही है। लेकिन सच बात तो यह है कि मैं इतना पुराना और सच्चा कार्यकर्ता नहीं हूँ। हमारे छोटे से गाँव में दो शाखाएँ चलती थीं। लेकिन मैं जब हाईस्कूल में था तब 'ज्यादा बुद्धिमान्' था। अत: शाखा में जाने की गलती मैंने कभी नहीं की। हमारे बाबूराव पालधीकर नाम के शिक्षक कभी कभी पास की शाखा में जानबूझकर ले जाते थे, तब मैं शाखा में जाता था। किंतु स्वयं होकर कभी नहीं गया।

मुझे स्मरण है कि उस समय मैं और मेरे कई मित्र बाबूराव पालधीकर के आने पर उन्हें कैसे टालते थे, कौन सी चाल चलने से उन्हें टाला जा सकेगा, इसके लिए ही बुद्धि का उपयोग करते थे। उस समय शंकर राव उपासभामा तोल्हारी नाम के एक उत्कृष्ट कार्यकर्ता उस शाखा के लिए मिले थे। वे जब शाखा का उत्कृष्ट कार्य करते थे तब हम पालधीकर जी को टालने हेतु क्या करना है, इस बारे में विचार करते थे। आगे महाविद्यालय की पढ़ाई के लिए मैं नागपुर आया। मेरा और मोरोपंत जी का महाविद्यालय एक ही था। 'मॉरिस' नाम का। हमारा मॉरिस कॉलेज उन दिनों का बड़ा प्रगतिशील और रोमांटिक ऐसा माना जाता था। मेरा शाखा में न जाने का रवैया वहाँ भी मैंने चालू रखा था। हमारे कॉलेज में ऐसे जो शाखा में न जाने वाले रोमांटिक युवक थे उनका एक ग्रुप हुआ करता था और कभी टहलने जाना, पिक्चर जाना, ऐसी प्रगतिशील बातें हम करते थे। टहलते समय उन दिनों यदि रास्ते के बाजू में शाखा चलती दिखाई देती तो हम बड़ा अशिष्ट आचरण करते थे। परस्पर की ओर देखकर हम विविध प्रकार के भाव प्रकट करते थे। इन्हें बुद्धि नहीं इसलिए ये दंड (लाठी) चला रहे हैं', ऐसी बात विभिन्न प्रकार के चेहरे के हाव भाव (नाट्याभिनय) कर हम बताते थे। हम जब ऐसा आचरण करते थे तब उन दिनों में मोरोपंत शाखा चलाते थे। यानि उनमें और मुझमें कितना अंतर है यह आपके ध्यान में आएगा। फिर भी अगर लोग यह समझेंगे कि मोरोपंत जैसा पुराना और अच्छा स्वयंसेवक कार्यकर्ता मैं हूँ, तो मुझे आनंद होना स्वभाविक नहीं होगा क्या?

मोरोपंत और मैं... हम जब कॉलेज में एकत्र थे तब भी वे शाखा के कर्मठ कार्यकर्ता और हम प्रगतिशील, ऐसा ही था। शाखा में जाने वाले हमारे स्वयंसेवकों की मानसिकता की ओर हम बहुत चिकित्सक वा क्रिटिकल दृष्टि से देखते थे। उनमें कुछ सदस्य महाकर्मठ थे। हम लोगों से बात करते समय उनके मन में हमारे प्रति एक तुच्छता का भाव रहता था कि ये गैर जिम्मेवार हैं. इन्हें देश के बारे में कोई चिंता नहीं। जिस अंग्रेजी भाषा में होलिअर-दन-दाउ एटिव्यूड ऐसा कहा जाता है। ऐसी उनकी मनोवृत्ति थी। हम आपसे बहुत अधिक पवित्र हैं। ऐसा भाव जब उनके मन से प्रकट होता था तब उनके बारे में दूरत्व की भावना हमारे मन में तीव्र हो जाती थी।

उस समय मोरोपंत की विशेषता यह थी कि अन्यों के समान वे कर्मठ थे फिर भी हमारे ग्रुप के लोगों से वे मिलते थे और जब हम लोगों के साथ वे रहते तब हमारे समान ही व्यवहार करते थे। हमारे जो विषय रहते वे ही उनके भी रहते। हमारे समान वे भी हँसी मजाक करते थे। इसलिए हम लोगों से वे कोई अलग हैं ऐसा हमें कभी भी लगा नहीं। यह उनका गुण उस समय प्रकट हुआ और उनके इस प्रकार के आचरण से हमें लगने लगा कि मोरोपंत पिंगले सरीखा व्यक्ति अगर हमारे में पूर्णत: घुलमिल गए तो कोई हरकत नहीं। अनुभव लेकर देखें ऐसा सोचकर शाखा में जाने का विचार मन में आया 'अलौकित नोहावे लोकांप्राते, यहीं मोरोपंत के स्वभाव की विशेषता है।

तब से जो हमारे संबंध प्रारंभ हुए थे, वे बहुत दृढ़ हो गए। इतने दृढ हुए कि कॉलेज में हमने एकत्र पढ़ाई की (कंबाइंड स्टडी)। उन्हीं के घर उन्हीं के खर्चे से हम 'ब्रेकफास्ट' लेते थे और इतने निकट संबंधों के कारण हमने कभी भी गंभीरता से चर्चा नहीं की। एक-दूसरे की हँसी-मजाक उड़ाना, चेष्टा-कुचेष्टा, मसखरी इत्यादि मित्र के नाते हम करते आए हैं। अनेक बार मैंने यह देखा है कि हम दोनों एकत्र आए। तो सामने के स्वयंसेवकों को ऐसा लगता था कि ये श्रेष्ठ लोग बैठे हैं. कुछ तो भी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय वार्ता करने में मग्न हैं। किंतु प्रत्यक्ष में हम आपस मे हँसी-मजाक ही करते रहते थे। ऐसी हमारी मित्रता होने के कारण जब मोरोपंत के बारे में मुझे कोई पूछते हैं, तो मुझे भगवद्गीता का वह श्लोक याद आता है जो ग्यारहवें अध्याय में विश्वरूपदर्शन होने के बाद अर्जुन ने भगवान से कहा है कि "तू हमारा मित्र ही हैं, ऐसा समझकर हे कृष्ण, हे यादव, हे मित्र, मैंने तुझे तू कहकर बुलाया होगा, तेरी श्रेष्ठता कितनी बड़ी है; यह न जानते हुए शायद मेरी यह भूल हुई होगी अथवा प्रेम के कारण मैं भूल गया हूँगा, इसलिए मुझे माफ करना।"

अर्जुन ने जो उस स्थान पर कहा है, वैसे ही विचार मोरोपंत की ओर देखकर मेरे मन में भी उठते हैं। मोरोपंत का व्यक्तित्व याने एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व, लेकिन सदा ही वे श्रेष्ठ हैं इसकी सल (तपिश) हमें अनुभव नहीं हुई। चिड़िया के नाखून उसके पिलों को कभी घातक नहीं होते। वैसे ही उनके बड़प्पन की सल (तपिश) कभी भी स्वयंसेवक ने अनुभव नहीं की, यह जो उनकी विशेषता है उस दृष्टि से उनके जीवन का यदि हमने विचार किया तो मुझे ऐसा लगता है कि उसमें से सीखने लायक बहुत है।

उनके जीवन के विषय में बहुत सी जानकारी प्रसिद्ध हुई है। मैंने भी भिन्न भिन्न वृत्तपत्रों से, साप्ताहिकों से उनके जीवन के बारे में जानकारी पढ़ी है। मुझे भी थोड़ी जानकारी है। लेकिन बहुत सी बातें ऐसी हैं कि जो शायद बाहर प्रकट होगी भी नहीं। हम आपात्काल के समय एकत्र काम करते थे। उस समय उन्होंने जो कार्य किया वह तीस वर्षों के बाद ही प्रकट होने लायक हैं। क्योंकि गुत्था-गुत्थी वाली बहुत बातें उसमें थीं। अलग-अलग नेताओं से संबंध, भिन्न भिन्न अधिकारियों से संबंध.... जिनके बारे में आज कहा नहीं जा सकता ऐसी ये अनेक बातें हैं। इंगलैंड में एक ऐसी पद्यि है कि तीस वर्षों के बाद सरकार के पुराने रिकॉर्डस प्रकाशित किए जाते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि तीस सालों के बाद जिन बातों के रिकॉर्डस भविष्य में आ सकेंगे ऐसी बातें उनके हाथों से घटी हैं।

वैसे तो उनके कर्तृत्व के बारे में बहुत सी बातें सुनी हुई हैं। कब कहाँ संघ की विभिन्न जिम्मेदारियाँ उन्होंने सँभाली हैं यह हम सब जानते हैं। विश्व हिंदू परिषद् के उनके कार्य भी हमें मालूम हैं। हमें यह भी मालूम है कि हिंदुत्व का यह जो प्रभाव बढ़ा, हिंदुत्व के प्रभाव ने जो यह उड़ान ली है उसके मूल में इन्हीं की प्रतिभा है। शिलापूजन हो, कारसेवा हो, जो जो इस प्रकार के उपक्रम हुए उनमें कभी इनका नाम बाहर नहीं आया। इस कार्यक्रम के संयोजक कौन हैं, इसकी रचना, योजना किसने की है उनका नाम बाहर नहीं आया। परंतु, इन्हीं योजनाओं में से हिंदुत्व ने लंबी छलाँग लगाई है और ये सारी योजनाएँ मोरोपंत की प्रतिभा में से ही स्फुरित हुई थीं, यह हम सभी को मालूम है।

विश्व हिंदू परिषद् के माध्यम से उन्होंने किए हुए इन कार्यक्रमों के अलावा उन्होंने अन्यान्य अनेक संस्थाओं को जन्म दिया है, व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया है। उनके कार्य की व्याप्ति कल्पनाओं की मर्यादाओं में नहीं सिमट सकती। कोई ऐसा न माने के हमें मोरोपंत के जीवन चरित्र की पूर्णतः जानकारी है। वह संभव नहीं क्योंकि उनकी प्रतिभा बहुत श्रेष्ठ है। उन्होंने सैकड़ों लोगों को कार्य करने की प्रेरणा दी। हजारों लोगों का मार्गदर्शन किया है। सैकड़ों परिवारों में वे कुटुंब प्रमुख के नाते माने जाते रहे, इसकी जानकारी महाराष्ट्र के लोगों को पहले से ही है और बाहर के लोगों को अभी ज्ञात हुई है। इस प्रकार के व्यक्तित्व के बारे में, चरित्र के विषय में अपने को कभी न कभी पूरी जानकारी मिलेगी ऐसा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वे स्वयं कभी नहीं बताएँगे और प्रत्येक को उनके कर्तृत्व के एक दो या तीन ऐसे कुछ ही आयामों के बारे में जानकारी हो सकती है। उनके कर्तृत्व के सभी आयामों के बारे में संपूर्ण जानकारी रखनेवाला एक भी व्यक्ति इस देश में तैयार होना यह एक बड़ी असंभव बात है। इतने आयाम उनके कर्तृत्व के हैं। अंग्रेजी में एक वाक् प्रचार है, 'स्काय इज द लिमिट'। मर्यादा (सीमा) कौन सी. आकाश यही मर्यादा (सीमा) है। वे स्वतः होकर कभी किसी को बताएँगे नहीं क्योंकि ऐसा बताना अपनी परंपरा में बैठता नहीं।

मुझे याद है कि आपात्काल में अशोक मेहता जी के पास मुझे जाना पड़ता था। भूमिगत होने के कारण त्वरित जाना आना संभव नहीं होता था क्योंकि गुप्तचर लगे रहते थे। इसलिए थोड़ा रुकना पड़ता था। उस समय वे अपनी पुरानी घटनाएँ बताते थे। एक बार मैंने उनको कहा कि 'अशोक भाई, आप अपना चरित्र लिखिए। आत्म चरित्र लिखने से नई पीढ़ी को जानकारी मिलेगी, मार्गदर्शन होगा।' उन्होंने मेरी ओर तुरंत कटाक्ष किया और बोले, 'मिस्टर ठेंगड़ी यू आर आर.एस.एस. ऑर्गेनाइजर!' मैंने 'हाँ' कहा। किंतु उसका इससे क्या संबंध है? ऐसा मेरे कहने पर वे बोले, 'संबंध है, अपनी परंपरा में यह बैठता है क्या? वेदों की इतनी ऋचाएँ हैं किंतु उनके कर्ता ऋषियों का चरित्र कहाँ किसी ने लिखा है? उन्होंने आत्म चरित्र लिखा है क्या? अपनी ऐसी परंपरा है कि हम अपना जो श्रेष्ठ कर्तृत्व होगा वह समाज-चरणों में अर्पण करना और इस जगत् से विदा लेना। अशोक मेहता जी से मैंने जब यह सुना तब मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। श्री गुरुजी के मुँह से यदि सुना होता तो आश्चर्य नहीं होता, पर अशोक मेहता ऐसा कुछ बोलेंगे यह सोचा नहीं था। कहने का तात्पर्य यह है कि मोरोपंत अपना चरित्र स्वयं तो नहीं लिखेंगे और उनके सब आयामों के बारे में जानकारी रखनेवाला एक भी मनुष्य मिलेगा नहीं।

किंतु इस व्यक्तित्व के मूल्यांकन के बारे में भिन्न-भिन्न लोगों की अलग अलग कल्पनाएँ उभर कर आ सकती हैं। हम दोनों का मित्र जैसा संघ में है वैसा ही संघ के बाहर भी है। इसलिए सबके साथ बोलने का प्रसंग आता है। चर्चा हुई उस समय एकात्मता यात्रा हो चुकी थी। शिलापूजन के निमित्त से विदेशों से भी शिलाएँ आना प्रारंभ हो चुका था और यह कल्पना मोरोपंत की है यद्यपि सबको मालूम नहीं हुआ था कि फिर भी निकट के लोगों को यह मालूम था। तब वे मेरे और मोरोपंत के मित्र बोले, 'यह कल्पना मोरापंत की है ऐसा कह रहे हैं तो क्या यह सत्य है? मैंने 'हाँ' कहा। तब वे बोले, 'यह तो विश्व हिंदू का काम है। हिंदुत्व और मोरोपंत ने यह कार्य हाथ में लिया याने हमने क्या यह समझ लेना चाहिए कि मोरोपंत धार्मिक व्यक्ति हैं? मैं चुप रहा। वे बोले, 'मेरे मन में उनका यह कार्य देखकर एक प्रश्न आया, आप उसका सच उत्तर देवें, क्योंकि मोरोपंत स्नान, संध्या, ध्यान, धारणा, पूजा, अनुष्ठान आदि कुछ करते हैं क्या?' मैंने कहा, 'मैंने तो देखा नहीं करते भी होंगे चुपचाप, पर मैंने देखा नहीं।' फिर वे बोले- यह धार्मिक व्यक्ति है ऐसा इन्हें कैसे कहा जाएगा? संघ का प्रचारक, संघ का कार्यकर्ता इस नाते मोरोपंत का व्यक्तित्व उसका मर्म जिसने संघकार्य को समझा, डॉ. हेडगेवार का कार्य समझा है, उसी के समझ में आ सकता है। जिसने संघ और परमपूज्य डॉ. हेडगेवार का जीवन समझा नहीं है उसे मोरोपंत का जीवन, व्यक्तित्व और प्रचारकों के व्यक्तित्व का आकलन होना बहुत कठिन है। इसलिए मैंने चुप्पी साधी। मैंने चुप्पी साधी देख वे बोले, आप कुछ भी कह लो, आपके मोरोपंत पिंगले इज अॅन एनिग्मा एक अनाकलनीय व्यक्तित्व है।' मैंने कहा, 'ऐसा नहीं।' हम सब को पता हैं कि विश्वामित्र और अन्य ऋषियों ने जो यज्ञ किया वह धर्म ही था। किंतु यज्ञ ध्वस्त करने वाले राक्षसों को रोकने के लिए राम और लक्ष्मण धनुष-वाण लेकर गए। उन्होंने यज्ञ नहीं किया। लेकिन यज्ञ की रक्षा हेतु अगर वे धनुष-वाण लेकर गए तो राम और लक्ष्मण का कार्य उतना ही धार्मिक कार्य है और राम लक्ष्मण को भी उतना ही धार्मिक माना गया है। बाहर के व्यक्ति को यह समझ में आना सहज नहीं है। संघ के बारे में पूर्व में यही प्रश्न थे। यहाँ स्नान, संध्या सिखाते हैं क्या? गायत्री मंत्र सिखाते हैं क्या? ध्यान धारणा करते हैं क्या? कुछ भी करते नहीं होंगे तो इन्हें हिंदू धर्म रक्षक कैसे कहना? यह प्रश्न संघ में भी पहले कुछ लोगों ने उपस्थित किया।

हमने यह समझ लेना चाहिए कि धर्म का संरक्षण याने धर्म का पालन नहीं। धर्म का पालन श्रेष्ठ तो है ही। इसीलिए शंकराचार्य, अन्यान्य संत, बल्लभाचार्य, महामंडलेश्वर आदि सभी का अपना एक स्थान है। उसी प्रकार से धर्म संरक्षण में ये जो लोग हैं जैसे अशोक सिंहल हों. मोरोपंत पिंगले हों, इनके भी अपने अपने स्थान हैं, उन्हें उस दृष्टि से धार्मिक पुरुष कहना चाहिए। यदि राम-लक्ष्मण धार्मिक होंगे, यज्ञ का संरक्षण करते होंगे तो ये लोग भी उतने ही धार्मिक हैं। ऐसा यदि हमने कहा तो भी उसे कितना समझा होगा, मान्य हुआ होगा, यह कह नहीं सकते। किंतु उसका वाक्य मेरे ध्यान में रह गया कि मोरोपंत पिंगले इज अॅन एनिग्मेटिक पर्सन (enigmatic person) अनाकलनीय व्यक्तित्व है। वह प्रचारकों की विशेषता ही है। बाहर का व्यक्ति इसे समझ नहीं सकेगा। मा. बाबासाहेब आप्टे, मा. दादा साहब परमार्थ.. .प्रचारकों के सबके नाम लेना हो विष्णुसहस्त्रनाम से भी बड़ी मालिका तैयार होगी। उन सभी ने बहुत कार्य किया किंतु प्रसिद्धि के पीछे वे दौड़े नहीं। संस्था को जो थोड़ी बहुत प्रसिद्धि आवश्यक होती बस उतनी ही। लेकिन प्रसिद्धि की आस न रखते हुए शांति से परदे के पीछे रहकर कार्य करना दूसरों को आगे करना उन्हीं को श्रेय देना यही उन सब की मानसिकता रही है।

इस बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिंदुत्व का इतिहास यदि लिखा गया तो उसमें मोरोपंत पिंगले यह नाम स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। इतनी बड़ी उड़ान उनकी प्रतिभा के कारण संभव हुई है। फिर भी उन्होंने प्रसिद्धि की आस नहीं की। अन्यों को वह मौका दिया। इतना कार्य जहाँ पर किया है, वहाँ अपना कोई अखंड स्थान हो इसका आग्रह नहीं किया। धार्मिक जीवन हो अथवा राजकीय अपने जहाँ-जहाँ काम करेंगे वहाँ-वहाँ तुरंत अपना एक गुट तैयार करना, अपनी नित्य चापलूसी करने वालों का एक गुट बनाना ऐसी एक सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है। किंतु मोरोपंत पिंगले ने ऐसा नहीं किया। विश्व हिंदू परिषद् का यह प्रचंड कार्य निःस्पृहता से छोड़ दिया और दूसरे कार्य की ओर बढ़े यह प्रचारक की विशेषता है। संघ की पद्धति में से यह आई है। पू. डॉक्टर जी के जीवन से आई इस मनोवृत्ति को ही 'आत्मविलोपी वृत्ति' कहते हैं।

लोगों को ऐसा जो लगता है कि शक्ति प्रसिद्धि के कारण निर्मित होती है यह सत्य नहीं है। कुछ क्षेत्रों में प्रसिद्धि आवश्यक होती है। यह यद्यपि सत्य है किंतु ध्यान में रखना होगा कि प्रसिद्धि के कारण एक माहौल मात्र बनता है। जो स्थायी नहीं रहता। अब क्लिंटन का ही उदाहरण देखिए। चुनाव के समय की उनकी इतनी सुंदर प्रतिभा बनाने का प्रयत्न हुआ कि वे राष्ट्राध्यक्ष पद पर चुनकर आए। लेकिन आज दो वर्ष बीतने पर उनकी लोकप्रियता का स्तर एकदम नीचे आ गया है। राष्ट्रनिर्माण के कार्य के समान कोई एक कार्य खड़ा करना हो तो प्रसिद्धि यह विश्वास की कसौटी हो नहीं सकती। इसके लिए आवश्यक है, प्रसिद्धि की जरासी भी आस न करते हुए. ध्येय प्राप्ति के लिए सवार होने वाले पागलपन से प्रेरित होकर, सालों साल कार्य में लगे रहने की प्रवृत्ति।

श्रीगुरूजी के निर्वाण के बाद उनके जो पत्र प्रसिद्ध हुए उनमें से एक पत्र में उन्होंने कहा कि 'मेरा स्मारक न बनाएँ।' सबको आश्चर्य हुआ। किंतु यह कोई एक क्षण में मन को सूचित करने वाला विचार था ऐसा नहीं। संपूर्ण जीवन भर में उनका यह विचार ओत-प्रोत भरा हुआ था। आपस में होनेवाले घरेलू बातचीत के समय मैंने तीन-चार प्रसंगों पर उन्हें एक अंग्रेजी कविता के माध्यम से आत्मविलोपी वृत्ति का वर्णन करते हुए सुना। अलेक्जेंडर पोप की कविता है 'Ode to Solitude' ऐसा उस कविता का नाम है उसमें एक कड़ी ऐसी है कि-

" Thus let me live unseen, unknown.

Thus unlamented let me die.

Steal from the world,

And not a stone to tell where I lie."

जगत् की दृष्टि में न आते हुए और जगत् को मालूम न होते हुए मुझे जिंदा रहने दो। मेरी मृत्यु भी ऐसी हो जिस पर कोई शोक न कर सकें यानि लोगों को पता ही न चले। जहाँ मुझे गाड़ दिया जाएगा वहाँ वैसा मालूम करा देने वाला पत्थर भी न रहे। ऐसा अलेक्जेंडर पोप ने कहा है। यह कविता मैंने पूजनीय गुरुजी को तीन-चार बार बहुत उद्धृत करते हुए सुनी है। ऐसी आत्मविलोपी वृत्ति होगी तो ही उसमें से प्रभावी संगठन निर्माण होगा।

मुझे एक प्रसंग याद आता है। बाबा साहेब आंबेडकर के अंतिम दिनों में उनके सहवास में रहने का योग आया। जो धर्मांतर हुआ, उसके पूर्व रात्रि में श्याम हॉटल में अपने कार्यकर्ताओं से वे बात करते थे और अनौपचारिक ऐसी बातें चल रही थीं। एक कार्यकर्ता ने पूछा कि, "बाबा हमने अपने जीवन में देखा है कि कई संस्थाएँ ऊपर उठती हैं और नीचे आती हैं ऐसा क्यों होता है। बाबा साहेब बोले कि " इस प्रश्न का उत्तर मैं कैसे दूँ? दो हजार साल पहले भगवान बुद्ध ने इस प्रश्न का उत्तर दिया है। सबको लगा कि यह 'स्लिप ऑफ टंग' है। कहीं तो भी बोलने में गलती से यह भूल हुई है। तो उदासीनता जहाँ होगी वहाँ काम बढ़ेगा। उदासीनता नहीं होगी तो काम गिरेगा। कुछ तो भी बोलने में गलती हुई ऐसा सबको लगा। बाबा के ध्यान में यह बात आई। वे बोले, 'भाई ऐसा है कि आप के मन की भावना मेरी समझ में आए किंतु यह 'स्लिप ऑफ टंग' नहीं। फिर वह भिन्न अर्थ क्या है? वे बोले, "एकाध काम नए सिरे से शुरू होता है। उस समय उस ओर कोई ध्यान नहीं देता। कुछ थोड़े लोग उसमें रस लेते हैं। वे काम करने लगते हैं तब अन्य लोग उदासीनता से देखते हैं। तुच्छता से देखते हैं। तब कुछ लोग निराश होकर वह काम करना छोड़ देते हैं। जबरदस्त विरोध होने से कुछ लोग काम छोड़ देते हैं। तथापि कुछ लोग जिद्द से तत्व निष्ठ, ध्येयनिष्ठ होकर काम को आगे चालू रखते हैं और देखते-देखते काम इतना बढ़ता है कि यश का शिखर सामने दिखने लगता है। जब तक यह यश का शिखर सामने आया हुआ नहीं दिखता, तब तक सब लोग स्वयं को भूलकर, आत्म केंद्रितता छोड़ पूर्ण ध्येयनिष्ठा से सतत काम करते रहते हैं। लेकिन जब यश का शिखर सामने दिखने लगता है तब मन विचलित होता है। और फिर बहुत लोगों के मन में ऐसी इच्छा निर्माण होती है कि यह जो यश है उसमें मेरा हिस्सा कितना, मेरे श्रेय का भाग कितना है? बाबा साहब ने उसका नाम दिया, 'क्रायसिस ऑफ क्रेडिट शेयरिंग'। मिलने वाली सफलता में कितना हिस्सा मेरा है, उस पर से स्पर्धा प्रारंभ होती है।

ऐसी स्पर्धा जब शुरू होती है उस समय संगठन के प्रमुख प्रणेता भी अगर उस स्पर्धा में दौड़ने लगे तो वह संस्था पतित होगी, नीचे आएगी । किंतु उन्होंने अगर श्रेय के हिस्से की उपेक्षा की तो फिर वह कार्य, वह संगठन वृद्धि किए बिना नहीं रहेगा। ऐसा बुद्ध के कथन का अर्थ था, इस प्रकार उन्होंने बताया। मुझे ऐसा लगता है कि संघ में जिसे हम आत्मविलोपी वृत्ति कहते हैं। उसका भी अर्थ यही है। इतने बड़े-बड़े काम किए तो भी श्रेय नहीं लेना।

प. पू. डॉक्टर जी के जीवन में हम क्या देखते हैं? 1925 में संघ प्रारंभ हुआ। संघ के प्रयत्नों के कारण ऐसी एक शक्ति निर्माण हुई गुट निर्माण हुआ, नियुक्लियस निर्माण हुआ। हिंदू समाज ने कभी न दिखाया होगा इतना साहस, दंगे के समय दिखाया। किंतु उसकी प्रशंसा जब बाहर होने लगी तो डॉक्टर साहब कहते थे कि कोई भी काम संघ ने नहीं किया हिंदू समाज ने किया। संघ याने हिंदू समाज, हम एक हैं। श्रेय नहीं लेना, यह जो आत्मविलोपी वृत्ति है उसका उत्कट आविष्कार मा. मोरोपंत में देखते आए हैं। अब उन्होंने लोगों के आग्रह के कारण कहिए अथवा विशेष परिस्थिति के कारण यह सम्मान स्वीकृत किया है। फिर भी उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगता है, यह मैं जानता हूँ। यह संघ की कार्यपद्धति में बैठने वाली बात नहीं है। किंतु कतिपय विशिष्ट कारणों से यदि मोरोपंत ने इसे स्वीकृति दी है तो उसके लिए हमने उनका आभार मानना चाहिए। उनके अनेक गुण हैं। कर्तृत्व के अनेक पहलू हैं। लेकिन सब स्वयंसेवकों ने, कार्यकर्ताओं ने जिन-जिन को राष्ट्र का गठन करना है। ऐसे सभी ने सबसे महत्वपूर्ण तथा ध्यान में रखने लायक बहुत महत्व का गुण है। वह याने यह आत्मविलोपी वृत्ति।

ऐसे आत्मविलोपी वृत्ति के लोग ही इतने लंबे समय तक अडिगता से, जीवटता से कार्य कर सकते हैं। यह आत्मविलोपी गुण हम में से प्रत्येक कार्यकर्ता स्वयं में अंगीकृत करने का निर्धारण करे यही मा. मोरोपंत जी का संदेश है, ऐसा मुझे कहना है। आत्मविलोपी होने से उत्कृष्ट संगठित शक्ति और उस शक्ति में से हिंदुत्व का परमवैभवशाली यश यही उनके जीवन का संदेश है। यह संदेश हम सब ध्यान में लाएँ।

( 'वीर वाणी' पत्रिका

दीपावली अंक 2003

बेलगांव, कर्नाटक)

राष्ट्रधर्म के ज्ञानमार्तण्ड-मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी

(पुण्य स्मरण)

गोविन्दराव आठवले

नागपुर

( एक समय मा. ठेंगड़ी जी की परछाई माने जाने वाले नागपुर के विख्यात अधिवक्ता तथा भा.म.संघ के पूर्व अखिल भारतीय मंत्री श्री गोविन्द राव जी प्रश्नोत्तर के माध्यम से श्री सुधीर पाठक को मा. ठेंगड़ी जी के व्यक्तित्व के बारे में जानकारी दे रहे हैं।)

प्रश्न:- दत्तोपंत ठेंगड़ी का व्यक्तित्व कैसे उभरकर आया?

उत्तर:- महाविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए ठेंगड़ी जी नागपुर में पूजनीय श्री गुरुजी के घर में निवासी थे। पू. गुरुजी की प्रखर तेजस्विता का प्रभाव ठेंगड़ी जी में दिखाई देता है। अपने निजी बर्ताव के कारण संस्था को कतई आँच न आवे इसके लिए ठेंगड़ी जी सदैव सतर्क रहे। श्री गुरुजी की योजनानुसार ठेंगड़ी जी को मजदूर संघ एवं आर्थिक क्षेत्र से संबंधित विभिन्न क्षेत्रों की जिम्मेदारी दी गयी और ठेंगड़ी जी ने इस सारी योजना को सही में सम्मान दिलाया।

प्रश्नः- उस समय साम्यवाद का बोलबाला होते हुए भी भा.म.संघ को टेंगड़ी जी ने ठीक उच्च स्थान कैसे दिलाया?

उत्तर:- वर्ष 1955 में भा.म.संघ की नींव भोपाल में रखने के बाद मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी नागपुर आए। आपने पत्र परिषद् ली। पत्रकारों ने पूछा आपकी यूनियनें कितनी हैं? पदाधिकारी कौन और कितने हैं। आर्थिक दृष्टि से आपकी याने भा.म.संघ की व्यवस्था कैसी रहेगी? ठेंगड़ी जी का जबाब था। फिलहाल मैं और परमेश्वर दो ही भा.म. संघ के सब कुछ हैं। किंतु पूरे विश्वास के साथ उन्होंने कहा कि थोड़े ही दिनों में साम्यवादी विचार को हम खतम करके रहेंगे। साम्यवादी लोगों को राष्ट्र शब्द से परहेज था। किंतु ठेंगड़ी जी ने राष्ट्र यह विचार मजदूर आंदोलन को दिया। उन्होंने साम्यवाद का सीमित दायरा सामान्य कामगारों के सामने लाकर साम्यवाद की धज्जियाँ उड़ायीं। बलराम धर्म और रामराज्य कालीन मजदूरों की वास्तविक स्थिति कामगारों के सामने स्पष्ट रूप में रखी।

मजदूर आंदोलन के चलते केवल मासिक मजदूर और सरकार इन्हीं का संबंध आता है, इस धारणा को गलत बताकर समूचा समाज भी इस आंदोलन में महत्वपूर्ण हिस्सा है, इस बात को आपने उजागर किया।

 

 

प्रश्न:- राष्ट्रहित, मजदूर आंदोलन और हड़ताल इनका मेल ठेंगड़ी जी ने कैसे बिठाया?

उत्तर:- ठेंगड़ी जी ने राष्ट्रहित सर्वोपरि बताया। मजदूर संघर्ष में हड़ताल यह मजदूरों का बुनियादी अधिकार है और उसको हम किसी कीमत पर छोड़ेंगे नहीं। इस बात पर वे अडिग थे। मोरारजी भाई के जमाने में भा.म.सं. को समाप्त (dissolve) कराने के लिए उन पर दबाब आता रहा। ठेंगड़ी जी ने किसी की एक न मानते हुए भारतीय मजदूर संघ की भूमिका कायम रखी। समय आने पर सरकार का विरोध करते हुए प्रतियोगी सहकारिता (Responsive Co-operation) की नीति की घोषणा की।

प्रश्न:- हड़ताल और बंद के लिए श्री डांगे और जार्ज फर्नांडिस की छवि पहचानी जाती थी। वैसी बात ठेंगड़ी जी के बारे में क्यों नहीं थी?

उत्तर:- केवल बंद या हड़ताल यह ठेंगड़ी जी को नहीं आता था। किंतु मजदूरों की बुनियादी हक याने हड़ताल का अधिकार छोड़ देने के लिए आप कभी भी तैयार नहीं थे। आपात्काल लागू होने के पूर्व रेलवे में हड़ताल हुयी। दत्तोपंत जी ने उसके पूर्व रेलवे के (प्रमुखों को) प्रमुख पदाधिकारियों को दिल्ली बुलाया। भारत का मानचित्र उनके सामने रखा और सबको एक सवाल किया कि आपके क्षेत्र में कहाँ-कहाँ गड़बड़ी होने की संभावना है? कौन से स्थानों पर हड़ताल में अड़ंगा (sabotage) डाला जा सकता है? यह सब जानकारी लेने के बाद ठेंगड़ी जी हड़ताल के काम में लगे और वह हड़ताल सौ फीसदी सफल हुई। हड़ताल के कारण कई कार्यकर्ताओं की नौकरी गयी किंतु प्रशासन से तीव्र संघर्ष कर ऐसे सभी कार्यकर्ताओं को काम पर लेने के लिए आपने प्रशासन को बाध्य किया। नित्य सतर्कता यह ठेंगड़ी जी की विशेषता थी।

प्रश्न:- ठेंगड़ी जी की कार्यपद्धति की विशेषता क्या थी?

उत्तर:- लोक संग्रह यही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। अपवाद रूप कभी कभार अधिक निकटता के कारण थोड़ी दिक्कत भी होती थी। किंतु ऐसे ही मामले में अपने सहयोगियों को सचेत करते थे। उनके संपर्क में आने वालों के मन में उनके प्रति आदर की भावना रहती थी। प्रत्येक कार्य का अपना स्थायित्व होता है। संघ की अपनी पद्धति से कार्यकर्ता तैयार होता है। इस कार्य पद्धति को अपनी स्वयं की प्रतिभा से जोड़कर एक विशेष प्रक्रिया ठेंगड़ी जी ने विकसित की थी। कार्यकर्ता को तैयार करना पड़ता है, इस पर उनकी श्रद्धा थी। विद्यमान परिस्थिति के बारे में कार्यकर्ता के मन में केवल असंतोष होने से नहीं चलेगा अपितु उस असंतोष को विधायक मोड़ देकर कार्यसिद्धि के लिए बहुत अधिक मेहनत करने की जरूरत होती है और कार्य में उसी का महत्व है। दत्तोपंत जी कार्यकर्ताओं के मुक्त चिंतन के पक्षधर थे। खुली चर्चा करवाते थे। किसी विषय को लेकर खुली चर्चा चलती थी। किंतु अंत में एकमत से निर्णय होता था। बैठक प्रारंभ होने के पूर्व से अंतिम निर्णय एकमत से हो, इसके लिए वे प्रयासरत रहते थे। उनको अपेक्षित ऐसा निर्णय प्रायः होता था। राष्ट्रवाद के आधार पर मालिक ऐसा मार्गक्रमण भा.म.संघ का हो, ऐसा प्रयास आपने चलाया। 'दुनिया के मजदूर एक हों। इस नारे के पीछे छुपी हुयी देशद्रोहियों की भावना का भंडाफोड़ आपने किया और भारत का इतिहास, संस्कृति और परंपरा के अनुसार कामगारों के बीच आत्मविश्वास को आपने जगाया। साम्यवादियों को अलग-थलग करने के लिए "राष्ट्रभक्त मजदूर एक हों" यह घोषणा आपने दी और कामगारों में कर्तव्य भाव जगाने के लिए 'देश के लिए करेंगे काम' यह नारा प्रचलित किया। 'साम्यवाद अपनी कसौटी पे' 'राष्ट्रीयकरण बनाम सरकारीकरण ऐसी पुस्तकें प्रकाशित कर साम्यवादी प्रमेय का खोखलापन जाहिर किया। प्रारंभ के दिनों में 'उपभोक्ता मूल्य निर्देशांक में' कामगारों के घर में जलने वाला दिया और अनाज के लिए होने वाला व्यय, इसका अंतर्भाव नहीं था। मुंबई बंद का कार्यक्रम, इसी विषय के लिए आपने लिया और कॉमरेड एस.ए. डांगे की मस्ती उतारी। इस बंद के परिणामस्वरूप लकड़ावाला आयोग नियुक्त हुआ। देशभक्ति कर्मशक्ति और समर्पण भाव के आधार पर औद्योगिक परिवार की कल्पना आपने सबके सामने रखी और उसी में से कामगारों को सामाजिक बंधुभाव के प्रति जगाया।

भा.म. संघ के प्रति मा. ठेंगड़ी जी का बहुत ही अधिक योगदान है। इसके वाबजूद श्रमिक आंदोलन की नई दिशा देते हुए भा.म.संघ को संख्यात्मक और गुणात्मक सर्व श्रेष्ठ स्थान आपके कारण प्राप्त हुआ है। भारत के ऊपर आर्थिक आक्रमण का अंदेशा उनको था। इसलिए आर डंकल के प्रस्ताव का आपने कड़ा विरोध किया। डंकल प्रस्ताव को स्वीकृति यानि अपने देश को लोहे की जंजीरों में जकड़ना है। यह बात वे खूब अच्छी तरह जानते थे। डंकल प्रस्ताव पर सही करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री को कठोर शब्दों में आपने झंझोड़ा है। पटना, दिल्ली और नागपुर के अधिवेशन में आर्थिक स्वतंत्रता के लड़ाई का ऐलान आपने किया। अमेरिका की आर्थिक नीति की आपको अच्छी जानकारी थी। दक्षिण पूर्व एशिया के राष्ट्रों का एक अलग गुट गठित कर डब्ल्यू. टी. ओ. को ललकारने का आपका मानना था। कानकून में संपन्न परिषद् में भारत का नेतृत्व अरुण जेटली जी के रूप में मिला और सफलता मिली। इसका आधार ठेंगड़ी जी का चिंतन ही था। भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है, उससे अधिक अमेरिका को भारत की जरूरत है। इस पर ठेंगड़ी जी का पक्का विश्वास था।

यह राष्ट्रीय चिंतन के बावजूद कार्यकर्ताओं के प्रति उन्हें बहुत लगाव था। एक दृष्टि में वे जगमित्र थे। नागपुर के बुनकर समाज के नेता श्री कुंआरे, रिपब्लिकन पार्टी के नेता दादा भाई गवई, राजा भाऊ खोब्रागडे, वा. कों. गणार इनसे अच्छे मित्रता के संबंध ठेंगड़ी जी के थे। साम्यवादी विचारक डॉ. म. गो. बोकरे को हिंदू अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए ठेंगड़ी जी ने ही प्रेरित किया। भारतीय मजदूर संघ के प्रथम अधिवेशन के उद्घाटनकर्त्ता कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड़ थे। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी भंडारा से चुनाव लड़े। उस समय उनके प्रचार प्रमुख दत्तोपंत जी आज शरीर रूप में हमारे मध्य नहीं हैं पर वे विचारों की अमूल्य निधि हमें सौंपकर गए हैं।

उनकी जीवन ज्योति दोनों छोर से जलती रही, ऐसा प.पू. श्री गुरुजी के बारे में कहा गया है। वही बात मा. ठेंगड़ी जी के बारे में भी सौ फीसदी सही है। "He burns his candle from both the ends."

मा. ठेंगड़ी जी ने अपनी जीवन ज्योति प्रखर रूप से सुलगायी। तबियत की थोड़ी भी चिंता न करते हुए सहकारियों को कैसा लगेगा इसकी भी फिकर न करके जब भी आवश्यकता हुई तो शासन में विद्यमान ऐसे लोगों को जरूरत पड़ने पर खरी-खोटी सुनाने में थोड़ी भी कसर न रखने वाले इस व्यक्ति का जीवन माने धधकता होमकुंड था, यज्ञकुंड था। हम भी अपनी छोटी सी दीपकलिका, ज्ञानेश्वर महाराज के कथन के अनुसार "छोटी सी दीपकलिका फिर भी बहुत प्रकाश देती" ऐसी हमेशा जगाए रहे। दत्तोपंत जैसे महान व्यक्ति ने अनेकों जीवन में यह चेतना जगायी है और हमने भी उस रास्ते पर चलकर विजय का मार्ग प्रकाशित करना चाहिए ।

वीर वाणी पत्रिका दीपावली

अंक 2003 वेलगाँव, कर्नाटक

भारतीय विचार केंद्रम तिरुअनंतपुरम में

उद्घाटन भाषण

दिनांक 27 अक्तूबर 1982

 

(विजय दशमी के दिन तिरुअनंतपुरम (केरल) में मा. ठेंगड़ी जी का उद्बोधन)

इस अवसर पर यहाँ उपस्थित होकर मुझे बड़े गर्व का अनुभव हो रहा है। आज भारतीय विचार केंद्र का उद्घाटन हो रहा है, मेरे लिए यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं। मेरे विचार में यह एक विशाल कार्य का नन्हा सा शुभारंभ है। कितना भी विशाल कार्य क्यों न हो, उसका आरंभ तो सदा ही नन्हा सा होगा। कहा जाता है, 'बूँद-बूँद करके सागर भरता है।' आज हमें जो यह नन्हा सा पौधा दीख रहा है, वह निश्चय ही एक दिन विशाल वट वृक्ष बनेगा। अतः मैं सोचता हूँ कि मैं इस अवसर पर आ सका, यह मेरे लिए बड़े सम्मान और गौरव का विषय है। इसके लिए मैं श्री परमेश्वरन जी का परम आभारी हूँ जिनका इस समूचे उपक्रम में मुख्य योगदान है।

'विचार' शब्द बड़े ही महत्व का है। यह हमें बोध कराता है कि इस केंद्र में किस प्रकार का कार्य संपन्न होगा। अपनी वैधता के लिए वह बहुमत की बैसाखी पर निर्भर नहीं रहता। सत्यान्वेषी का दृष्टिकोण तो निष्पक्ष, निर्विकार और वैज्ञानिक होता है। उसमें पूर्वाग्रह, दुराग्रह, द्वेषादि के लिए कोई स्थान नहीं होगा। वह सत्य का पुजारी होता है, सत्य के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं सूझता। सत्य को पाकर वह गदगद हो जाता है उसे वह अपने प्रयासों का सबसे बड़ा पुरस्कार समझता है, वह मान्यता की भी अपेक्षा नहीं करता। एक बार रवीन्द्रनाथ टैगोर पांडिचेरी आश्रम देखने गए। उन्होंने योगी अरविन्द से चर्चा की। अंत में रवीन्द्रनाथ ने पूछा, आप विश्व को अपना संदेश देने बाहर क्यों नहीं आते, योगी अरविन्द उत्तर दिया, सत्य को अन्यत्र कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। यह सत्यान्वेषी का आत्मविश्वास।

आज, यह तो नहीं कहा जा सकता कि भारतीय विचार केंद्र जैसे कोई केंद्र ही नहीं। अनेक केंद्र हैं, किंतु उनका दृष्टिकोण वस्तुपरक नहीं यही सारी कठिनाई है। उनका दृष्टिकोण कल्पना का सहारा लेता है, विशेष रूप अंतरराष्ट्रीय संप्रदायवाद और अंतरराष्ट्रीय वर्गवाद के प्रतिनिधि ऐसा करते हैं। प्रतिनिधि भी कतिपय केंद्र चला रहे हैं। किंतु जिन पर उन्हें पहुँचना है, उनकी कल्पना अपने मन पहले ही कर लेते और जो भी तथ्य उनके सामने आते हैं, उन्हें इस प्रकार ढाला जाता है कि वे उनके साँचे फिट बैठ जाएं जिनकी रूपरेखा उन्होंने अपने मन पहले ही बना ली होती है। यह कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है। तथ्यों को ठोंक-पीटकर के अनुरूप नहीं ढाला जाना चाहिए, बल्कि निष्कर्षों का उद्गम तो तथ्यों की पर्वतमाला से सहज रूप से होना चाहिए। भारतीय विचार केंद्र विशेष आकर्षण होंगे। यहाँ कल्पनाजन्य दृष्टि के लिए कोई स्थान नहीं होगा। यहाँ का संधान, अनुसंधान होगा और जो निष्कर्ष निकलेंगे, तथ्यों के आधार पर निकलेंगे। यहाँ पूर्वाग्रह, दुराग्रह, द्वेषादि के लिए कोई नहीं होगा, अतः पूर्व निश्चित निष्कर्षो का प्रश्न ही नहीं उठता। हमें तो केवल सत्य का अन्वेषण करना है। ऐसा हमारा विचार है।

मुझे महात्मा गांधी का एक सुन्दर वाक्य स्मरण आ रहा हम जानते हैं कि सत्य और अहिंसा को गांधी जी जीवन के दो सर्वोच्च सिद्धांत मानते थे। एक बार उन्होंने कहा था, "लोग कहते हैं ईश्वर ही सत्य है, पर मैं कहता हूँ सत्य ही ईश्वर है।" ऐसा उनका दृढ विश्वास था। अब इस सत्य की खोज विभिन्न स्तरों पर की जानी है। अनेक समस्याओं की पड़ताल की जानी है। ऐसा कहा जाता है कि आधा उपचार तो उचित निदान से हो जाता है। समस्या का सही निर्धारण भी उसके समाधान में किसी सीमा तक सहायक होता है। अतः यह आवश्यक हो गया है कि विभिन्न समस्याओं के लिए विभिन्न स्तरों पर सत्य का अन्वेषण किया जाए। समस्याएँ तो सभी स्तरों पर उठती है। व्यक्ति के स्तर पर, राष्ट्र के स्तर पर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति और युद्ध के बारे में ब्रह्मांड के स्तर पर उसके सत्य स्वरूप के बारे में। विभिन्न समस्याओं के बारे में सत्य तक पहुँचने के लिए अलग-अलग जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनका परस्पर एक स्थान पर समन्वय कर दिया जाए। वह प्रयास सामूहिक होना चाहिए जिससे सामूहिक ज्ञान का लाभ प्राप्त होगा। यहाँ सामूहिक प्रयास अधिक उपयोगी होगा। इसी कारण केंद्र का यह विचार अंकुरित हुआ।

अब विचार केंद्र की बात तो ठीक है, किंतु स्वाभाविक रूप से कोई पूछ सकता है कि इसके आगे 'भारतीय' शब्द लगाने का क्या औचित्य है? सत्य तो जात-पात, राष्ट्रीयता के बंधन से मुक्त है। ज्ञान तो सदा सर्वदेशीय होता है। उस अवस्था में 'भारतीय' विशेषण का क्या प्रयोजन? ऐसा प्रश्न किसी के भी मन में उठ सकता है। इसके लिए पहले तो 'भारतीयत्व' के स्वरूप को ठीक से समझ लेना होगा। जहाँ तक संस्कृति, राष्ट्रीय प्रकृति, परंपरा का संबंध है, भारतीय कुछ पश्चिमी देशों के राष्ट्रवादियों से गुणात्मक दृष्टि से भिन्न है। निश्चय ही हमारी राष्ट्रीयता का गुणधर्म और स्वरूप भिन्न है। कतिपय पश्चिमी देशों की ऐसी धारणा है कि राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता में परस्पर कोई मेल नहीं है। अतः जो कट्टर राष्ट्रवादी हैं वे अंतरराष्ट्रीयता का विरोध करते हैं और कट्टर अंतरराष्ट्रवादी स्वराष्ट्रों का ही विरोध करते हैं। अतीत में ऐसा हो चुका है। हमारे लिए तत्संबंधी 'दर्शन' ही भिन्न है। हम मानव चेतना के विकास में विश्वास करते हैं। जब बच्चा पैदा होता है, वह अपने में ही मस्त रहता है। चेतना का विकास होने पर, वह परिवार को, धीरे-धीरे समुदाय को फिर समूचे समाज को, समूचे राष्ट्र आदि को पहचानने लगता है। किंतु हमारी संस्कृति इतने पर ही पूर्ण विराम नहीं लगाती। उसकी अपेक्षा है कि इस चेतना का और विकास हो ताकि व्यक्ति का समूची मानव जाति से तादात्म्य हो सके, 'वसुधैव कुटुंबकम्' चरितार्थ हो सके।

हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम समूचे चराचर जगत् से और अंत में समूचे ब्रह्मांड से तादात्म्य स्थापित करें। हम 'स्वदेशों भुवनत्रयम्' को चरितार्थ करें। अतः स्वयं से लेकर ब्रह्माण्ड तक की पहचान की इस लंबी यात्रा में मानव चेतना के विकास का एक क्रम होना चाहिए। और, ये सभी चरण जोड़ने वाले हैं, तोड़ने वाले नहीं। अतः यदि प्रसंग विशेष में हमें इस 'भारतीय' शब्द को ठीक से समझना है तो हमें अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की इस विशेष प्रकृति को ध्यान में रखना होगा। वेदों में कहा गया है कि ज्ञान तो सर्वदेशीय है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी का भी विश्व में सहज प्रसार हो सकता है, भले ही कुछ बड़े राष्ट्र उन्हें अपने विशिष्ट रहस्यों के रूप में सहेज कर रखते रहें। किंतु जब हम कहते हैं। 'भारतीय' तो इसका अर्थ है कि हम स्पष्ट रूप से विभिन्न स्तरों पर सत्य का अन्वेषण कर रहे हैं। हमारे सामने विभिन्न समस्याएँ हैं। हम उनमें तथ्यान्वेषण करना चाहते हैं।

भारत माता के लाल होने के नाते हम चाहते हैं कि सत्यान्वेषण के इस प्रयास में हम समुचित दृष्टिकोण अपनाएं। कारण स्पष्ट है। 1934 से लगातार सुनियोजित ढंग से इस बात का प्रयास चल रहा है कि भारतीय मानस में आत्मसंशय और हीन भावना के बीज बोए जाएं। उन पर यह धारणा थोपी गयी कि भारत की हमारी वस्तु घटिया है, पश्चिम की हर वस्तु बढ़िया है। हमारे कुछ अपने विद्वान भी ब्रिटिश साम्राज्य की चकाचौंध से चौंधिया गए। इस प्रचार से वे इतने अभिभूत हो उठे कि वे भी अंग्रेजों तथा अन्य श्वेत जातियों की उच्चता के सिद्धांत का राग अलापने लगे। इस सिद्धांत ने जन-मानस में आत्मसंशय और हीन भावना के घुन को पनपाने में भारी सहयोग दिया है। मैं यह तो नहीं कहता कि हममें अश्रद्धा की मनोग्रंथि होनी चाहिए। वह एक और अति है जिससे हमें बचना है। किंतु इस हीन भावना के कारण हमारे देश का जनसाधारण सत्य को उसके यथार्थ रूप में नहीं देख पाता।

उदाहरण के लिए, आज का सामान्य व्यक्ति वर्तमान स्थिति के बारे कुंठा और निराशा से ग्रस्त है। वह अनुभव करता है कि हममें योग्यता नहीं है, अतः वह यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि वर्तमान स्थिति के लिए हमारी आंतरिक दुर्बलता उत्तरदायी है। उसे यह ज्ञान नहीं है कि वास्तव में हमारे पास वह सब कुछ है जो किसी राष्ट्र को महानता प्रदान करने के लिए आवश्यक है। हमारे पास बड़ी-बड़ी क्षमताएँ हैं, विशाल जन-शक्ति की विपुल पूँजी है, सभी प्रकार के साधन हैं, प्रतिभाएँ हैं। लोग कहते हैं कि पश्चिम विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में हमसे आगे है। किंतु हम जानते हैं कि विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक समुदाय में हमारा स्थान तीसरा है, भले ही प्रतिभा पलायन के कारण अपने वैज्ञानिक समुदाय की प्रतिभा का हम सदुपयोग नहीं कर सके हैं। इसके उपरांत सबसे बड़े वैज्ञानिक समुदाय में हमारा तीसरा स्थान है। अतः हमारे पास प्रतिभा है, साधन हैं, जन-शक्ति है। इनके होते हुए हम दूसरों से पिछड़ रहे हैं।

जर्मनी और जापान, जो दूसरे महायुद्ध में ध्वस्त हो गए थे, पुनः उठकर खड़े हो गए हैं और अब वे पिछली महाशक्तियों से टक्कर लेने लगे हैं। सीमित क्षेत्र और जनसंख्या वाले अभी हाल में जन्मे इजराइल को आज सारा संसार सराह रहा है। पर हमारे जन-मानस में हीन भावना घर कर गयी है, अतः सामान्य नागरिक सोचने लगा है कि हम महान राष्ट्र बनने योग्य नहीं हैं, इसी कारण हम पिछड़ते जा रहे हैं। उसकी समझ में नहीं आता कि राष्ट्र की महानता के लिए जो कुछ आवश्यक है, वह सब हमारे अंदर विद्यमान है। 1947 के बाद सामर्थ्य, प्रतिभा और अनुसंधान की हमारे पास कोई कमी नहीं रही। कमी रही तो बस एक इच्छा शक्ति की। हमारे नेताओं में राष्ट्र को महान बनाने की इच्छा का अभाव रहा। इसी कारण हमारी प्रतिभा, अनुसंधान और सामर्थ्य का उचित उपयोग नहीं हुआ और हमारा राष्ट्र पिछड़ गया।

पश्चिम की भौतिक उन्नति से, विशेषकर औद्योगिक क्रांति के बाद हुई उन्नति से, हमारी आँखें चौंधिया गयी हैं। हमने इस तथ्य को नहीं समझा कि औद्योगिक क्रांति का जन्म पूर्व नियोजित से कहीं अधिक संयोगवश हुआ। हमने इस तथ्य को भी नहीं पकड़ा कि वास्तव में उन दिनों हम एक आक्रांता से जीवन-मरण के संघर्ष में जूझ रहे थे। युद्ध के दिनों में कोई भी राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। यह सब तो सामान्य शांति काल में ही संभव होता है।

हम जानते हैं कि प्राचीन काल में हमारा संपर्क बाह्य जगत् से था। लोगों का दावा है कि हमारे देश की अनेक कलाएँ और विज्ञान फारस और अरब देशों के माध्यम से यूरोप तक पहुँचे और फूले फले। अतः बाह्य जगत् से विशेषतः यूरोप से, हमारे संपर्क की बात हमारे लिए कोई नयी नहीं है। पर जिन दिनों उनका विकास हुआ, उन दिनों हम जीवन-मरण के संघर्ष में उलझे रह गए। ये दोनों बातें एक ही समय इस प्रकार घटित हुई कि हमारे पास यह देखने और विचार करने के लिए न समय था और न अतिरिक्त शक्ति ही थी कि बाहर क्या कुछ हो रहा यही कारण है कि हम उनकी भौतिक उन्नति का सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके। हमारे बुद्धिजीवी वर्ग ने इन सब तथ्यों की अवहेलना की है। मेकाले यही चाहता था और हम उसी की बात पर विश्वास करने लगे कि अन्यों की अपेक्षा हम घटिया हैं और राष्ट्र के रूप में दूसरे हमसे बढ़कर रहे हैं।

जहाँ हम भारतीय उच्चता की ग्रन्थि से ग्रस्त नहीं होना चाहते, वहाँ हम निश्चय ही हीन भावना के इस मरे सांप को भी गले में लटकाना कदापि सहन नहीं करेंगे। हम अपने समूचे वातावरण को इस दूषित वृत्ति से दूषित नहीं होने देंगे। अत: यह आवश्यक हो गया कि किसी विचार केंद्र की स्थापना की जाए जो ऐसे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। न हीन 'भावना हो, न उच्चता की भावना हो सहज मन सत्य की खोज की जाए। अब अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा, स्वभाव और संस्कृतियों की एक-दूसरे पर क्रिया और प्रतिक्रिया हो। अतीत में हमारे स्वदेश में ऐसा होता रहा है और हम चाहेंगे कि भविष्य में संस्कृतियों की क्रिया और प्रतिक्रिया का यह क्रम टूटने न पाए।

हमारा धर्म अपने दूरद्रष्टा ऋषियों द्वारा दृष्ट शाश्वत, सर्वदेशीय नियम को ध्यान में रखते हुए सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन करता रहा है। अपरिवर्तनशील सर्वदेशीय नियमों की छाया में परिवर्तनशील आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था पनपती रही है। अतः परिवर्तन तो होंगे ही, होने भी चाहिए। पर द्रष्टाओं द्वारा दृष्ट सर्वदेशीय नियमों के संदर्भ में ऐसा करने में कुछ औचित्य हो? हमें सूक्ष्मता से देखना होगा कि अतीत से हमें परंपरा में क्या मिला है या मिल सकता है कि उनमें से कुछ परिपाटियाँ सिमट गयी हों. आज हमारे काम की न रही हों। उन्हें तज देना होगा। संभव है कि उनमें से कुछ सनातन हों, सर्वोपयोगी हों, अतः उन्हें सहेजकर रखना होगा। इसी प्रकार अन्य संस्कृतियों में से हमें खोजना होगा कि क्या सर्वोत्तम हैं, क्या गौण हैं। दूसरी संस्कृतियों में जो सर्वोत्तम हैं, उसे ग्रहण करने में हमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। किंतु ध्यान रहे कि उसको हमारी अपनी संस्कृति में आत्मसात् किया जाए, उसका अंधानुकरण न हो।

अनुकरण और आत्मसात् करने में आकाश-पाताल का अंतर है। आत्मसात् करने की प्रक्रिया में, हम विभिन्न संस्कृतियों के अंशों को निरख-परख करते हैं, उन्हें ग्रहण करते हैं, उन्हें इस प्रकार ढालते हैं, कि वे घुल-मिलकर हमारी संस्कृति के रंग में ही रंग जाते हैं। अनुकरण तो प्रत्यारोपण मात्र होता है। अतः हमने सदा यह समझा है कि यह हमारा नैतिक दायित्व है, भारत का नैतिक दायित्व है कि वह अपना सर्वोत्कृष्ट बाह्य जगत् को दे और उसका अधिकार है कि वह बाह्य जगत् से भी सर्वोत्कृष्ट ग्रहण करे तथा उसे अपनी संस्कृति के रंग में रंग लें।

इस प्रकार हम चाहते हैं कि सांस्कृतिक समागम हो। हम नहीं चाहते कि अंधतिरस्करण हो, केवल इस बहाने कि वह भारतीय नहीं है। क्योंकि वह पश्चिम का है। हम चाहते हैं कि हम अपने अतीत का. अपनी परंपरा का तथा विभिन्न संस्कृतियों के विकास की अवस्था का सूक्ष्म अवलोकन करें और दोनों में जो सर्वोत्तम हो, उसको इस प्रकार आत्मसात् करें कि वह हमारी परंपरागत संस्कृति का ही अभिन्न अंग बन जाए। यह तथ्य है कि इस देश में अंतरराष्ट्रीय संप्रदायवाद और अंतरराष्ट्रीय वर्गवाद के प्रतिनिधि (एजेंट) विद्यमान हैं जो अपने काल्पनिक दृष्टिकोण से सत्य को तोड़-मरोड़ कर उसे अपनी परिकल्पना के अनुरूप ढाल लेते हैं। यह भी तथ्य है कि इस देश के औसत नागरिक का मानस आत्मसंशय और हीन भावना से पीड़ित है, क्योंकि प्रयोजनपूर्वक नियोजित ब्रिटिश शिक्षा पद्धति द्वारा उसके मन को कुंठाग्रस्त किया गया है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि कोई ऐसा विचार केंद्र होना चाहिए जो इस भारतीय पद्धति का अनुसरण करे। जैसाकि मैं कह चुका हूँ आज हमारे सामने विशेष समस्या यह है कि हर स्तर पर हमें अन्वेषण करना है। अन्यथा हर स्तर पर हमें सत्य का ज्ञान नहीं होगा। इसीलिए मैं व्यक्तिगत अव्यवस्था की समस्या का उल्लेख करता हूँ जिसकी चरम परिणति है आत्मघात। ब्रह्मांड की समस्या का हर स्तर पर हमें संयुक्त अन्वेषण करना है। प्रादेशिक स्तर पर विभिन्न समस्याएँ हैं। अभी-अभी मुझे स्मरण आया कि केरल की अपनी कुछ निराली सामाजिक पद्धतियाँ हैं। यहाँ दीर्घकाल से हमारी मरुमकता अथवा मातृप्रधान पद्धति है। अब इस मरुमकता अथवा मातृप्रधान पद्धति का आज की हमारी सामाजिक-आर्थिक दशा पर क्या प्रभाव पड़ा है? किस प्रकार केरल की इस निराली पद्धति ने वर्तमान आर्थिक-सामाजिक दशा में योगदान किया है।

कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिसके बारे में संयुक्त अन्वेषण आवश्यक है। इसी प्रकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न समस्याएँ हैं। यह भी हम जानते हैं कि कुछ समस्याएँ मूल रूप से अंतरराष्ट्रीय स्वरूप की हैं, यथा पर्यावरण की समस्याएँ और परमाणु अस्त्रों से उत्पन्न समस्याएँ। कुछ समस्याएँ विभिन्न राष्ट्रों की अपनी विशिष्ट समस्याएँ हैं, जैसे अमरीका में नीग्रो समस्या, भारत में अस्पृश्यता की समस्या। अतः जहाँ कुछ समस्याएँ अंतरराष्ट्रीय स्तर की हैं, वहीं अन्य कुछ राष्ट्रीय स्तर की हैं, कुछ प्रान्तीय स्तर की हैं। इन सबके बारे में हमें अन्वेषण करना है। किंतु जहाँ तक हमारे भारत की वर्तमान अवस्था का संबंध है, उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्र के रूप में प्रगति के लिए कौन सा आदर्श अपनाना चाहिए। आज यह 'फैशन' बन गया है कि प्रगति के सर्वमान्य आदर्श के रूप में पश्चिमी प्रतिरूप को अपनाया जाए। उस पर पश्चिमीकरण का रंग ऐसा चढ़ा है कि औसत नागरिक यह विश्वास करने लगा है कि पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण है।

हमें सोचना होगा कि क्या यह ठीक है, अथवा हमें सभी प्रतिमानों का अध्ययन करना होगा और सभी संस्कृतियों में से जो सर्वोत्तम होगा. उसे स्वीकार करके आत्मसात् कर लेना होगा। हर संस्कृति की प्रगति का अपना निजी आदर्श होना चाहिए। यद्यपि चीन, रूस कार्ल मार्क्स का अनेक प्रकार से आभारी था. तब भी माओत्सेतुंग ने चीन में कहा कि पश्चिमीकरण आधुनिकीकरण नहीं है। उन्होंने ऐसा कहा, क्योंकि उनमें कहने का जीवट था, साहस था। हमें भी यह कहने का साहस करना चाहिए कि पश्चिमीकरण आधुनिकीकरण नहीं है और जहाँ हम आधुनिकीकरण का समर्थन करते हैं वहाँ पश्चिम के अन्धानुकरण का समर्थन नहीं करते।

अतः जहाँ तक हमारी राष्ट्रीय प्रगति का संबंध है, हमारी मूल समस्या यह है कि हमारी प्रगति और विकास के लिए कौन सा प्रतिमान आदर्श होना चाहिए। इन सब बातों पर विशद रूप से, निष्पक्ष रूप से, वस्तुपरक दृष्टि से विचार करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे अपने बुद्धिजीवी मिलें, मिलकर विचार करें, अपनी विशिष्ट योग्यता का मिलकर संचयन करें, हर स्तर पर सत्य के बारे में मिलकर अन्वेषण करें और सत्य के प्रकाश में, तथ्यों के प्रकाश में निष्कर्ष निकालें। ये निष्कर्ष कल्पना की उपज न हों, व प्राप्त तथ्यों के आधार पर तर्क की छलनी के माध्यम से सहज रूप से निकाले जाएं। इस प्रक्रिया के आधार पर हमारे बुद्धिजीवियों को संयुक्त अन्वेषण करने चाहिए।

मेरे विचार इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर भारतीय विचार केंद्रम् की स्थापना की गयी है। मुझे विश्वास है कि यदि केरल में बाहरी लोग, दृश्यमान हैं, वह बरबस तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे प्राचीन विश्वद्यिालयों के आचार्यों की महान् परंपरा का स्मरण करा देता है। बाल्यावस्था से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों में ढले ऐसे वैज्ञानिक अब तक मैकाले के सपनों को ध्वस्त करते आ रहे हैं तो अब डंकल के देश को तोड़ने में भी वे पीछे नहीं हैं।

बिजिंग रेडिओ (चीन) द्वारा प्रसारित भाषण

दिनांक 28-4-1985

(चीन प्रवास)

(श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा चीन प्रवास उपरांत विदाई के समय किया गया भाषण, जो बिजिंग (पेकिंग) रेडियो द्वारा प्रसारित किया गया था, यहाँ प्रस्तुत है।)

All China Federation of Trade Unions ने भारतीय मजदूर संघ को चीन यात्रा के लिए स्नेहपूर्वक निमंत्रित किया और BMS के प्रतिनिधि मंडल का स्थान-स्थान पर हार्दिक स्वागत किया। इस हार्दिक प्रेम के लिए हम सब A.C.F.T.U. के सम्मानीय अध्यक्ष महोदय, उपाध्यक्ष महोदय, अन्यान्य पदाधिकारी गण, मजदूर संघ के नेता तथा संसद के सम्माननीय उपप्रधान महोदय तथा हमसे मिलने आए सभी यूनियनों के नेताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इन सबके हम हृदयपूर्वक आभारी हैं। हमारी चीन यात्रा सुखद रही तथा इससे हमारे ज्ञान में और संपर्क क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है।

चीन और भारत के संबंध प्राचीन काल से मित्रतापूर्ण रहे हैं। भीषण जंगल, जंगली पशु, पर्वत, नदियाँ, समुद्र, डाकू लोग आदि सभी का मुकाबला करते हुए भारत के बौद्ध भिक्षु सनातन धर्म का करुणामय संदेश लेकर चीन में आए और ज्ञान पिपासा की अखंड ज्वलंत मशाल लेकर महान उद्योगी चीनी प्रवासी विद्वान भारत में आए। उनकी तपश्चर्या में भारत चीन मित्रता की जड़ है। मित्रता के इस प्रदीर्घ इतिहास में बीच में जो एक अल्पावधिक दुर्भाग्यपूर्ण कालखंड का निर्माण हुआ है उसको शीघ्रातिशीघ्र समाप्त किया जाए और इस हेतु भारत चीन सीमा विवाद का न्यायपूर्ण, सम्मानपूर्ण तथा शांतिपूर्ण ढंग से तुरंत निपटारा किया जाए, यही दोनों देशों के मजदूरों की तथा जनता की इच्छा है । BMS की सदा ही यह धारणा रही है कि अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में जहाँ सरकार की मित्रता का अपना एक महत्व हुआ करता है वहाँ जनता की मित्रता अधिक महत्वपूर्ण है और फिर यह एक शुभसूचक तथ्य है कि चीन की नयी सरकार पुराने सरकार की सभी नीतियों के विषय में मौलिक पुनर्विचार करने की मनःस्थिति में है। इन सब बातों के संकलित परिणाम के फलस्वरूप भारत-चीन सीमा विवाद की समाप्ति सम्मानपूर्वक होगी यह विश्वास दोनों देशों के मजदूरों के मन में है।

हमारे दोनों देशों में कुछ उल्लेखनीय समानताएँ हैं। दोनों देश अति प्राचीन हैं। हिंदू तथा चीनी संस्कृतियाँ और परंपराए अति प्राचीन हैं। दोनों तुलना में पश्चिम का हर एक राष्ट्र बच्चा है। बच्चे उछल-कूद बहुत कर सकते हैं। किंतु उनमें सांस्कृतिक परिपक्वता कम हुआ करती है। शताब्दियों तक दोनों के जीवन मूल्य समान रहे हैं, इसी कारण भारतीय भिक्षुओं को चीन में तथा चीनी विद्वानों को भारत में उचित प्रतिसाद मिल सका है, और भगवान बुद्ध का 'धम्म' दोनों के बीच एक मजबूत पुल का काम कर सका। शताब्दियों तक दोनों देश अन्य देशों को शांति तथा संस्कृति का संदेश देते रहे हैं।

दोनों देश बहुत बड़े क्षेत्रफल वाले हैं और दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाले हैं। लंबी अवधि तक दोनों देश विदेश साम्राज्यकर्ताओं से पीड़ित रहे हैं। लगभग एक ही समय दोनों ने मुक्ति प्राप्त की हुई है और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का दोनों का प्रयास लगभग एक ही समय प्रारंभ हुआ है। ऐतिहासिक घटनाक्रम के फलस्वरूप दोनों की समाज रचनाएँ भिन्न भिन्न रहते हुए भी दोनों के राष्ट्रीय प्रयास का लक्ष्य एक ही रहा है और वह है राष्ट्र का पुनर्निर्माण प्रयास के प्रारंभ के समय दोनों ने यह देखा है कि दुनिया के कुछ थोड़े देश भौतिक, शस्त्रीय तथा तकनीकी दृष्टि से बहुत आगे निकल चुके हैं। दोनों के सम्मुख कुछ समान बड़े आह्वान रहे हैं। बेरोजगारी, गरीबी, अनाज, आवास व्यवस्था, जीवनावश्यक वस्तुएँ, शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, बिजली आदि सार्वजनिक सेवाएँ, उत्पादन तथा उत्पादकता की वृद्धि, राष्ट्रीय संपत्ति के उचित वितरण की व्यवस्था आदि कुछ बातें दोनों देशों के लिए आह्वान के रूप में रही हैं। दोनों ने अनुभव किया है कि अपने भौतिक विकास के लिए विकसित उत्तरी देशों पर अवलंबित नहीं रहा जा सकता।

दोनों भली भाँति समझ चुके हैं कि दोनों देशों में धीरे-धीरे किंतु निश्चित रूप से यह नवजागृति आ रही है कि पश्चिमी देशों को तकनीकी प्रगति चकाचौंध करने वाली है, तो भी उससे अत्याधिक प्रभावित होना गलत है। पश्चिम का भौतिक-तकनीकी विकास दुनिया के सभी देशों के विकास के लिए एकमात्र आदर्श नमूना है यह धारणा गलत है, हर एक देश का आदर्श विकास का नमूना उसकी विशिष्ट संस्कृति के प्रकाश में अपने ढंग का अलग हो सकता है और होना उचित है। पश्चिम की अत्याधुनिक तकनीक का संपूर्ण अध्ययन विकासशील देशों के लिए जहाँ एक ओर आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर उसका जैसे के तैसॆ अंधानुकरण उनके लिए हानिकारक भी है।

अपनी संस्कृति, परंपरा, आज की आवश्यकताएँ और भविष्य की आकाँक्षाएँ इन सबके अनुकूल तकनीक का विचार कर पश्चिम की तकनीक के कुछ हिस्से को जैसे के तैसे लेना होगा, कुछ हिस्से का त्याग करना पड़ेगा, और कुछ हिस्से को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप मोड़ देना इस विचार का प्रभाव दोनों देशों में बढ़ता जा रहा है और दोनों देश निर्धारित कर चुके हैं कि अपनी अपनी राष्ट्रीय विशेषताओं के अनुकूल अपना अपना आधुनिकीकरण करेंगे। आधुनिकीकरण याने पश्चिमीकरण नहीं। इस दृष्टि से चीन के नव नेतृत्व ने चीन की राष्ट्रीय विशेषताओं पर दिया हुआ आग्रह विशेष उल्लेख करने योग्य है। भारत भी अपनी विशेषताओं पर इसी तरह आग्रह दे रहा है। ये सब समानताएँ दोनों देशों को निकट लाने में सहायक हैं। इस दृष्टि से विचारों का तथा अनुभवों का आदान प्रदान दोनों देशों के लिए लाभदायक ही रहेगा। हमारे प्रतिनिधिमंडल को यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि A.C.F.T.U. और भारतीय मजदूर संघ की विचारपद्धति में आशा से अधिक समानता है। समानता के कुछ उल्लेखनीय बिंदु निम्न प्रकार हैं:

(1) इसमें संदेह नहीं कि मार्क्स एक श्रेष्ठ विचारक थे और मनुष्य जाति के कल्याण के लिए उनका वैचारिक योगदान महत्वपूर्ण रहा है। किंतु उनकी श्रेष्ठता के प्रति पूर्ण सम्मान की भावना रखते हुए भी यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि एक सौ वर्ष के पूर्व प्रगट हुए उनके विचार आज भी जैसे के तैसे उपयुक्त हैं, यह धारणा गलत है। आज हम जिन समस्याओं का मुकाबला कर रहे हैं उनकी कल्पना करना भी एक सौ साल पूर्व संभव नहीं था। आज की परिस्थितियाँ, आवश्यकताएँ और समस्याएँ ध्यान में रखकर अपनी राष्ट्रीय विशेषताओं के प्रकाश में हमें अपना मार्ग निश्चित करना होगा।

(2) आज की परिस्थिति में यह उचित है कि हम राष्ट्र के विभिन्न घटकों में आपसी संघर्ष की अपेक्षा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण को अधिक महत्व दें।

(3) कृषि को, किसानों को और ग्रामीण विकास को पहले से अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए । आर्थिक समानता का गलत अर्थ प्रचारित कर लोगों में अधिक काम करने की प्रेरणा समाप्त करने वाला 'महापात्र सिद्धांत' हानिकारक है। परिश्रमपूर्वक अधिक उत्पादन निकालने वाले किसानों को अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने का अवसर मिले। इस दृष्टि से मुक्त बाजार का चलाया हुआ प्रयोग सराहनीय है। मुक्त बाजार के बारे में पाठ्य पुस्तक के आधार पर नहीं तो प्रत्यक्ष व्यावहारिक अनुभव के आधार पर ही निर्णय लेना लाभदायक रहेगा। यह आवश्यक है कि जिस तरह किसानों की लाभ की प्रेरणा समाप्त करना गलत है, वैसे ही उनको राष्ट्रीय आवश्यकताओं तथा लक्ष्यों की उपेक्षा कर व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि की अतिरिक्त स्वतंत्रता देना भी गलत होगा। राष्ट्रीय लक्ष्यों की चौखट के अंतर्गत अधिक परिश्रम से अधिक पैसा कमाने की गुंजाइश किसान के लिए रखना समानता का गलत अर्थ इसमें बाधक न बने यह देखना आवश्यक है। किंतु केवल पुस्तकीय आधार पर मुक्त बाजार या लाभ के उद्देश्य की पूरी तरह अव्यवहार्य है।

(4) औद्योगिक क्षेत्र में भी यह प्रेरणा रखना आवश्यक अधिक तथा अच्छा उत्पादन देने आधार पर अधिक पैसा मिल सकेगा। किंतु यह प्रोत्साहन न्यूनतम तथा अधिकतम आय के निर्धारित राष्ट्रीय अनुपात के अंतर्गत होना चाहिए ।

(5) निर्णय लेने की प्रक्रिया का ऊपर होने वाला केन्द्रीकरण लाभदायक नहीं। यूनियनों का कारोबार भी लोकतांत्रिक, जनवादी ढंग से चलना चाहिए । उद्योग में भी जनवादी आधार पर नौकरशाही पूँजीवादी को समाप्त करना चाहिए । किंतु किसी भी विस्तृत देश में यह साध्य करने के लिए कोई भी एक सर्वसाधारण नियम या नमूना एकदम प्रस्तुत करना अव्यहार्य है। विस्तीर्ण देश में विभिन्न उद्योगों के स्वरूप में रहने वाली विविधता को देख कर यही उचित रहेगा कि जनवादी कारोबार का लक्ष्य सम्मुख रख कर अलग अलग उद्योगों में अलग अलग प्रयोग चलाया जाए, और उन प्रयोगों के प्रत्यक्ष अनुभव आधार पर आगे का व्यावहारिक मार्गदर्शन किया जाए। इसमें बाजारीकरण की नीति उपयुक्त नहीं।

(6) यह देखकर हमें प्रसन्नता हुई कि भारतीय मजदूरों के समान ही चीन के मजदूर भी विश्व शांति और विश्व बंधुत्व की कामना करते हैं। आनेवाले मई दिन पर यह नारा लगाया जाएगा कि दुनिया के मजदूर एक किंतु उसी समय चीन के सभी मजदूर यह भी चाहेंगे कि न केवल मजदूरों का, अपितु संपूर्ण मानव जाति का एकीककरण हो और इस प्रयास में विभिन्न देशों के पहल करें। आपको यह सुनकर आनंद होगा कि भारतीय मजदूर संघ का यह नारा है कि 'मजदूरों! दुनिया को एक करो।' यही अखिल मानवतावादी दृष्टिकोण हमने अपने चीनी मजदूरों में भी पाया है। इसी कारण दोनों देशों के मजदूर साम्राज्यवाद के समान ही दक्षिण अफ्रीका आदि देशों के वंशवाद का भी विरोध कर रहे हैं।

यह कहने में हमें संकोच नहीं है कि अभी-अभी तक चीन की सरकार ने अपनाई हुई कई नीतियों की हम निंदा करते हैं किंतु नई सरकार ने मौलिक पुनर्विचार कर प्रयोग के रूप में जो नई नीतियाँ और पुनर्रचनाएँ प्रारंभ की हैं, उनकी ओर हम सहानुभूतिपूर्वक उत्सुकता से देख रहे हैं। चीन के राष्ट्रीय नेताओं ने आत्मनिरीक्षण और आत्मावलोकन करने की प्रवृत्ति दिखाई है, वह सराहनीय है। किसी भी बड़े काम में गलतियाँ होना मनुष्य स्वभाव सुलभ है। किंतु कठोर आत्मपरीक्षण के आधार पर स्वयं की हुई गलतियों को समझना और स्वीकार करना प्रशंसनीय है। विगत कुछ वर्षों के अपने ही कारोबार का चीन के नेताओं ने निष्पक्ष मूल्यांकन किया और उसके प्रकाश में नई नीतियाँ निर्धारित करने का तथा नए और विविध प्रयोग प्रारंभ करने का साहस दिखाया यह बात उनके लिए बहुत श्रेयस्कर है। हम जानते हैं कि नई नीतियाँ आज प्रयोगावस्था में हैं और उनके विषय में आज ही कोई अभिप्राय प्रकट करना जल्दबाजी होगी। किंतु आपके विवेकपूर्ण साहस के लिए आपका अभिनंदन करना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। उदाहरणार्थ, हम भली-भाँति समझ सकते हैं कि कॅम्यून का स्वरूप बदलने में, मौलिक इकाई के नाते गाँव या उत्पादक दल को मान्यता देने में, कृषि उपज के मूल्य के विषय में विभिन्न प्रयोग प्रारंभ करने में किसानों के लिए कुछ मात्रा में मुक्त बाजार की सुविधा उपलब्ध कराने में, और जिम्मेदार पद्धति के अंतर्गत परिवार को उत्पादक इकाई के नाते मान्यता देने में कितना साहस प्रकट करना पड़ा होगा। एक ओर यथास्थितिवाद को और दूसरी ओर दुस्साहस को टालकर, लचीले मनोवृत्ति के साथ आपने जो नवनवीन प्रयोग प्रारंभ किए हैं। वे यशस्वी हों, यह सदिच्छा हम प्रकट करते हैं। आपके इस उपक्रम का समाचार हम भारतीय मजदूरों को तथा भारतीय जनता को अवश्य बताएंगे। इसी तरह दोनों देशों के प्रतिनिधि मंडलों की परस्पर भेंट और विचारों का आदान-प्रदान दोनों देशों की मित्रता को अधिक मजबूत बनाएगा। अंत में, इस बिदाई के अवसर पर हम भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि चीन के स्वातंत्र्य संग्राम के लिए अर्वाचीन काल में किया गया स्वर्गीय डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस का आत्मबलिदान सभी के हृदयों में यह वैदिक भाव फिर से जागृत करे---

"पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः,

मानव मानवका सभी ओर से रक्षण-पोषण करे। "

'चाईना इन ट्रांजीशन'

(मूल अंग्रेजी पुस्तिका से)

 

वैश्विक शांति के लिए उपयुक्त आर्थिक संरचना

दिनांक 6-8 अगस्त 1993

(शिकागो विश्व धर्म संसद वर्ष 1893 में स्वामी विवेकानन्द द्वारा उद्बोधन के शताब्दी वर्ष 1993 में वाशिंगटन में दिया गया दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का भाषण : )

(मूल अंग्रेजी से अनुवादित)

आज यह बात सामान्यतः सभी लोग मानते हैं कि किसी भी भौतिक परिवर्तन की सफलता के लिए यथोचित व्यक्ति परक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होना पहली आवश्यकता है। संस्थागत ढाँचे में परिवर्तन अपेक्षाकृत आसान होता है, लेकिन इससे अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होते। व्यक्ति और समाज की मानसिकता में परिवर्तन होने पर ही हमें सुखद परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। समय के साथ विश्व में सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन होते रहते हैं। तब शाश्वत नियमों के प्रकाश में धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। धार्मिक (मजहबी नहीं) विधान शाश्वत है जबकि व्यवस्था अस्थाई है। जीवन का परम लक्ष्य आनंद है, आनंद अर्थात् परिपूर्ण, घनीभूत, चिरस्थाई, अबाधित आनंद। परिपूर्ण आनंद का अर्थ है शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी स्तरों पर पूर्ण आनंद।

यदि हम इस परिपूर्ण आनंद के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें इस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक रचना खड़ी करनी होगी जिसमें सभी प्रकार की वृत्ति प्रवृत्ति, स्वभाव, अभिरुचि के लोगों के विकास की पूरी गुंजाइश हो, पूरी व्यवस्था हो।

अच्छी बात यह है कि वैश्विक शाश्वत नियमों के प्रकाश में ऐसे सिद्धांत पहले से उपलब्ध हैं जिनके आधार पर हम अर्थ रचना खड़ी कर सकते हैं। सनातन धर्म का एक शाश्वत संदेश है कि सभी प्रकार की विविधता व विभिन्नताओं में एकत्व का दर्शन किया जाए। (अविभक्तम्विभक्तेशु) यह संदेश आज पहले से अधिक प्रासंगिक है। विविधताओं वह को न तो दबाना या मिटाना है और न ही उन्हें प्रोत्साहित करना है। धर्म प्रत्येक मानव समूह की स्वायत्तता का विचार करता है ताकि अपनी स्वतंत्र कार्यप्रणाली और विचार के आधार पर अपना सामाजिक विकास कर सके। इस प्रकार के सभी मानव समूहों में समन्वय व परस्पर पूरक व्यवहार से समाज एक मनोवैज्ञानिक एकत्व की ओर अग्रसर होगा। यही मानसिकता और पारस्परिक संबंध वैश्विक एकत्व की ओर ले जाएंगे अर्थात् वसुधैव कुटुंबकम् की भावना की ओर। इस प्रकार के सभी मानव समूह अपनी विशेषताओं के साथ सारे विश्व की वैचारिक और बौद्धिक संपदा को समृद्ध करेंगे।

भूतकाल और भविष्य को एक सही दृष्टिकोण से देखकर उसका विचार और विश्लेषण कर वर्तमान को गढ़ना होगा। इसके लिए अनिवार्य यह होगा कि हम पहले उसे भूला दें जो गलत है और भूतकाल की उन बातों को भी तिलांजलि दें जो भविष्य के निर्माण में बाधक हैं।

क्षेत्र विशेष की कुछ परंपराएँ तथा कुछ नेतृत्व स्वयं को वैश्विक बताने का दावा करते हैं यद्यपि वो धर्म की मूल भावना असंगत होते हैं। अनेक प्रकार की Techno Cultural प्रणाली तथा तकनीक, विज्ञान और सभ्यता (Culture) का परस्पर समन्वय आज जीवन का तथ्य बन गया है। किंतु मनुष्य के संदर्भ में धर्म अतिरिक्त कोई भी समुचित व्यवस्था नहीं हो सकती है। कुल मिलाकर हमें भूतकाल की, मानवता के इतिहास की एक समग्र और संतुलित समझ विकसित करनी होगी, तभी जाकर हम आज के यूरोप केंद्रित इतिहास से ऊपर उठ सकेंगे। वर्तमान इतिहास-दृष्टि में न तो अनुपातिक समझ और न ही संपूर्ण विश्व को ध्यान में रखकर एक नई खोजी दृष्टि या अनुसंधान की पहल और प्रेरणा है। एक नई संरचना, नए नए कार्य क्षेत्रों की खोज और नए मूल्य तथा नए मानदंड आवश्यक हैं ताकि आज की यूरोप केंद्रित दृष्टि को वास्तव में वैश्विक बनाने में सुगमता हो।

वैश्विक दृष्टि से भूतकाल को ठीक से समझ कर ही अपने भविष्य, एक गौरव पूर्ण भविष्य की रूपरेखा ठीक से बना सकेंगे। इस रूपरेखा में संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण होगा तथा गरीबी, भय, बीमारी का इसमें कोई स्थान नहीं होगा। किसी के प्रति कोई अमानवता का व्यवहार नहीं रहेगा और सभी आत्मसम्मान के साथ जीवन यापन करेंगे।

आर्थिक संरचना संपूर्ण वैश्विक व्यवस्था का ही एक भाग है, इसलिए हमें आर्थिक संरचना के विषय में विचार करने के पूर्व विश्व की पूरी ढाँचागत रूपरेखा को ध्यान में रखना होगा। इसके लिए हमें आज के विश्व की संरचना की मुख्य बातों को जानना आवश्यक होगा। अभी क्या है और हमें क्या करना है यह ध्यान में लिए बिना हमारा सारा श्रम व्यर्थ की कवायद (एक्सरसाइज) माना जाएगा।

यह तो एकदम स्पष्ट है कि आज का 1993 का हमारा विश्व 1893 के विश्व (जिस समय विवेकानन्द जी ने शिकागो में भाषण दिया था) से एकदम भिन्न है। ऐसे किसी भी लंबे काल खंड में विभिन्न वर्गों, व्यावसायिक संस्थाओं यहाँ तक कि राष्ट्रों के परस्पर संबंधों में बदलाव आ जाता है। स्त्री-पुरुष संबंधों के विषय में, अवधारणा में भी परिवर्तन आ जाता है। आबादी के अदल बदल से, तकनीक, परिस्थिति विज्ञान, पर्यावरण, सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्यों और आदर्शों तक में बदलाव हो जाता है। 20वीं सदी के प्रारंभ में ही हमने राष्ट्रों का और बाद में राष्ट्र-राज्य का उदय होते देखा। ये इकाइयाँ मानवीय जीवन की महत्वपूर्ण बल्कि मूल (बुनियादी) इकाई बन गईं। स्वतंत्रता व स्वायत्तता राष्ट्र-राज्य अवधारणा का स्वाभाविक गुणधर्म है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले लीग; ऑफ नेशंस और बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ बने, पर राष्ट्र राज्य की स्थिति और महत्व पर बहुत मामूली प्रभाव पड़ा। दुर्भाग्य से संयुक्त राष्ट्र संघ भी राष्ट्र और राज्य की अवधारणा में अंतर नहीं समझ पाया। इस विषय में वह संभ्रमित ही रहा। इसकी बजाय अन्य स्वैच्छिक अंतरराष्ट्रीय संगठनों का प्रभाव अधिक हुआ जैसे कि पर्यावरण, मानवाधिकार, नागरिक स्वातंत्र्य, पर्यटन, शस्त्र परिसीमन, श्रमिक संबंध जैसे विषयों में काम करने वाली संस्थाएँ। यद्यपि राष्ट्र राज्य सुदृढ़ स्थिति में अवस्थित है तो भी दुनिया में कुछ इस प्रकार की ताकतें खड़ी हो गई हैं जो इनका पूरी शक्ति से चुनौती दे रही हैं। ये शक्तियां निम्न हैं:

1. अंतरराष्ट्रीय कट्टरवाद

2. विश्वव्यापी आतंकवाद

3. अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाएँ, व्यापार नियामक, ऐसे वित्त निगम के धन, प्रदूषण, आबादी और विभिन्न प्रकार की अवांछित व अवैधानिक गतिविधियों को एक देश से दूसरे देश में भेजने में सक्षम हैं।

4. इस प्रकार के भूमिगत अंतरराष्ट्रीय गिरोह जो विभिन्न देशों में नशीले पदार्थ एवं दवाओं तथा अवैध शस्त्रों की आपूर्ति करते हैं। इनके पास अपार धन संपदा, बड़ी-बड़ी सेनाएँ, प्रभावी राजनयिक तथा कूटनीतिक सेवाएँ एवं अत्यधिक प्रभावी खुफिया तंत्र है।

ये ताकतें राष्ट्रीय संप्रभुता की संकल्पना को ही चुनौती दे रही हैं। एक और चुनौती विश्व के सम्मुख खड़ी है और वह है यूरोपीय समाज के शक्तिशाली संगठन। इस विषय में दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने उभरते हैं:

1. क्या इसी प्रकार की मानसिकता को लेकर या इनकी देखादेखी अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ नहीं खड़ी होंगी? उत्तरी अमेरिका, स्लावों के समूह अरब देश, शिन्तो तथा कन्फ्यूशियस समुदाय आदि इसी रूप में खड़े होने की कोशिश करेंगे तो कैसा होगा ?

2. एक आशंका यह भी है कि क्या ये शक्तिशाली क्षेत्रीय संगठन राष्ट्र राज्यों को महज एक प्रदेश के दर्जे तक तो नीचे नहीं ले आएँगे? ये विभिन्न देशों से ऊपर करेंसी पर नियंत्रण करते हैं, केंद्रीय बैंकिंग व्यवस्था, शैक्षिक स्तर, , पर्यावरण, कृषि, यहाँ तक कि विभिन्न देशों के बजट पर अपना आधिपत्य जमाते हैं।

भविष्य में मनुष्य जाति अपने किसी भी प्रकार में समूह बनाए या फिर बाद में शक्ति का केंद्र राष्ट्र राज्य से बदल कर किसी अन्य विस्तृत शक्तिशाली इकाई के पास चला जाए, वर्तमान समय को देखते हुए एक बात पक्की लगती है कि उनका दर्जा (status) तुलनात्मक आर्थिक समृद्धि एवं सैन्य शक्ति से निर्धारित होगा। यहाँ तक कि विश्व की बड़ी मानी जाने वाली शक्तियों के उत्थान-पतन में भी यही मापदंड लागू होगा। पॉल कैनेडी ने अमेरिका के कमजोर होने के कारण भी यही बताए हैं। किंतु पिछले कुछ सालों में शक्ति की प्रकृति में ही परिवर्तन होता दिख रहा है। तेजी से प्रगति कर रहा विज्ञान व तकनीक, लेजर, कम्पयूटर, सुपर कम्प्यूटर, स्मृति संग्रह करने वाला चिप (memory chip) आदि बढ़ रहे हैं। ऐसे विषाणु जो कम्प्यूटर पर और मनुष्यों पर आघात करने में सक्षम हैं, यंत्र-मानव शास्त्र, अति बुद्धिमता वाले इलेक्ट्रानिक संजाल तथा ज्ञान को व डाटा को तेजी से सब तरफ पहुँचाने वाली संचार व्यवस्था सभी कुछ मनुष्य के जीवन में समाहित हो रहा है और इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सारी ज्ञान धारा सभी के लिए सर्व सुलभ बनाई जा रही है।

इसी प्रकार संज्ञानात्मक व सीखने के सिद्धांत, फूजी लॉजिक (Fuzzy Logic) और तंत्रिका जीव विज्ञान में बढ़ती रुचि, विज्ञान, सूचना तकनीक, कला, मानसिक छवि विज्ञान, व्यापार, उद्योग और इस प्रकार की ज्ञान-आधारित तकनीकियों में, जैसे कि सूक्ष्म-इलेक्ट्रानिक्स, उन्नत पदार्थ, प्रकाशिकी, कृत्रिम बुद्धिमता, उपग्रह, दूरसंचार, उन्नत अनुकरण और सॉफ्टवेयर में नित नयी खोजें... जैव प्रौद्योगिकी, अति चालकता और अर्द्धचालक प्रोद्यौगिकी, सटीक लक्ष्यीकरण, ब्रीफकेस अस्त्र, मानव बम, प्रक्षेपी मिसाइल, आण्विक, रासायनिक और जैविक अस्त्र.., यह सभी ज्ञान उसी शक्ति से प्रवाहित होते हैं जो केंद्रीय भूमिका ग्रहण करने लगी है, जिससे कि अर्थशास्त्र और युद्ध-विज्ञान तक भी धीरे-धीरे इस नवीन शक्ति पर अधिक से अधिक निर्भर होने लगे हैं।

इस सारे परिदृश्य पर विचार करके हमें विश्व की आर्थिक संरचना के विषय में सोचना होगा। एक ऐसी अर्थ संरचना पर विचार करना होगा जो संपूर्ण विश्व में शांति स्थापना में सहभागी हो। टुकड़े-टुकड़े में विचार न करते हुए हमें एक समग्र चित्र उकेरना होगा, संपूर्ण विश्व की एक परिपूर्ण आर्थिक संरचना।

हम केवल एक आकर्षक भव्य रूपरेखा प्रस्तुत करके संतोष नहीं कर सकते कि बस हो गया। व्यावहारिक स्तर पर हमें अनेक समस्याओं का सामना करना होगा। उदाहरण के लिए क्या हमारे लिए यह कहना व्यावहारिक होगा कि वर्तमान काल्पनिक अभाव, लाभ के लोभ और बढ़ती कीमतों की अर्थव्यवस्था को हम उत्पादन की प्रचुरता, मानवीय दृष्टिकोण और घटती कीमतों में बदल दें? क्या हम पाश्चात्य जगत् को यह समझा सकते हैं कि वास्तव में समृद्धि का अर्थ, बाजार मूल्यों द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि उत्पादन और सेवाओं की प्रचुरता ही समृद्धि का स्रोत है। क्या अर्थ व्यवस्था में निम्न बदलावों को व्यावहारिक माना जाएगा?

1. विभिन्न तरीकों द्वारा कार्यशील एकाधिकारवादी पूँजी के स्थान पर स्वतंत्र प्रतियोगी बाजार व्यवस्था।

2. आज के वेतन और नौकरी केंद्रित आर्थिक सिद्धांतों को स्वरोजगार केंद्रित आर्थिक सिद्धांत में बदलना।

3. बढ़ती हुई असमानता को दूर कर समानता और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए आंदोलन।

4. प्रकृति के शोषण की बजाय प्रकृति का दोहन।

5. व्यक्ति, समाज और प्रकृति में सतत संघर्ष के स्थान पर इनमें पूर्ण सामंजस्य। मनुष्य को केवल सभी सुखी रहें आदि के नैतिक सिद्धांतों पर प्रवचनों द्वारा संयमित उपभोग, अंतिम सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति की प्रगति और अपरिग्रह आदि के व्यवहार की ओर नहीं ले जा सकते। ऐसा सोचना भी भारी भूल होगी। आज के वातावरण में व्याप्त स्वयं के लिए सुख साधनों की अपरिमित चाह अर्जनशीलता, भोगवाद व शोषण केवल सदोपदेशों से दूर होने वाले नहीं हैं।

यह स्वाभाविक भी है। साधारणतः समाज का मानव नई या वैकल्पिक व्यवस्था को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होता है। जब वह ठीक प्रकार से अनुभव कर लेता है कि वर्तमान व्यवस्था पूरी तरह पंगु हो गई है, इसकी क्षमता पूरी तरह समाप्त हो गई है और इस व्यवस्था से कुछ भी नहीं सध सकता बल्कि कुछ न कुछ हानि हो सकती है, तब तक वह नई संरचना को समझने के लिए तत्पर होता है।

क्या आज लोगों को इस प्रकार की अनुभूति हो रही है, विशेषकर यूरोपीय समाज के व्यक्तियों को ?

सामान्य व्यक्ति सभी स्थानों पर यथास्थितिवादी और आत्म संतोषी होता है। शायद इसी प्रकार की स्थिति के लिए मिल्टन का भगवान कहता है "उनकी अपनी अच्छाई न सही, पर आपदाएँ उन्हें मेरी ओर धकेल दें। "

1945 के बाद की वैश्विक आर्थिक संरचना तृतीय विश्व के विकासशील देशों के लिए हानिकारक रही है। 1973 में सभी विकासशील देश।एक साथ आए और उन्होंने एक नई और न्याय-संगत वैश्विक अर्थ रचना के विषय में बातचीत की माँग रखी। सन् 1981 के अक्टूबर-नवंबर में मेक्सिको की कानकून कॉन्फ्रेन्स में अधिकांश सभी प्रमुख उत्तरी विकासशील देशों के नए आर्थिक बदलावों को मानने से इंकार कर दिया और अब उरुग्वे में हो रहे अगले दौर के आर्थिक समझौतों की बातचीत ने विषय में तल्खी भर दी है, मानो कि उत्तर और दक्षिण का अर्थ-तंत्र आमने सामने खड़ा हो गया है।

यदि उरुग्वे प्रस्तावों को लादने का प्रयास किया गया तो यह पूर्ण शोषण और दक्षिणी देशों के बहिष्कार की ओर ले जाएगा या फिर दक्षिणी देशों का विद्रोह उत्तर व दक्षिणी देशों के संघर्ष में परणित होगा। आखिर यह विस्फोटक स्थिति कैसे उत्पन्न हुई? पूँजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोध पक रहे हैं- विशेष रूप से 1979 से जब तेल की कीमतों में तेजी से उछाल आया। पश्चिम की पतनशील अर्थ व्यवस्था के लिए तेल कीमतों द्वारा दिया गया यह तथाकथित दूसरा झटका सहन करना बेहद कठिन था। कम्युनिज्म के टूटने के बावजूद विकसित देशों की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट जारी रही। परिणामस्वरूप उन्होंने एक ऐसी विस्तृत कूटनीति बनाई जिसमें दक्षिण को दबाकर अपनी अर्थव्यवस्था सुरक्षित रखी जा सके। डंकल प्रस्ताव इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति है कि पूँजीवाद अपनी ताकत के बल पर खड़ा नहीं रह सकता। पश्चिम के विद्वानों में इस तथ्य की अनुभूति गहरा रही है। तो भी, अपने आर्थिक मोर्चे पर गिरावट के बावजूद वे अपने सुख संसाधनो से चिपके हुए हैं और अपने घमंड में चूर हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि वैश्विक संरचना में सबसे महत्वपूर्ण साधन उनके ही हाथ में है और वह साधन है ज्ञान की ताकत (knowledge power)। कम से कम इस समय इस क्षेत्र में उनकी सर्वोच्चता को कोई चुनौती नहीं है क्योंकि प्रतिभा भी भौतिक पदार्थों की कमी और आर्थिक स्रोतों की कमी को एकदम नहीं भर सकती, इसीलिए वे अपने पूरे सुख संसाधनों के भोग में लगे हैं लेकिन ज्ञान सदा ही एक दुधारा शस्त्र होता है। अपने समय का सबसे शक्तिशाली अपारंपरिक शस्त्र पाशुपतास्त्र सुसंस्कृत अर्जुन के हाथ में था तो भी मानवता के लिए उससे कोई समस्या नहीं थी, लेकिन उससे कम शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र के द्वारा अश्वत्थामा ने नरसंहार कर दिया।

हिरोशिमा और नागासाकी के बाद मानवतावादी वैज्ञानिकों को एक संभ्रम के दौर से गुजरना पड़ा कि विज्ञान और तकनीक की अनियन्त्रित प्रगति कितनी अभीष्ट है। रियो कान्फ्रेंस में कुछ प्रगतिशील देशों के व्यवहार से उनकी आशंका सत्य सिद्ध हुई है। ये प्रगतिशील देश पर्यावरण को संतुलित रखने के प्रयास में सहयोग करने को तैयार नहीं हैं। वे तो अपना प्रदूषण व ई-कचरा केवल विकासशील देशों के आंगन में फेंक देना चाहते हैं। किंतु यह दुरभिसंधि, बहुत समय तक विश्व को पर्यावरणीय संकट से नहीं बचा सकती और उत्तर के देश स्वयं इस प्रदूषण से ग्रसित हो जाएंगे। इन विचारशील वैज्ञानिकों का सोचना है कि विज्ञान और तकनीक की प्रगति विकासशील देशों के लिए भी घातक सिद्ध होगी। वह एक फ्रेंकेस्टाइन भी तैयार कर सकता है जो संपूर्ण मानवता के विनाश का नियामक था। बल्कि वह पूरे विश्व के जीव जगत् के लिए अभिशाप ही था। विज्ञान की उत्कृष्टता विश्व कल्याण और मनुष्य की भलाई की गारंटी नहीं है।

इसीलिए एक बहुत महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि तकनीकी ज्ञान जो हमें यह बताता है कि किसी लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए, उसको नियंत्रित रखने के लिए एक ऐसी व्यवस्था की जाए जिसमें 'क्या' प्राप्त करना है इसका विचार हो। एक लोकपाल जैसी व्यवस्था हो, जिसमें मानवीय दृष्टिकोण युक्त सुसंस्कृत लोग शामिल हों जो वैज्ञानिकों और तकनीकविदों का मार्गदर्शन करें, उन्हें नियन्त्रित करें और उनके काम का दिशा निर्देश करें।

आज यह आवाज क्षीण है, पर इतिहास हमें बताता है कि प्रत्येक समझदारी भरी आवाज पहले क्षीण ही होती है और समय के साथ इसमें मजबूती आती है और वह गतिशील होती है। इसकी यह ताकत इसकी आन्तरिक मजबूती के कारण ही है। इस तथ्य को बहुत कम लोग ही पहचान पाते हैं, शेष लोग इसके बारे में सोच भी नहीं पाते। धीरे-धीरे लोकपाल की माँग का समर्थन जुटता चला जाएगा।

लोकपाल की माँग परवान चढ़ना निश्चित है क्योंकि बहुत सारे ऐसे कारकों का दबाव कालान्तर में बढ़ेगा जिन्हें आज नहीं सोचा जा सकता जैसे कि पर्यावरण, जनसांख्यिकी, सांस्कृतिक विकास संबंधी व कूटनीतिगत कारक। इन महत्त्वपूर्ण कारकों को रोका नहीं जा सकता।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार से विध्वंसक गतिविधियाँ बढ रही हैं, उसके परिणामस्वरूप कष्ट बढ़ रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि इस प्रकार का लोकपाल शीघ्र ही अस्तित्व में आ जाएगा। यह विश्व के वर्तमान इतिहास में एक युगांतरकारी नया मोड़ होगा। यह आत्मघाती भौतिकवादी दर्प से निकलने का संकेत होगा और पाश्चात्य व पूर्व के मानवतावादी लोग जिसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, वैसी एक नई वैश्विक रचना का प्रारंभ होगा। आज की जो राक्षसी शक्तियाँ हैं वे भी नई व्यवस्था को मानने के लिए बाध्य हो जाएँगी। ऐसा नहीं है कि उनका हृदय परिवर्तन हो जाएगा, बल्कि उनके अंतर्विरोध पूरी तरह पक जाएँगे। इसलिए निराशावाद का कोई औचित्य नहीं है। विनाश के अंतर्दृष्टिपूर्ण भविष्यवक्ताओं के लिए पूज्य श्री गुरुजी (माधव सदाशिव गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक) सुप्रसिद्ध कवि टेनीसन की एक छंद (stanza) वाली कविता को बताते थे। कविता का शीर्षक है। एक नाटक। पहला अंक यह दुनिया दुःखों और कष्टों से शोकाकुल है कि इसके सभी बदलते हुए दृश्यों से भी चिढ़ रही है। तो भी मैं आपको धैर्य रखने की सलाह देता हूँ। नाटककार पाँचवें अंक में हमें यह बता सकता है कि इस विश्व के अविवेचित रंगमंच (नाटक) का क्या अर्थ है।

आज हम नाटक के पाँचवें अंक की दहलीज पर खड़े हैं। ग्लोबल विजन 2000 इस पाँचवें और अंतिम अंक का पहला दृश्य (सीन) है। यह नई शताब्दी के आगमन का सूचक है।

यह एक गहन आध्यात्मिक महत्त्व की बात है कि लिंकन की यह भूमि स्वामी विवेकानंद के भाषण की शताब्दी समारोह के आयोजन की मेजबानी कर रही है। स्वामी विवेकानंद अर्थात् मनुष्य मात्र की पहली ऋषि परंपरा की भूमि के सांस्कृतिक अग्रदूत |

('सियाराम प्रिंटर्स', पहाड़गंज, नई दिल्ली-55

द्वारा मूल अंग्रेजी में मुद्रित पुस्तक 'Global

Economic System - A Hindu View', से)

रामलीला मैदान , दिल्ली में मा. ठेंगड़ी जी का भाषण

दिनांक 16 अप्रैल 2001

युद्धम देहि युद्धम देहि

अध्यक्ष महोदय, देश के कोने-कोने से आए हुए भाईयों एवं बहनों, उपस्थित पत्रकार बंधुगण मैं भाषण के प्रारंभ में क्षमायाचना करना चाहता हूँ, क्षमायाचना इसलिए कि मैं बैठकर बोल रहा हूँ, यह धृष्टता है, मैं जानता हूँ, गुस्ताखी है किंतु पिछले साल दो आपरेशन होने के बाद जो कमजोरी आई, इस कमजोरी के कारण ज्यादा देर खड़ा रह पाना मुश्किल हो जाता है इसलिए आप मुझे बैठकर बोलने के लिए माफ करें ऐसी मेरी प्रार्थना है।

भाषण के प्रारंभ में विभिन्न प्रदेशों से आए हुए हमारे जो कार्यकर्ता हैं उनका मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। क्यों, वैसे तो रामलीला ग्राउंड पर हमेशा ऐसी रैलियाँ होती हैं लेकिन उनका ढंग अलग होता है। जो रैली ऑर्गेनाइज करने वाले लोग हैं वह अपनी जेब से पैसा खर्च करते हैं। लोगों को ट्रकों में बैठाकर एक दिन की रोजी उनको देते और जबर्दस्ती से ले आते हैं, आप ऐसे किराए के टट्टू नहीं हैं, आप अपना-अपना पैसा खर्च करके आए हैं। रात भर जागरण करते हुए आए हैं, 3-4 दिन की विदआउट पे छुट्टी ले कर आए हैं तो स्वयं अपना पैसा खर्च करते हुए, मेहनत करते हुए आप यहाँ पहुँचे हैं, आप ध्येयवादी कार्यकर्ता हैं, किराए के टट्टू नहीं हैं जो रामलीला ग्राउंड पर हमेशा दिखाई देते हैं। इसलिए मैं आपका हृदय से स्वागत करता हूँ।

यहाँ जो व्यवस्था है वह भी बहुत बड़ी है। वास्तव में इतने बड़े समाज की व्यवस्था करना बहुत कठिन काम है। लेकिन दिल्ली के हमारे बंधुओं ने बहुत तकलीफ उठाई, दिन-रात काम किया, लगभग 500 लोगों ने काम किया, और एक आदर्श व्यवस्था इस सम्मेलन की रखी है। इसमें भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता भी हैं, सहयोगी संस्थाओं क कार्यकर्ता भी हैं, हमारे प्रेमी सहयोगी लोग भी हैं इन सब लोगों ने मिलकर यहाँ जो एक आदर्श व्यवस्था की है इसलिए मैं उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ। वैसे यहाँ आने के बाद हमने यह देखा कि इस रैली के लिए मीडिया ने भी पूरा सहयोग दिया। मैं मीडिया का भी आभारी हूँ। वैसे मीडिया के लोग जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ अन्य कई संस्थाओं के और नेताओं के समान सस्ती पब्लिसिटी के पीछे, इमेज बिल्डिंग के पीछे नहीं हैं।

आज हिंदुस्तान में सभी संस्थाओं के लोग इमेज बिल्डिंग के प्रयास में हैं और सोचते हैं कि एक व्यक्ति दो व्यक्ति ऐसे लोगों की इमेज बिल्ड करने से उनका काम बढ़ेगा या देश का भला होगा। वास्तव में इस विषय पर बड़ा शास्त्रीय अन्वेषण Scientific Study करते हुए एक व्यक्ति ने कहा है पीटर डेकर ऐसा उसका नाम है। उन्होंने इसका स्पेशल अध्ययन किया है और स्पेशल अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला हैं। कि इमेज बिल्डिंग माने Immediate gain ultimate pain ऐसी प्रक्रिया है। और इसमें हर तरह से नुकसान होता है।

पीटर डेकर कहते हैं कि इमेज बिल्डिंग के प्रोसेस में आज लाभ होता हो, ऐसा दिखता हो लेकिन जिस व्यक्ति की इमेज आप बिल्ड-अप करते हैं उसका दिमाग भी बिगड़ जाता है। आपका संगठन भी खोखला हो जाता है और देश का भी नुकसान होता है। स्टैलिन, हिटलर, मुसोलिनी इन सब के उदाहरण देकर पीटर डेकर ने यह बात कही है और उनके चैप्टर का टाइटल है- 'बीवेयर ऑफ करिश्मा' हम करिश्मा के पीछे नहीं हैं लेकिन मिनिमम पब्लिसिटी जिसके कारण मजदूरों का क्या कहना है ये जनता के सरकार के सामने आ जाए, इतनी प्रसिद्धि मीडिया ने हमको देनी चाहिए और इस समय मैं आभारी हूँ कि आपने अच्छा सहयोग दिया है आगे भी इसी तरह का सहयोग आप देते रहेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है, इसलिए मैं सभी पत्रकारों का भी आभारी हूँ।

सभी विषय सभी के सामने पहले से आ चुके हैं इस विषय पर भारतीय समाचार पत्रों में, टी. बी. में मीडिया में आता है सभी भाषणों में आता है, विभिन्न नेताओं के भाषण में आता है और जो पहले से आपने सुना है उसी को दोहराना माने आपके समय का अपव्यय होगा, आपके ऊपर अन्याय होगा, यह मैं जानता हूँ। इस दृष्टि से कुछ प्रमुख बातें मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ पहली प्रमुख बात है: हमें ऐसा दिखाई देता है कि फाइनेंस मिनिस्टर बनने के बाद, शपथ ग्रहण करने के बाद, फाइनेंस मिनिस्टर को एक बीमारी हो जाती है। अंग्रेजी में कहते हैं एमनेशिया। एमनेशिया यानि Total forgetfulness i पूरी तरह से सब भूल जाना। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, और कहाँ जा रहा हूँ, कपड़े पहने या नहीं पहने, कुछ तो ये टोटल एमनेशिया फाइनेंस मिनिस्टर को होता है ऐसा दिखाई दे रहा है। मलेशिया के महातिर मुहम्मद ने एक कमीशन एप्वाइंट किया था उसका नाम था साउथ कमीशन। तंजानिया के नरेरे उसके अध्यक्ष थे, और उसके जनरल सेक्रेटरी थे हमारे डॉ. मनमोहन सिंह। डॉ. मनमोहन सिंह के वैचारिक नेतृत्व में रिपोर्ट तैयार हुई है। वह रिपोर्ट आप देख सकते हैं। "Challenge to the South" यह रिपोर्ट का नाम है। यह डॉ. मनमोहन सिंह के वैचारिक नेतृत्व में तैयार हुई है और उसमें वही भूमिका है, जो हम लोग बोलते हैं कि यह आर्थिक साम्राज्य आ रहा है। उसका प्रतिवाद करना चाहिए। उसके लिए विकासशील देशों ने आपस में कॉपरेशन करना चाहिए। जो बातें हम बोलते हैं वही बातें "Challenge to the South" में हैं। लेकिन क्या चमत्कार है। जैसे ही फाइनेंस मिनिस्टर की ओथ ली सब भूल गए। टोटल एमनेशिया हो गए और जो पहले बोला था उसके ठीक विपरीत बोलना और करना डॉ. मनमोहन सिंह ने शुरू किया।

मि. यशवन्त सिन्हा की भी वही बात दिखती है। मैं आपको बताऊँ और यदि मैं यह कह रहा हूँ यह गलत होगा तो वह प्रतिवाद करें। इलेक्शन के थोड़े ही सप्ताह पूर्व स्वदेशी जागरण मंच की एक चिंतन बैठक नागपुर में हुई थी। उस बैठक में यशवन्त सिन्हा जी ने ऐसा डिक्लेयर किया था कि चूंकि वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन ज्वॉइन करने से हमारा सब तरफ से नुकसान होता है और हमारी Sovereignty, हमारी संप्रभुता यह भी खतरे में आती है। तो 'We must quit WTO' यह यशवन्त सिन्हा जी ने कहा था। थोड़े सप्ताह हुए, जैसे ही फाइनेंस मिनिस्टर की ओथ ले ली वैसे टोटल एमनेशिया हो गया। सारा भूल गए और जो बोला था उसके ठीक विपरीत व्यवहार करना उन्होंने शुरू किया। मैं अलग-अलग देशों में पत्र लिखता हूँ कि पोलिटिशियन के एमनेशिया के लिए भी कोई इलाज मेडिकल साइंस में होगा तो हमें जरा वह बताइए।

अभी देखिए यशवन्त सिन्हा जी हमें बताते हैं कि हमारी इकोनॉमी बहुत प्रगति कर रही है, कमाल है। यह तो अभिनंदनीय बात है, हमारी इकोनॉमी यदि प्रगति करती है अभिनंदनीय बात है, वास्तव में प्रगति कर रही है क्या? अब पहला ही कदम इस बजट के समय जो उठाया गया है, अनोखा कदम है ऐसा कभी हुआ नहीं 1947 के बाद यशवन्त सिन्हा जी ने लेबर मिनिस्टरी के Legitimate jurisdiction पर इनक्रोचमेट किया है। जो काम लेबर मिनिस्टरी का है वह काम करने के लिए लंबर मिनिस्टर ने नेशनल लेबर कमीशन की स्थापना की है श्रीमान रवीन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में जिसका काम चल रहा है, उसके सामने जो आइटम्स हैं, वह सब आइटम्स के बारे में अपने प्रोजेक्ट में इन्होंने और अपने ही कानून और अमेडमेंट रखे हैं। जिसको मैं केवल Consitutional impropriety में बताना चाहता हूँ। यह क्राइम है कन्स्टीटयूशन की दृष्टि से भी क्राइम है और इस इनक्रोचमेंट के लिए मैं यह कहूँगा कि इस दृष्टि Mr. Yashwant Sinha is criminal because he has encroached upon other ministeries of legitimate jurisdiction. क्या हुआ इसका परिणाम, ले-ऑफ के लिए जो 100 की मर्यादा थी 1000 तक ले गए। जिसके कारण 85 Lacs workers have come on road, कान्ट्रैक्ट लेबर फिर से शुरू हो जाएगा। माने हर तरह से मजदूर के खिलाफ जाने वाली बातें। सब बातें आपके समक्ष आई पर सारी बातें दोहराना नहीं चाहता। तो इस तरह का क्राईम करने वाले ये क्रिमिनल मिनिस्टर हैं, यह मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ।

दूसरी बात इस समय इनका कहना है कि एक-एक पोलिसी बड़ी सक्सेसफुल हो रही है। मैं सिन्हा जी से पूछना चाहता हूँ, आपकी कौन-कौन सी पोलिसियाँ सक्सैसफुल हैं बताइए। आपने कहा था कि हमारी पोलिसी के कारण इतनी फॉरेन इन्वेस्टमेंट आएगी , कितनी आई और कितना ग्रोथ रेट बढ़ेगा, वो टारगेट तक आप पहुँचे हैं क्या? आपने डिसइनवेस्टमेंट की बात की थी क्या हुआ डिसइनवेस्टमेंट का मॉडर्न फूड At a throw away price सब जानते हैं। इस पर विशेष बोलने की आवश्यकता नहीं है। At a throw away price Modern Food were given to others. और वह मॉडर्न फूड Sick है।

बाल्को का मामला आपके सामने है। मैं मानता हूँ कि मिनिस्टर Arun Shouri is a honest. मैं अरुण शौरी की ऑनेस्टी का प्रतिवाद नहीं करता, he is a honest man किंतु या तो ऊपर के प्रैशर से या नीचे ब्यूरोक्रेट्स के मिसगाइड करने के कारण बाल्को का एग्रीमेंट उन्होंने किया है। वह एग्रीमेंट हमने पूरा पढ़ा है। Itis fraud, यह दोनों परस्पर विरोधी बातें मैं कह रहा हूँ। We believe in the honesty of Arun Shouri but BALCO agreement is a fraud और उसका भी वही नतीजा होने वाला है जो नतीजा माडर्न फूड का हुआ है। अरे वह तो प्रोफिट में चल रहा था। काहे के लिए उसको ले रहे हैं और आजकल प्रोपेगंडा सरकार की ओर से बहुत चलता है कि पब्लिक सैक्टर यूनिट्स जो घाटे में जा रहे हैं उनका हम निजीकरण करेंगे। कौन सा पब्लिक सैक्टर यूनिट घाटे में जा रहा है यह सरकार को पता है क्या? मिनिस्टर व प्राइम मिनिस्टर को पता है क्या? वहाँ के ब्यूरोक्रेटस जो कहेंगे वही मानकर चलते हैं। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि यदि बात हुई और इन्क्वायरी हुई तो उसके सामने में अपना साक्ष्य देने के लिए तैयार हूँ कि कई ब्यूरोक्रेटस ऐसे हैं जो अपने पब्लिक सेक्टर यूनिट को जान बूझकर घाटे में ला रहे हैं, कह रहे हैं कि मजदूरों के कारण हो रहा है। मजदूरों के कारण नहीं हो रहा है वह इस तरह का मिस मैनेजमेंट कर रहे हैं कि अपना पब्लिक सैक्टर घाटे में जाए ताकि वह दूसरे के हाथ में जाए क्योंकि जिसके हाथ में जाएगा उस यूनिट में पहले ही पैसे अपनी जेब में रखे हैं। ये purchasable people हैं आप इसे जरा समझ लीजिए Most of the Bureaocrats are purchasable, many of them already purchased वो झूठी रिपोर्ट देते हैं कि पी.एस.यू. घाटे में है। मैं चैलेंज देकर कहना चाहता आप सी.पी.एस.यू. हमारे सामने लाइए, ज्वाइंट कमेटी बिठाइए। हम लोगों को उसमें बैठाइए और यह पी.एस.यू. घाटे में नहीं जा सकता ठीक ढंग से उसको मैनेज किया तो प्रोफिट में जा सकता है। यह सिद्ध करने की जिम्मेदारी हम लेते हैं। आप विदेशियों से पैसे लेकर अपने देश के साथ गद्दारी करते हुए सी. पी. एस.यू. को अपने मिस मैनेजमेंट के कारण घाटे में ला रहे हैं। ऐसे कौन-कौन गद्दार हैं यह Locate होने की आवश्यकता है। We shall not allow them to get away. .

अब एनरॉन का मामला हमारे सामने है। माधव गोडबोले कमेटी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट दी है। हम पहले से डिमांड कर रहे हैं कि एनरॉन का एग्रीमेंट हुआ ही कैसे जो स्पष्ट रूप से गलत था तो एग्रीमेंट कैसे हुआ। कौन कौन से पॉलिटिकल लीडर्स उसमें शामिल थे। कौन-कौन से ब्यूरोक्रेट उसमें शामिल थे। और यह जो रिनेगोसिएशन हुआ उसके लिए कौन-कौन जिम्मेदार हैं और खासकर 13 दिन की सरकार थी। दूसरे दिन सरकार जाने वाली थी उसी में लंच टाईम में हड़बड़-गड़बड़ करते चार लोगों को मिलाकर और बताया गया है कि सैंट्रल गवर्नमेंट ने काउंटर गारंटी दी है। यह सब चालाकी है वह किसने की है यह सारा सामने होना चाहिए, इन्क्वायरी होनी चाहिए। गोडबोले ने भी कहा है कि इन्क्वायरी होनी चाहिए। पूरी इन्क्वायरी होनी चाहिए और ये गड़बड़ करने वाले जो हैं उनको छोड़ना नहीं चाहिए। They should be identified and punished नहीं तो इस तरह की गड़बड़ हमेशा चलती रहेगी। एनरॉन के बारे में हमारा कहना है कि Enron should be scrapped फिर क्या होगा, क्या जर्मनी ऐसा वैसा है वह आप देखते रहिए | Enron must be scrapped.

अब यहाँ कितने ही प्रश्न आए, कुछ लोगों ने ऐसा कहा है कि भई आप इस सरकार के खिलाफ बोलेंगे यह अच्छा नहीं है, हम भी कहते हैं कि सरकार में हमारे मित्र हैं हम भी उनके मित्र हैं, किंतु भारतीय मजदूर संघ कुछ रीति-नीति को लेकर चला है। हमारी रीति-नीति यह है जिसको हम कहते हैं Responsive Cooperation. Responsive Cooperation का मतलब यह है कि सरकार की पार्टी कौन सी है यह हम देखने वाले नहीं हैं। कौन सी पार्टी की सरकार है यह हमारे लिए महत्व की बात नहीं है। जो सरकार है उसकी नीतियाँ राष्ट्र के और मजदूर के लिए अच्छी हैं या बुरी हैं। यही हम देखने वाले हैं। माने We will cooperate with the Government to the extent of which government cooperates with the people, the mazdoors and the nation, but we will oppose the government to the extent of which the government opposes the people, the mazdoors and the nation, तो सरकार की नीति क्या है यह देखकर हम सरकार के बारे में अपना रुख तय करते हैं। कौन सी पार्टी है हमारे लिए महत्व की बात नहीं है, इसका कारण है कि पार्टियाँ तो आती हैं जाती हैं।

ये प्राचीन राष्ट्र है यहाँ कितनी ही पार्टियाँ आई हैं कितनी ही सरकारें आई हैं। कितनी ही सरकारें गई हैं बहुत लोग हमें प्रश्न पूछते हैं अरे भाई आपकी रैली के कारण सरकार को धक्का लगने वाला नहीं है। सरकार खुद को धक्का लगा लेने का काम खुद ही कर रही है। उसके लिए हमारी आवश्यकता नहीं है। ये तो कर रही है किंतु सरकार जाने से क्या होगा इसका जो लोगों का ख्याल है कि एक पार्टी की सरकार जाने से कौन सी पार्टी की सरकार आएगी , यह सोचना ही गलत है। एक पार्टी का विकल्प दूसरी पार्टी नहीं हो सकती। तो जनशक्ति, जागृत जनशक्ति जागरूक जनशक्ति नित्य सिद्ध जनशक्ति जो किसी भी पार्टी की सरकार हो उसके लिए अंकुश का काम करेगी। इस तरह की जनशक्ति यही स्थायी विकल्प हो सकता है। केवल एक प्राइम मिनिस्टर जाकर दूसरा प्राइम मिनिस्टर होने से कोई बड़ा विकल्प में फर्क होगा ऐसा सोचना गलत है।

हमारे यहाँ प्रारंभ में ऐसा कहा गया कि सत्ता हाथी के समान है। यह मान लिया, लेकिन यदि मेरे बगीचे में या आपके जंगल में हाथी घूम रहा है तो क्या हमें हाथ पर हाथ रखकर कहना चाहिए कि भगवान हाथी साहब का मूड अच्छा रखो नहीं तो मेरा बगीचा खराब हो जाएगा आपका जंगल ध्वस्त जाएगा। क्या हमें यह भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसा नहीं होता। तो हाथी जब तक अच्छा काम करता है उसके साथ को-आपरेशन, किंतु हाथी गड़बड़ करेगा तो प्राचीन परंपरा हमारी है कि समाज में नैतिक नेतृत्व का निर्माण Moral Leadership. इस हाथी के गंडस्थल पर समाज के मारल लीडर्स हैं उनके हाथ में अंकुश है। राष्ट्रभक्त लोगों के पास आर्गेनाइजेशन्स, जन संगठन यह अंकुश है। मोरल लीडरशिप के नैतिक नेतृत्व के हाथ में हाथी ठीक काम करता है। अच्छा है, हाथी ने गड़बड़ करना शुरू किया तो हाथी के गंडस्थल पर बैठे नैतिक नेतृत्व, उनके हाथ में जो अंकुश है, माने जन संगठन का वह अंकुश उसके गंडस्थल पर दबाएंगे और गंडस्थल पर वह जैसे दबाया जाता है तो चीं-चीं करते हुए हाथी को नीचे बैठना पड़ेगा। वह अपने को कितना ही बड़ा समझे चीं-चीं करते हुए उसको नीचे बैठना पड़ेगा।

लोगों के मन में तरह-तरह के प्रश्न रहते हैं। कुछ लोगों ने ऐसा कहा कि साहब यह आपकी ताकतें क्या हैं, कुछ साल पहले दोपहर के ही समय यहाँ हमारी रैली हुई थी उसके बाद लोग मिले थे उन्होंने कहा ठेंगड़ी जी आपकी ताकतें क्या हैं? मल्टीनेशनल को तो इस सरकार का समर्थन है। हमने कहा भई ऐसा है हम इस सरकार के विरोध में नहीं है समर्थन में भी नहीं हैं। मल्टीनेशनल को बचाने का काम यदि यह सरकार करती है, हमें सरकार का भी विरोध करना पड़ेगा। प्राचीन काल में ऐसा बताते हैं कि जनमेजय राजा ने सर्प यज्ञ किया था और ऋषि एक एक सर्प का नाम लेकर उस यज्ञ में आहुति देते थे तो उन्होंने तक्षकाय स्वाहा करके आहुति दी, तो बाकी तो सारे साँप आ गए थे, तक्षक नहीं आया। दूसरे ने सोचा तक्षकाय स्वाहा क्यों नहीं कहा जा रहा है। उन्होंने अंतर्चक्षु से देखा तो पता चला कि भगवान इन्द्र को कहा कि इसको छोड़ दो, तो इन्द्र ने कहा कि ये मेरा दोस्त है मैं इसको छोडूंगा नहीं तो फिर बाध्य होकर ऋषियों ने कहा, पहले कहते थे तक्षकाय स्वाहा, फिर बाध्य होकर ऋषियों ने कहा इन्द्राय तक्षकाय स्वाहा। जैसे यह कहा इन्द्र पीछे हट गए, तक्षक अग्नि कुंड में आ गए। वैसे ही हमारा आज की सरकार से ऐसा विरोध नहीं लेकिन यदि वह तक्षक को अपने पीछे छुपाते हैं तो हमको भी इस सरकार के लिए भी कहना पड़ेगा इन्द्राय तक्षकाय स्वाहा। उनकी जिम्मेदारी है The Ball is in their court सरकार ने तय करना है कि हमने उनके खिलाफ लड़ाई लड़ना है कि नहीं लड़ना। यदि वह चाहते हैं कि हमसे मित्रता चाहिए तो मल्टीनेशनल को प्रोटेक्शन देने का गोरखधंधा आज के सरकार ने बंग करना चाहिए। वरना इन्द्राय तक्षकाय स्वाहा करना पड़ेगा।

अभी देखिए लोगों का ऐसा कहना है कि आप गरीब लोग हैं जो सारे अभी तक रिपोर्ट आपने पढ़े हैं भाषण सुने उससे आपको पता चला होगा कि हम कितनी खराब अवस्था में हैं। लाखों मजदूर बेरोजगार हुए हैं। किसान सरकार की नीति के कारण आत्महत्या करने पर तुले हुए हैं। हर प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लघु उद्योग के लाखों लोग परेशान हैं लोगों ने कहा कि भाई आपकी ताकतें क्या हैं? हमने कहा कि चार साल पहले आपने हमको पूछा था कि आपकी ताकत क्या है। हमने जवाब नहीं दिया। किंतु आज हम कह सकते हैं कि हमारी ताकत बहुत बढ़ी है और हमारी ताकत बढ़ाने का काम सरकार कर रही है। सभी उद्योगों में मजदूरों को बेरोजगार करने का काम उन्होंने शुरू किया। किसानों का इम्पोर्ट ड्यूटी के कारण, सब्सिडी के कारण, बाकी और कारण हैं आत्महत्या करने के लिए सरकार प्रेरित कर रही है। लघु उद्योग निर्माण करना बंद हो रहे हैं तो हमारे समर्थन में बाकी लोग आकर खड़े हो गए, यह काम तो हमारी सरकार कर रही है और अपने लिए शत्रु यह काम भी सरकार Efficiently कर रही है।

तो यह जो सवाल था कि अपने पीछे क्या ताकत है हमारा कहना है कि सरकार की कृपा से हमारी ताकत दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वे अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं। ये बात अपने ध्यान में रखनी चाहिए। किंतु आखिर हम सब गरीब ही हैं। हम सब लोग गरीब हैं और इस दृष्टि से लोग पूछते हैं कि भाई ठीक है किंतु 0+0=0 आप सब गरीब लोग क्या कर सकते हैं। थोड़ा समझ लेना चाहिए। हमारा प्राचीन देश है, हमारे इतिहास में कई प्रसंग हैं कि जनता को राष्ट्र को खाने के लिए तैयार हुई आसुरी शक्तियाँ आगे बढ़ती गईं और उनका मुकाबला करने वाले, दैवी शक्तियों वाले साधन विहीन थे। सर्व साधन संपन्न आसुरी शक्तियाँ आगे बढ़ रही हैं। सामान विहीन दैवी शक्तियाँ छोटी हैं और इसके कारण सबके मन में भय पैदा होता है। भई यह कैसे होगा। "रावण रथी विरथ रघुवीरा देख विभीषण भयो अधीरा' विभीषण ने जब देखा कि रावण के पास इतने साधन हैं और राम बेचारा जमीन पर खड़े होकर लड़ रहा है। उसके मन में भय पैदा हुआ लेकिन आखिर विजय किसकी हुई आप जानते हैं। सर्व साधन संपन्न आसुरी शक्तियों को परास्त करते हुए उस समय दैवी शक्तियाँ विजय हुई। यही क्या शालीवाहन के समय हुआ। आसुरी शक्तियाँ सर्वसाधन संपन्न थीं शालीवाहन साधन विहीन थे, उनकी भी विजय हुई।

यह किसके आधार पर होती है? केवल साधनों के आधार पर नहीं। अपनी मानसिकता के आधार पर होती है? प्राचीन ऐतिहासिक काल रावण की सर्व साधन संपन्न आसुरी शक्ति और साधन विहीन दैवी शक्ति इसका मुकाबला हुआ (रावण रथी बिरथ रघुराई) इसमें विजयादशमी के अवसर पर साधन विहीन दैवी शक्ति ने सर्वसाधन संपन्न आसुरी शक्ति को परास्त किया। दूसरी बार संघर्ष हुआ शालीवान के समय में सर्व साधन संपन्न आसुरी शक्ति विरुद्ध सर्व साधन विहीन दैवी शक्ति और उसमें भी दैवी शक्ति विजय हुई है।

और तीसरा प्रसंग तो अभी हुआ है। 350 सौ साल पहले हुआ। बहुत की बात नहीं है। हिंदुस्तान की सारी आसुरी शक्तियाँ एकत्रित थीं। दूर उनके पास देश की सेना थी, खजाना था, बड़ी-बड़ी सेनाएँ थीं और तय करके आए थे कि हमारा राज्य कुछ नहीं सारे देश पर उनका राज्य होगा। उसका विरोध करने के लिए जो खड़े हुए साधन संपन्न नहीं थे। आज जैसा हम कह रहे हैं यानि इतना विरोध हो रहा है क्या हम इसका विरोध करेंगे? इसके खिलाफ हम कैसे खड़े हो सकते हैं? जैसा आज हम कह रहे हैं। जैसे हम कहते हैं कि मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं हम तो गरीब हैं हम कैसे विरोध करेंगे? उस समय भी यह भावना थी, इतनी बड़ी शक्ति का विरोध हम कैसे करेंगे? मरने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है ऐसी भावना थी।

उस समय समर्थ रामदास स्वामी ने कहा कि इसमें से रास्ता है। साधनों के आधार पर नहीं है, मानसिकता के आधार पर है। इच्छाशक्ति के आधार पर है और उसमें वहाँ जो मानसिकता बताई आज हमारे लिए बहुत उपयुक्त है। उन्होंने कहा कि हमारी ताकत नहीं है इस समय हमको मानना पड़ेगा ठीक है हम मरने की तैयारी करें। 'धर्मा साठी मरावे'। धर्म के लिए मरने की तैयारी करें। किंतु मरने की तैयारी करें तो उस समय 'मर गए रे बाप', 'क्या होगा' ऐसी ढीली बात नहीं चलेगी तो उन्होंने कहा की 'मार्मा साठी मरावे मरोन अवध्यासी मरावे' मरते-मरते सबको मारना चाहिए । 'मर गया रे बाप' वाली बात नहीं चलेगी तो मरते-मरते सबको मारना चाहिए और मारिता मारिता ध्यावे राज्य अंकुरित और इस तरह से सबको मारते-मारते अपना राज्य छीनकर लाना है। ये रामदास ने बताया।

हम जानते हैं कि आज भी हमारे लिए यह लागू है। हम आत्महत्या के कगार पर हैं लेकिन ठीक हैं मरते-मरते हम मारने का काम करेंगे। जो देश के दुश्मन हैं सबको मारने का काम करेंगे और मारते मारते हम अपना राज्य अपनी संप्रभुता अपना स्वातन्त्र्य सब छीन कर ले आयेंगे। हम यशस्वी होंगे। जैसे 37 साल के पहले इसी परिस्थिति में हम यशस्वी हुए आज भी इसी परिस्थिति में हम यशस्वी होंगे। इस मानसिकता के साथ हमने यहाँ से जाना चाहिए । और इस दृष्टि से हमने सोचना चाहिए कि हम गरीब होंगे लेकिन चूंकि हमारे इरादे अच्छे हैं हम ही यशस्वी होने वाले हैं। यह जो सारे राक्षस हैं इनको हम खत्म करने वाले हैं। यह आत्मविश्वास हमारे अंदर होना चाहिए।

वास्तव में यह लोग जितना दिखते हैं या दिखाते हैं उतने बलवान भी नहीं हैं। आपको आश्चर्य होगा कि यह लोग इतने बलवान भी नहीं हैं। अमेरिका नीचे जा रहा है यहाँ बड़ा प्रोपगंडा होता है कि अमेरिका बहुत आगे बढ़ रहा है। अमेरिका नीचे जा रहा है। अलग-अलग लोग उसके दुश्मन बन रहे हैं। यूरोपियन कम्युनिटी के किसान और मजदूर इनके खिलाफ हैं। साउथ ईस्ट एशिया की जनता इनके खिलाफ है। चाइना, जापान इनके खिलाफ हैं। इतना ही नहीं तो प्रोपर यूनाइटेड स्टेट्स में जो वर्कर्स मूवमेंट है वह इनके खिलाफ है और जो कन्ज्यूमर्स मूवमेंट है वह भी इनके खिलाफ है। और इतना हीं नहीं तो पहले इनके नेफेरियस डिजाइन्स माने इनके यह सारे जो खराब इरादे हैं लोग जानते नहीं थे। जब लोग जानने लगे तो अमेरिकन कंट्रीज में भी जो ह्यूमेनेटेरियन नहीं थे। इन्टलेक्चुअल्स, मानवतावादी, बुद्धिवादी लोग हैं वो इकट्ठा आ गए हैं। उन्होंने अपना एक फोरम बनाया, उस फोरम का नाम है The other economic summit और जहाँ-जहाँ जी-7 की मीटिंग होती है उसी शहर में The other economic summit मीटिंग लेती है और जी-7 के Resolution को Condemn करने वाले Resolution पास करते हैं।

माने विरोध बढ़ रहा है और अमेरिका स्वयं नीचे जा रहा है। लेकिन उनको एक आदत लग गई है स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात् जितनी सरकारें आई उनको ये धौंस देते गए हैं, कि देखिए हम कहते हैं वह करो नहीं तो हम आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे। वास्तव में इनकी धौंस में कोई ताकत नहीं है। लेकिन वे धौंस देते गए। और अभी तक की सारी सरकारें इस धौंस के अंदर आकर उनके कहने के मुताबिक चलती थीं। हमें आशा थी, कि आज की सरकार के लोग देशभक्त लोग कहलाते हैं। कम से कम यह देशभक्त लोग इस धौंस के सामने झुकेंगे नहीं। ये भी झुक रहे हैं। जिस धौंस के सामने ये झुक रहे हैं धौंस देने वाले लोग क्या कर सकते हैं। अमेरिका की कितनी ताकत है आज वे धौंस दे रहे हैं, हम आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे। भारतीय जनता की ओर से मैं कहना चाहता हूँ कि आप आर्थिक प्रतिबंध लगाइए। धौंस आप किसको दे रहे हैं।

वास्तव में आर्थिक प्रतिबंधों के कारण ज्यादा से ज्यादा डेढ़ साल हमें कुछ तकलीफ होगी, अपनी पेटी कसना पड़ेगा, लेकिन डेढ़ साल तक यदि हम अपनी पेटी कसते हैं और हमें पेटी कसने की आदत है, अमेरिका को नीचे आना पड़ेगा और इसका कारण है कि America needs India more than India needs America सरकार को मैं बताना चाहता हूँ कि America needs India more than India needs America और इस तरह से डेढ़ साल तक यदि हम राह देखते हैं, डेढ़ साल तक सामान्य अमेरिकी नागरिक Patiently राह नहीं देख सकता। अरे जो वियतनाम के सामने झुक गए, हर जगह जो झुक जाते हैं, क्यों झुके क्योंकि अमेरिकी नागरिक ज्यादा देर तक लड़ाई बर्दास्त नहीं कर सकते। हमारे यहाँ गरीब से गरीब आदमी भी कुछ न कुछ Small Saving करता है थोड़ा सा सोना, थोड़ा सा पैसा बचाता है वहाँ तो आगे के तीन साल के क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करने वाले लोग अमेरिका में बहुत सारे हैं। वह डेढ़ साल तक राह नहीं देख सकते। हमें इच्छाशक्ति के साथ भारत सरकार को कह देना चाहिए कि अपनी इच्छाशक्ति तो जागृत करो जनता आपके पीछे रह सकती है। इच्छा शक्ति के साथ यदि भारत सरकार ने उनकी धौंस को नहीं माना, डेढ़ साल में उनको नीचे आना पड़ेगा।

हमारे विदर्भ में एक लोक कथा है- लोक कथा ऐसी हैं, एक पति-पत्नी हैं पति हमेशा अपनी पत्नी को धौंस देते रहता है कि फलाना काम करो, नहीं तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा, और बहुत से काम ऐसे होते हैं जो पत्नी नहीं करना चाहती, लेकिन जब वह धौंस देता है कि मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा, तो बेचारी मानती है। कभी इसकी सहेलियों ने देख लिया, बाद में सहेलियों ने कहा, अरे यह धमकी देता है और तुम मानती हो- बोली क्या करूँ, ये यदि वास्तव में छोड़ गए तो क्या होगा. सहेलियों ने कहा यह केवल धौंस है, केवल धमकी है, चिंता मत करो एक दिन कहो। जब वह कहेगा कि तुम्हारा पति, मैं तो घर छोड़कर जाता हूँ, तो तुम कहो कि जाओ, तुम्हारा क्या सामान जो तुम्हें साथ ले जाना है मुझे बताओ, मैं देती हूँ ऐसा कहो। कहीं वास्तव में चला गया तो। अरे ऐसा कुछ नहीं होता।

तो एक दिन वह आया आफिस से, कुछ कहा पत्नी को और तुरंत कहा करने को, नहीं तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा। पत्नी ने शांत भाव में कहा, आप जा सकते हैं, जाते समय आपके साथ क्या-क्या कपड़े देना हैं मुझे बताइए, मैं गठरी बाँध कर तुम्हारे साथ देती हूँ। यह अन-अपेक्षित था, सोचा ही नहीं था कि पत्नी ऐसा कहेगी। तो ठीक है ये कपड़े दो, वो कपड़े दो मैं जाता हूँ। पत्नी ने गठरी बाँध दी, उसको चाय पिलाई, बोली आप जा सकते हैं। वह घर के बाहर निकला तो स्वयं वह अपने आप से पूछता है कि मैं कहाँ जाऊँ क्योंकि सोचा तो नहीं था। फिर सोचा, आज तो पत्नी ने गुस्से में आकर बोल दिया लेकिन थोड़ी राह देखेगी तो उसको भी पश्चाताप होगा, तो गाँव नहीं छोड़ना चाहिए। तो गाँव के कोने पर एक मंदिर था। उस मंदिर में जाकर वह बैठा। वह 24 घंटा रहा कि अभी नहीं फिर, फिर, और फिर नहीं तो उसके बाद पत्नी आई नहीं, पत्नी आई नहीं, 24 घंटा हो गए पत्नी आयी नहीं, फिर और 24 घण्टा हो गए फिर भी पत्नी आई नहीं। फिर इसका धीरज छूट गया। तो इसके घर के गाय और भैंसे चारा खाकर इसी रास्ते से घर जा रहे थे। अब उसका धीरज छूट गया था। तो भैंस का पूँछ पकड़कर वो जाने लगा। और जाते समय मंत्र जपने लगा, हे भैंस मुझे जबरदस्ती से क्यों ले जा रही हो, मैं तेरे घर जाना नहीं चाहता, मुझे जबरदस्ती से क्यों घर ले जा रही हो, मैं तो जाना नहीं चाहता। ऐसा करते-करते घर पहुँच गया।

मैं आपको बताता हूँ कि हमारी सरकार ने थोड़ी इच्छाशक्ति दिखायी तो Mr. Bush को हम इसी प्रकार की पोजीशन में ला देंगे। थोड़ी इच्छाशक्ति चाहिए । कहीं तो इच्छा शक्ति दिखाए तो इस तरह से इनके धौंस में जाने की आवश्यकता नहीं है और सबसे बड़ी बात यह है, हम सोच रहे डब्ल्यू.टी.ओ. बनाई है और इसमें विकासशील देश एक ब्लॉक बनाने के लिए तैयार हैं, यह हमारी जानकारी है, Wishful thinking नहीं है। यह जानकारी है लेकिन उनको कोई तो अभी भारत जैसा बड़ा नेता चाहिए। Largest country इसके साथ आ जाएंगी। इस तरह का Block बनाना चाहिए और इस तरह का Block बनाते हुए भारत के अपने initiative पर भारत ने सैकेंड डब्ल्यू.टी.ओ. प्रतिस्पर्धी विश्व व्यापार संगठन नया खड़ा करने चाहिए, विकासशील देशों का और यह व्यापार संगठन इनको challenge करें। मैं आपको बताता हूँ कि इनकी हालत अच्छी नहीं है। न अमेरिका की हालत अच्छी है और न यूरोप की हालत अच्छी है और हम यदि हिम्मत के साथ खड़े होते हैं तो यह जो प्रश्न हमारे लिए है वह प्रश्न आर्थिक नहीं है केवल मानसिक ज्यादा है, साइक्लोजिकल ज्यादा है, और भारत सरकार यदि साइक्लोजिकली इच्छाशक्ति के साथ, विल पावर के साथ काम करती है तो हम इन सबको दबा सकते हैं।

क्या क्या इच्छा शक्ति नष्ट हो गई? इच्छा शक्ति नष्ट करने का कारण क्या है, अरे 90 करोड़ लोग आपके पीछे हैं, इतने resources आपके पीछे हैं, फिर भी यदि आप इच्छाशक्ति गँवा बैठे हैं, खो बैठे हैं। कारण है। संदेह के लिए जगह होनी चाहिए संदेह सच रहे, गलत रहे, लेकिन संदेह के लिए संभव हो जाता है और इस दृष्टि से हम सरकार से प्रार्थना करेंगे कि अपनी इच्छाशक्ति जागरूक करे इनके खिलाफ खड़े हो जाएँ। सरकार इनके खिलाफ खड़ी हुई तो हम सरकार का साथ देंगे। सरकार इनको प्रश्रय देती है तो हम सरकार का विरोध करेंगे। यह हमारी स्पष्ट नीति है और इस तरह से second डब्ल्यू.टी.ओ. खड़ा करने का प्रयास सरकार करे। सरकार ने न किया तो हम लोग करेंगे। हम लोगों के पास भी Resources हैं हम लोग second डब्ल्यू.टी.ओ. को निर्माण करने की कोशिश करें। यह सब हो सकता है।

और इस दृष्टि से आज जो चार साल पहले मजदूर अकेला था, आज अकेला नहीं है। मजदूर के कन्धे से कन्धे लगाकर किसान खड़े हैं। लघु उद्योग वाले खड़े हैं। सारे गरीब लोग खड़े हैं भिखारी भी खड़े हैं। इन सब लोगों को सरकार ने स्वयं अपना दुश्मन बना लिया है। यह सारे हमारे मंच पर आ सकते हैं और यहाँ जो भारतीय जनता है देशभक्त भारतीय जनता यह World Bank को International Monetory Fund को World Trade Organisation को ललकार कर कह सकती है कि लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। अब तक सरकार कमजोर इच्छाशक्ति होने के कारण आपकी सारी बातें मानती गई, अब भारतीय जनता आपकी बातें नहीं मानेगी। लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ।

और इस दृष्टि से इस रैली में जो हम आए, इसका उद्देश्य एक ही है कि जनशक्ति जागृत हो, जनशक्ति जागृत होने का यह पहला स्टेप है। जनशक्ति जागृत हो बाकी सब लोगों के लिए, यह सर्वसाधारण मंच है इसकी जानकारी किसानों को हो, कुटीर उद्योगों को हो, गरीबों को हो, व्यापारियों को हो कि यह सर्वसाधारण मंच है इस मंच पर सारे आ सकते हैं और इस तरह से सभी आकर ललकार दें और राष्ट्र विरोधी, गरीब विरोधी, मजदूर विरोधी, किसान विरोधी, राष्ट्र विरोधी, राक्षसी शक्तियों को हम ललकार दें, हम यह ललकार दें कि हम अब तैयार हैं। युद्धम देही युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। युद्धम देहि, तो इस रैली का नारा यही रहेगा युद्धम देही युद्धम देही। देखेंगे इस लड़ाई में क्या होता है?

कितने साल पहले रामचन्द्र जी के समय सर्व साधन संपन्न राष्ट्र राक्षसी शक्तियों का निष्पादन किया गया। शालीवाहन के समय किया गया। छत्रपति शिवाजी के समय किया गया। आज भी मरान अवधैयसी मरावै, हम मर रहे हैं तो भी मरते-मरते सबको मारना और मारिता मारिता ध्यावै चराज्या पुने: और मारते-मारते अपना राज्य छीन लेना, यह प्रक्रिया हम स्वयं लेने वाले हैं। इस दृष्टि से इस रैली का संदेश है युद्धम देही युद्धम देही।

बदलते परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के सम्मुख खड़ी चुनौतियाँ

दिनांक 28 जुलाई 1996

-दत्तोपंत ठेंगड़ी

(पुणे में संपन्न हुई प्रज्ञा भारती की अखिल भारतीय बैठक में मा. ठेंगड़ी जी का उद्बोधन.....)

अलग अलग समय पर जो बातें झूठ हैं उनका प्रचार योजनापूर्वक हमें गुमराह करने के लिए पूर्व में हुआ है, आज भी हो रहा है। यह सबसे बड़ी समस्या हमारे सामने है। हम उन्हें पुराने मिथक (Old myths) कहेंगे। कुछ नए मिथक भी हमारे सामने आए हैं। उन के कारण क्या कठिनाई निर्माण हुई वह आप जानते हैं। उसका केवल निर्देश करना पर्याप्त होगा। हिंदुओं को आत्मविस्तृत बनाने के लिए और उनके मन में हीनता का भाव निर्माण करने के लिए, मेकाले के वैचारिक नेतृत्व में एक नीति निर्धारित की गयी। जिसके अंतर्गत कई मिथक, माने गलत विचार प्रचारित किए गए। शिक्षा के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से, गलत थ्योरी के माध्यम से और इतिहास के विकृतिकरण के माध्यम से इन गलत विचारों को इंग्लिश-शिक्षित विद्वानों ने स्वीकार किया, और जनता में उनका प्रचार किया। लंबे समय तक ये गलत विचार ही अधिकृत सत्य के नाते स्वीकार कर लिए। उनको आह्वान देने का विचार भी किसी के मन में नहीं आया। ये मिथक, ये गलत विचार सर्वपरिचित हैं।

प्रबुद्ध लोग जानते हैं कि समय बीतते राष्ट्रभक्त विद्वानों ने इन विचारों का आह्वान दिया। सत्य बातें जनता में प्रचारित करने का प्रयास किया। मेकाले प्रणीत नीति की सफलता के कारण गलत विचार तथा सिद्धांत लोगों के मन में इतने दृढमूल हो गए थे कि राष्ट्रभक्त लोगों को कई दशकों तक उन्हें सहना पड़ा। अंग्रेज प्रणीत असत्य सिद्धांत ही (मिथक) हावी रहे किंतु सातत्य के साथ और हिम्मत के साथ राष्ट्रभक्त लोगों ने अपना प्रचार कार्य जारी रखा। इसके फलस्वरूप जनता में जागृति आना प्रारंभ हुआ। सत्य सिद्धांतों और असत्य सिद्धांतों की लड़ाई प्रारंभ हुई। धीरे-धीरे सत्य सिद्धांतों का प्रचार बलवान होने लगा। पासे पलटते गए। असत्य सिद्धांतों को बचाव पक्ष लेना पड़ा। सत्य सिद्धांतों ने आक्रमण की भूमिका ठान ली। यह लड़ाई आज भी जोरों से चल रही है। ये असत्य सिद्धांत हमारे सामने बड़ी वैचारिक चुनौतियाँ बनकर आए थे। ऐसे असत्य सिद्धांत अनेक हैं, और एक के बारे में विस्तृत चर्चा हो चुकी है, और चल रही है। जैसे

1. हिंदुस्थान यह कभी भी एक राष्ट्र नहीं रहा। यह निर्माणाधीन राष्ट्र (नेशन इन् मेकिंग) है।

2. यह एक राष्ट्र नहीं। इसलिए इसकी कोई राष्ट्रीय संस्कृति भी नहीं। यहाँ मिली जुली संस्कृति (कंपोजिट कल्चर) है।

3. आर्यों ने भी बाहर से आ कर आक्रमण किया और यहाँ के मूल निवासियों को परास्त कर अपना अधिकार यहाँ जमाया था।

4. जिस तरह मुसलमान और अंग्रेज बाहर से आए वैसे ही आर्य भी बाहर से आए और उन्होंने मूल निवासियों को कुचल दिया। हिंदू उन आर्यों के वंशज हैं अतः यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं। वे भी उतने ही पराये हैं जितने कि मुसलमान और अंग्रेज। यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ लोग हैं। उनका अलग राष्ट्र है। अलग संस्कृति है। अलग भाषा है। इसे नष्ट करने का प्रयास उत्तर भारत के आर्य हिंदू कर रहे हैं।

5. धर्म और रिलीजन समानार्थी हैं।

6. आर्य यह वंशवाचक शब्द है। गुणवाचक नहीं।

7. राष्ट्र और राज्य भी समान है।

8. संस्कृत मृत भाषा है।

9. हिंदू एक रिलीजन मात्र है और हिंदुत्व सांप्रदायिक है। हिंदुत्व धर्मनिरपेक्षता का विरोधक है।

10. अंग्रेजों के यहाँ आने के पूर्व यहाँ कोई सभ्यता थी ही नहीं। विज्ञान एवं तंत्रज्ञान (साइंस एवं टेक्नोलोजी) का संपूर्ण अभाव था।

11. उच्च वर्गों का ज्ञान पर एकाधिकार था। उन्होंने बहुजन समाज को जान बूझकर अज्ञानता में रखा था, ताकि अल्पसंख्यक पर वरिष्ठ वर्ग का प्रभुत्व संपूर्ण समाज पर अबाधित कायम रहे। उच्चतर वर्ग के इन लोगों ने बड़ी चतुराई से जनता को संभ्रमित करते हुए उन पर ऐसी विषमतापूर्ण समाज रचना थोपी थी। जिसमें इन चन्द लोगों का प्रभुत्व समाज पर बना रहे और बहुसंख्यक होते हुए भी बहुजन समाज उच्च अल्पसंख्यकों की गुलामी में रहे। इन बहुजन समाज विरोधी रचनाओं को धर्म, वर्णव्यवस्था तथा जाति व्यवस्था आदि नाम देकर धार्मिक मान्यता प्रदान कर दी। यहाँ का बेसिक यूनिट 'जाति' माना गया, 'राष्ट्र' नहीं।

इन सब मिथ्या विचारों को इंग्लिश शिक्षित विद्वानों ने स्वीकार किया। इन विद्वानों ने ये गलत विचार समाज में प्रस्तुत किए । इन गलत सिद्धांतों का तर्कशुद्ध खंडन अब हो चुका है। जनमानस की भ्रांतियाँ दूर होना प्रारंभ हो गया है। गलत प्रचार करने वाले अब बगलें झाँकने लगे हैं। सत्य सिद्धांत आगे बढ़ रहे हैं। वैचारिक क्षेत्र में नया मोड़ आ चुका है। विचारों की सही दिशा में प्रगति होना प्रारंभ हो गया है।

लोगों को ध्यान आ रहा है कि

* India is a multinational state (भारत एक बहुराष्ट्रीय राज्य है) यह प्रचार गलत है। भारत has been and still continues to be a multistate Nation (भारत पूर्व में और आज भी बहुराज्यीय राष्ट्र है) यही सिद्धांत सही है।

● पाकिस्तान और बांग्लादेश are states without Nationhood. (राष्ट्रीयत्व विहीन राज्य हैं)

* India is a multicultural Nation (भारत एक बहुसंस्कृति राष्ट्र है) ऐसा कहना गलत है। Hindu is multidimensional culture, (हिंदू बहुआयामी संस्कृति है) यही वास्तविकता है।

• हिंदू नाम का कोई रिलीजन नहीं। हिंदुओं के कई रिलीजन हैं। किंतु The stewed is a Hindu view of religion. Religion is strictly personal and safe, strictly personal as one's own tooth brush. Hindu view of religion is all embrasing all inclusive. इसी कारण महात्मा गांधी जी ने कहा था कि इस्लाम और क्रिश्चयनिटी भी हिंदुइज्म के अंतर्गत आसानी से समाविष्ट हो सकते हैं।

· बृहस्पति चार्वाक प्रणीत 'लोकायतंत्र' (मटेरियलिज्म) भी इसका एक अंग है।

इसी कारण प्राचीन संस्कृत साहित्य में 'हिंदू' शब्द मिलता ही नहीं। किंतु संसार में कुछ ऐसे जनसमूह आगे चल कर निर्माण हुए जो संपूर्ण मानव जाति के साथ एकात्म होने के लिए तैयार नहीं थे। वे अपनी अलग पहचान रखना चाहते थे और उसे बाकी लोगों पर थोपना चाहते थे। ऐसे जनसमूह जब भारत आए तब 'हम ऐसे जनसमूहों से अलग हैं' यह स्पष्ट करने के लिए अपनी पहचान देने वाला शब्द प्रयोग हमें करना पड़ा, जो पहले से ही उपलब्ध था। पहले ही बाहर के लोगों ने कहा था कि ये 'सिन्धू' लोग याने हिंदू लोग हैं। हिंदू शब्द पहले से उपलब्ध था। जैसे किसी भी शहर के मार्केट में जब तक केवल विशुद्ध घी आता है, तो एक फलक लगाना पर्याप्त होता है 'घी की दुकान'। किंतु जब घी के मार्केट में वनस्पति घी आता है, तो विशुद्ध घी की दुकान पर बोर्ड लगाना पड़ता है 'विशुद्ध घी की दुकान'। वैसे पूर्व में हमारे मानदंड थे इसलिए 'हिंदू' नाम चाहे रखे या न रखे, Indentified Human Society यही हमारी पहचान थी। किंतु जैसे ये 'वनस्पति घी वाले' हमारे मार्केट में गए, तब हमको कहना पड़ा कि हम 'हिंदू' हैं।

अन्यथा हिंदू और मानव एकरूप हैं। हमारी कुछ परंपरागत मान्यताएँ। हैं। हमारा अस्मिता-बोध (Absolute reference) सनातन धर्म है। इसका बहुत प्रभाव है। पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने जीवन भर 'धर्म' शब्द की निंदा की, अपनी मृत्यु के 24 घंटे पहले श्रीमन्नारायण अग्रवाल की किताब की उन्होंने प्रस्तावना लिखी और उसमें स्पष्ट कहा कि हमें क्या प्राप्त करना है। उन्होंने कहा कि हमें Industrial Production बढ़ाना है। Agricultural Production बढ़ाना है। किंतु उससे महत्व की बात है - to mould men's minds on the basis of Dharma! तो धर्म का सभी लोगों पर माने न माने, इतना प्रभाव है।

और इसी सनातन धर्म का युगानुकूल आविष्कार पंडित दीनदयाल जी ने दिया हुआ आज का 'एकात्म मानव दर्शन' है। हमारे द्रष्टाओं ने जो दर्शन प्रस्तुत किया वे वैश्विक नियम ('यूनिवर्सल लॉज') इसके आधारभूत हैं। वे शाश्वत हैं, स्थायी हैं, अपरिवर्तनीय हैं। उनके प्रकाश में समय समय पर अलग अलग काल खंडों में प्राप्त परिस्थितियों के आह्वानों को ध्यान में रखकर समाज रचना में आवश्यक परिवर्तन होते. रहना, यही हमारी पद्धति है। "Ever changing socio-economical order in the light of the unchanging eternal universal Laws" यही धर्म का स्वरूप है। इस तरह की युगानुकूल समाज रचना के विवरण को 'युगधर्म' यह संज्ञा है। यही आज का एकात्म मानव दर्शन है। जो समाज व्यवस्था सनातन धर्म के दायरे में रहेगी उस में अंतर्विरोध (Internal self contradiction) कभी भी पैदा नहीं हो सकते।

परम पूजनीय श्रीगुरुजी का World mission of Hindus हमें बताता है कि वैश्वीकरण (Globalisation) का सही अर्थ क्या है। 'होलिस्टिक इंटीग्रल वे ऑफ विशेषता रही है। अब वे 'इंटर-डिसीप्लिनेरी अॅप्रोच' की ओर आ रहे हैं, जो हमारे दृष्टाओं के जिस साक्षात्कार को हमने Values of life के नाते स्वीकार किया वह है, सर्व खलु इदं ब्रह्म जिसका सरल अंग्रेजी में अनुवाद होता है, 'All is one!' 'All are one" नहीं | All unchanging eternal universal Laws यही धर्म का स्वरूप है। इस तरह की युगानुकूल समाजरचना के विवरण को 'युगधर्म' यह संज्ञा है। यही आज का एकात्म मानवदर्शन है। सभी का अंतिम गन्तव्य स्थान एक ही है, सभी प्राणियों का 'सुख'। घनीभूत सुख, चिरंतन सुख, निरंतर सुख। जिसको शास्त्रीय परिभाषा में 'मोक्ष' की संज्ञा दी गई है। वहाँ तक पहुँचने के मार्ग अनेक हैं। इसे कहा जाता स्याद्वाद, जो अपने जैनपंथ ने विशेष रूप से प्रस्तुत किया है। In the immediate social context सुख का मतलब होता है 'सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु। सर्वभूते निरामयः। विकास का 'वेस्टर्न पॅराडाइम' (Western paradigm) हिन्दुविरोधी Anti Hindu है। पर्यावरणविरोधी (Anti Environment) है। हमारे यहाँ, धर्मविरोधी-एन्व्हायरॉनमेन्ट की चिंता वैदिक काल से हुई। 1972 में स्टॉकहोम के अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण परिषद् में श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब कहा कि हमारे यहाँ एकोलॉजी की चिन्ता वैदिक काल से कर रहे हैं, सबको आश्चर्य हुआ। आप जानते हैं कि अथर्ववेद का 12वाँ अध्याय 63 श्लोकों का है जो पर्यावरण के संबंध में ही है।

हमारे इन विचारों की शिक्षित लोगों में अधिकाधिक मान्यता प्राप्त होने लगी है। परिवर्तन (the turning point) आ रहा है। विदेशियों द्वारा प्रसारित गलत सिद्धांतों को (मिथूक) नष्ट करने में सफल होने की प्रक्रिया चल रही है। उतने में अब नए गलत विचारों (मिथक) का भी आक्रमण होने लगा है।

1100 साल पुराने आक्रमणकारी सत्ता का मुकाबला करते हुए हिंदू सैनिकी शक्ति ने अठराहवीं शताब्दी के मध्य में यावनी वर्चस्व को निर्णायक रूप से नष्ट करने में सफलता प्राप्त करने का बड़ा काम किया। अटक से कटक तक हमारे विजयी अश्व संचार करने लगे। यावनी आक्रमण का मुकाबला हमने कितने बहादुरी से किया, इस का चित्रदर्शी वर्णन सावरकरजी ने (मूलत: मराठी में) किया है

इराणपासुनी फिरंगणापर्यंत शत्रूची उठे फळी।

सिंधुपासुनी सेतुबंधपर्यंत रणांगणा भू झाली।

तीन खंडीच्या कुंडाची ती परंतु सेना बुडवी।

सिंधु पासुनि सेतुबंधपर्यंत समर 'भू' लढविली।

किंतु यह यशस्विता की प्रक्रिया पूरी होने के पूर्व ही अचानक दूसरा प्रबल आक्रमण सामने आया, अंग्रेजों का। सैनिकी एवं राजनीति के क्षेत्र में यह जो प्रक्रिया हुई उसी की पुनरावृत्ति आज हमारे 'वैचारिक' क्षेत्र में भी हो रही है। पुराने मिथकों के खिलाफ हम यशस्विता से आगे रहे हैं, उतने में नए मिथकों का आक्रमण तेजी से प्रारंभ हुआ है। यहाँ ध्यान रखने योग्य विशेष बात है, ऐतिहासिक कालखंड में आक्रमण का स्वरूप भीषण है। वह हमें अधिक समय देने वाला नहीं। शीघ्रता से इसका प्रतिकार न किया तो एक दशक के अंदर अंदर यह आक्रमण हमारी स्वतंत्रता तथा संप्रभुता को खत्म कर देगा। देश में बेरोजगारों की संख्या करोड़ों हो जाएगी, स्वतंत्रता एवं संप्रभुता नष्ट हो जाएगी। इस गलत प्रचार अभियान (न्यू मिथ्स) का प्रारंभ जून 1945 से ही हुआ और साम्राज्यवादी देशों को अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति के दबाव के कारण उनके उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्रदान करने को बाध्य होना पड़ा। उनकी अपनी अर्थव्यवस्था का ढाँचा बनाए रखना उनके लिए संभवनीय नहीं रहा। क्योंकि तब तक की उनकी समृद्धि उनके उपनिवेशों के शोषण के आधार पर ही खड़ी थी। उनकी अपनी अर्थव्यवस्था टूट न जाए, इसलिए उनके लिए आवश्यक और अपरिहार्य हो चुका था कि अन्य देशों का शोषण करने का अवसर उन्हें फिर भी अखंड प्राप्त होता रहे।

किंतु यह कैसे संभव हो सकता था? क्योंकि नव स्वतंत्र देशों स्वाभिमानी देशभक्त यह कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकते कि स्वाधीनता के पश्चात् भी उनके देशों का शोषण गोरे विदेशियों के द्वारा चलता रहे और उन्हें आर्थिक गुलामी में ढकेलते रहें। इसलिए उनकी रणनीति इस तरह की तय हुई कि नव स्वतंत्र देशों में उनके लिए अनुकूल ऐसे ही लोग हुकूमत में आ जाएँ, इस दृष्टि से व्यवस्था करना। इसके लिए आवश्यकता होने पर खून खराबा भी करना पड़े तो करना। ऐसा अनुकूल शासन इस तरह का होना चाहिए कि जो गोरे साम्राज्यवादी देश यदि अपनी जनता का शोषण करेंगे तो भी उनके साथ निःसंकोच बेशर्मी के साथ पूर्ण सहयोग करेगा। अपने देश के साथ गद्दारी करने में जिनको संकोच नहीं होगा। सारी जनता को अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के बारे में पूर्णरूपेण अंधेरे में रख कर उनके राज्यकर्ताओं के साथ समझौते करना, इन समझौतों का पूर्ण ब्यौरा प्रकाशित न करते हुए उनके 'मीठा मीठा गप गप' ऐसे ही समाचार प्रकाशित करना, और फिर समझौतों का क्रियान्वयन करते समय जब वे जनविरोधी ढंग के कारण अखरने लगें तब लोग नाराज भले ही हो जाएँ, किंतु प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं रहेंगे। (They will be perplexed not knowing what to do) आकाश में से एकदम कुल्हाड़ी गिर जाए तो आदमी जैसा भ्रमित होता है वैसी उनकी अवस्था होगी। ऐसे देशों के स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त, विदेशी आर्थिक साम्राज्य के विरोध में जनता को जागृत करने के लिए कौन कौन से तर्क प्रचारित करेंगे, उसे पहले से ही ठीक ढंग से भाँपकर ऐसे संभवनीय तर्कों को काटने के लिए इस तरह का मिथ्या प्रचार चालू करना जिसके धन एवं प्रचार से देशभक्तों के तर्क निष्प्रभ हो जाएँगे। इसलिए बहुत सारे झूठे तर्क पहले से प्रचारित किए गए।

यह इतिहास था कि प्रचार का बहुत लाभ होता है। जैसे डॉ. गोबेल्स कहा कि झूठ सौ बार कहिये, वही सच बन जायगा। (Repeat the lie hundred times and it becomes the TRUTH)- हिटलर ने एक कदम आगे जाकर कहा, झूठ बात का भी जबरदस्त पुलिंदा हो ताकि कोई सोच भी न सके कि वह ढकोसला होगा। (If you want to give a lie, do not give a simple lie. Give a big bluff, so big that nobody will be able to imagine that it is a bluff) अब नए मिथक (Myth) अभी अभी आए हैं। World Bank, International Monetory Fund, World Trade Organisation, Multinationals, America और अन्य जो गोरे देश हैं उनका प्रचार बहुत दिनों से चलने के कारण सभी लोगों के मन पर ही नहीं, हमारे भी मस्तिष्क पर उनका असर हुआ है। प्रचार का परिणाम होता है और यह बात कितनी गंभीर है यह न जानने के कारण 'थोड़ा बहुत फर्क पड़ेगा।' '19-20 का फर्क होगा।' 'उससे क्या फर्क पड़ता है, बाद में देखेंगे।' ऐसे विचार कुछ अपने भी मन में आने लगे हैं। ऐसे लोग देशभक्त और समर्पित होते हुए भी समझते नहीं हैं।

इसका मुझे अभी अभी अनुभव आया। हमारे दो अच्छे संघ के पुराने कार्यकर्ता थे। हमारे साथ उनकी बहस चलती थी कि आप टेक्नालॉजी के बारे में ऐसी दकियानूसी नीति क्यों अपनाते हैं। हमने कहा कि राष्ट्रीय टेक्नालॉजी नीति होनी चाहिए। वे बोले इतनी संकीर्णता क्यों? टेक्नालॉजी जितनी आधुनिकतम रहेगी उतना देश आगे बढ़ेगा। अभी 'ऑर्गेनाइजर' में एक लेख छपा था। 'स्वदेशी एवं टेक्नालॉजी'। उसमें टेक्नॉलाजी का विकास कैसे हुआ, कहाँ तक आया, उसके परिणाम क्या हैं आदि बताया। टेक्नालॉजी का विदेशी आदर्श क्या है यह बताया। बहुराष्ट्रीय भी यहाँ आएंगे तो उनका आदर्श यही रहेगा, 'ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। अभी यूरोपियन कम्युनिटी ने कमिटी बिठायी, छह छोटे देश इटली, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम आदि पर टेक्नालॉजी का क्या असर हुआ, यह देखने के लिए। वहाँ भी अत्याधुनिक टेक्नालॉजी के कारण लाखों लोग बेरोजगार हुए। अमेरिकन कांग्रेस की हाऊस कमिटी के अध्यक्ष जॉर्ज इ. ब्राउन ने प्रकट रूप से वक्तव्य दिया कि अमेरिका में बेकारी बहुत बढ़ने का प्रमुख कारण टेक्नालॉजी है। "American Federation of Labour" टेक्नालॉजी का विरोध कर रही है। जब हम अमेरिका का नाम लेते हैं तो छिपा कर के ऐसा मत समझें की हम सभी अमेरिकनों के खिलाफ हैं। साधारण अमेरिकन नागरिक हमारे जैसा भोला और अज्ञानी है। हम जब अमेरिका का नाम लेते हैं तो वहाँ जो पूँजीवादी और शासकों की साँठगाँठ है, उसकी हम आलोचना कर रहे हैं। (The nexus between the rulers and the veiled interests of United States) आप अंदाज नहीं कर सकते कि ये लोग कैसे हैं। आप सज्जन हैं इसलिए आप कल्पना नहीं कर सकते। उन्होंने देखा छोटे-बड़े देशों का शोषण करने में समय लग रहा है, धीरे-धीरे वहाँ के लोग जागृत हो रहे हैं, प्रतिकार कर रहे हैं। यूरोप के लोग भी अब पहले के समान उनके बिलकुल बगल बच्चे बनने से इन्कार कर रहे हैं। जिस चीन और जापान की हालत ऐतिहासिक घटनाक्रम के कारण ऐसी बनी थी कि दुम दबाकर भागते थे. आज बराबरी के नाते खड़े हो रहे हैं।

फिर एक नया अनुभव भी उन्हें आया। वे जानते हैं कि तृतीय विश्व के देशों में मजदूरों को पैसा कम देना पड़ता है। कच्चा माल सस्ते में मिलता है। किंतु वहाँ का उत्पादन उतना दर्जेदार नहीं होता जितना अमेरिका का। फिर भी पाँच-छः जगह उन्हें ऐसा भी अनुभव आया कि कम वेतन लेने वाले मजदूरों ने भी उतनी ही उत्पादन क्षमता एवं स्तर दिया। तो इनके मन में लालच पैदा हुआ। अमेरिकन पूँजी से जो नए उद्योग लगाएंगे क्यों न वे तृतीय विश्व के देशों में शुरू किए जाएँ? सस्ता कच्चा माल, और सस्ता मजदूर। इसके कारण लाभ की मात्रा बहुत बढ़ जाएगी। तो अमेरिकन पूँजीनिवेश, अमेरिका में न करते हुए विदेशों में करने की उन्होंने सोची, किंतु इसके कारण उनके अपने देशवासी बंधु (Flesh of their Flesh and Blood of their Blood-kith & kin) भी कितने बेरोजगार रह जाएंगे इसकी भी उन्होंने चिंता नहीं की। अमेरिका के जो उद्योग बीमार हो जाते हैं, उन्हें सहायता देने के बदले अमरीकी सरकार ने भी सोचा कि बीमार उद्योगों की सहायता के लिए बहुत ज्यादा डॉलर देने पड़ेंगे तो क्यों न ये सारे उद्योग उठाकर तृतीय विश्व में ले जाएँ? वहा उत्पादन होगा, लाभ की मात्रा ज्यादा रहेगी और ये उद्योग चलने लगेंगे। मुमकिन है उन उद्योगों में काम करने वाले उनके जो सगे अमरीकी नागरिक हैं वे सारे इससे भूखे मर जाएंगे, किंतु इसकी उन्होंने फिक्र नहीं की।

हमारे कहने का मतलब है कि उनकी इस मानसिकता की आप सज्जन लोग कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारी सज्जनता हमारी एक दुर्बलता है। हम जिन दुष्ट लोगों के संपर्क में आते हैं, वे इतने हैवान हैं कि उनको किसी भी प्राणी मात्र के बारे में प्रेम, दया, करुणा नहीं है। जो अपने ही देशवासियों को भी भूखमरी में डाल सकते हैं वे आपको फिक्र क्या करेंगे? ऐसा यह बहुत बड़ा आह्वान है।

किंतु अपने यहाँ उसके विषय में जानबूझकर लोगों को अंधेरे में रखा गया और उनके इस गलत प्रचार का ऐसा कुछ विचित्र परिणाम हुआ है कि इसके कारण अपने भी कुछ लोगों का सोचना है कि अरे भाई, फर्क कितना पड़ेगा? 19-20 का ही फर्क पड़ेगा। किंतु यह 19-20 का नहीं, +100 और 100 इतना अंतर है। -बहुत फर्क पड़ता है। देश बरबाद होगा। हमारे उद्योग उनके हाथ में जाएंगे। कृषि उनके हाथ में जाएगी। शोधकार्य उनके हाथ में जाएगा। हमारी संप्रभुता खत्म हो जाएगी। हमने पहला स्वतंत्रता संग्राम 1947 में जीत लिया, उसमें राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की। अभी यह Second War of Independence हमको लड़ना पड़ेगा, जो आर्थिक स्वतंत्रता की लड़ाई है। पहली लड़ाई एक तरफ अंग्रेज सरकार और एक तरफ भारतवासी, ऐसी थी। आज की लड़ाई केवल दो पक्षों में सीमित नहीं है। तीसरा विश्वयुद्ध चल रहा है। प्रारंभ हो चुका है। पहले दो विश्वयुद्ध सैनिक शस्त्रों से लड़े गए थे। यह तीसरा विश्वयुद्ध आर्थिक शस्त्रों से लड़ा जा रहा है। इस तीसरे विश्वयुद्ध अंतर्गत भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम यहाँ तेजी के साथ लड़ने की आवश्यकता है। उसकी तैयारी करने की आवश्यकता है। अच्छे अच्छे हमारे राष्ट्रभक्त, राष्ट्रसमर्पित लोग भी उनके गलत प्रचार के शिकार होकर और भीषणता को (Magnitude of the problem) न समझने के कारण कभी कभी स्वदेशी के बारे में गलत सोचते हैं। उन्होंने यह सारा समझने का प्रयास करना चाहिए । ये जो नए मिथक हैं इनका भी जनता में प्रचार करने की आवश्यकता है। इसका विरोध जो होगा वह जागृत जनता के द्वारा ही होगा।

वैसे तो मैं आप को बताना चाहता हूँ कि हमारी स्वतंत्रता बेची गई हैं। जिस समय पूर्व कांग्रेस सरकार ने गेट के कारनामे पर हस्ताक्षर किए और World Trade Organisation की सदस्यता स्वीकार कर ली, तभी हम बेचे गए हैं। उनके सामने एक चेतावनी थी। कनाडा के सत्ताधारी पक्ष ने ऐसे ही एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था जिसे North American Free Trade Agreement (NAFTA) कहा जाता है। जब वह समझौता कनाडा के लोगों के सामने आया तो 'मीठा मीठा गप' के रूप में आया, तो उन्होंने सोचा ठीक है, इसमें आपत्ति क्या है। पूर्ण सच्चाई सामने आयी नहीं थी। किंतु जब क्रियान्वयन शुरू हुआ तब पता चला कि यह तो घातक है। उसके खिलाफ असंतोष और आंदोलन शुरू हुआ। सत्ताधारी दल के लिए दुर्भाग्य से उसी समय आम चुनाव निकट आया। लोग इस बात पर नाराज थे, और जिस सत्तारूढ़ पक्ष ने समझौते पर हस्ताक्षर किए थे वह चुनाव में धुल गया। उनको संसद में मात्र दो स्थान मिले। विरोधी दल का शासन आया। विरोधी दल के प्रधानमंत्री ने पहला पत्र राष्ट्रपति क्लिंटन को लिखा- 'हम जानते हैं कि पूर्व सरकार के द्वारा किए हुए इकरारों का पालन करना नयी सरकार की जिम्मेदारी मानने का संकेत होता है, किंतु जो एग्रीमेंन्ट है वह स्पष्ट रूप से इतना अन्यायपूर्ण एवं अनुचित है कि मैं इस समझौते पर दुबारा वार्तालाप की माँग करता हूँ।' मैं समझता हूँ कि दुनिया के इतिहास में यह पहला ही अवसर है जब किसी प्रधानमंत्री ने यह भूमिका ली हो।

अपने देश में भी चुनाव आ रहे थे इसके कारण ऐसी कोई बात अनौपचारिक रूप से तय हुई थी कि 'भाई हमने हस्ताक्षर तो किया है, सब कुछ अमल में लाया जाएगा। किंतु आप जल्दी मत कीजिए। क्रियान्वयन की बात तेजी से मत कीजिए। तेजी से क्रियान्वयन करेंगे तो हमारा भंडाफोड़ होगा और चुनाव में हमारी वही हालत होगी जो कनाडा के सत्तारूढ़ पार्टी की हुई। तो चुनाव तक सब्र से काम लेना। हम फिर से सत्ता में आ जाएंगे तो सारा क्रियान्वयन समझौते के अनुसार हम करेंगे। फिर कोई हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता।' यह म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग थी। अब चुनाव में नतीजे विपरीत ही आए। उसके बाद क्या हुआ, आप जानते हैं। हस्ताक्षर करने वालों की सरकार नहीं बनी है। अब इस नयी परिस्थिति में क्या होगा? किंतु तय बात है कि एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर हुए हैं। Our country is already sold! हस्ताक्षर करने वाला जो शासन था. वह अब सत्ता में नहीं है। किंतु दूसरी भी बात है। जगह जगह देखा गया है। Hands of Foreign capital are too long कौन कौन खरीदे नहीं जाएंगे. इसकी सूची करना बहुत कठिन है। सारे स्कीम, सारे घोटाले, आप पढ़ रहे हैं। People are purchased. Leaders are purchased. यह स्पष्ट बात है।

ऐसी परिस्थिति में हम खड़े हैं और इसमें से रास्ता निकालना है। वह जन जागरण के भरोसे ही निकलता है। सभी देशभक्त लोग एक मंच पर आ कर इसका विरोध करेंगे तभी इसका मुकाबला हो सकेगा। इस परिस्थिति में हम हैं। जो पुराने मिथ्स का उल्लेख नहीं किया क्योंकि इसका सारा प्रचार स्वदेशी जागरण मंच से चल रहा है, उसका पुनरुच्चारण आवश्यक नहीं, किंतु इस परिस्थिति में हम खड़े हैं। बाकी जो राजनीतिक क्षेत्र में चल रहा उसमें भी भारी गड़बड़ है, हम सब लोग जानते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में उथल-पुथल चल रही है।

अब इस परिस्थिति में स्वाभाविक विचार आता है कि इतने जो आह्वान हैं, तथा उन पर कोई उपाय है? बीमारी बता दी, किंतु इलाज क्या है? वैसे तो अंग्रेजी कहावत है रोग का सही निदान हो गया तो समझना आधी बीमारी अच्छी गयी correct diagnosis is halfcure! फिर इलाज भी तय करना होगा।

अब स्वाधीनता के पश्चात् हमारे देश में संविधान आया। जब भी संविधान की चर्चा करते हैं तो हमारे ही कुछ लोग इसका गलत अर्थ लगाते हैं कि यह डॉक्टर आंबेडकरजी के खिलाफ बोलते हैं। ऐसा नहीं है। तो संविधान के बारे में बोलना यह कोई उनके बारे में बेइज्जती की बात नहीं है। हम उनका बड़ा सम्मान करते हैं।

संक्षेप में कहना होगा तो यह British type Constitution हमारे लिए सही नहीं होगा। जिनका कोई निजी स्वार्थ साधने की दृष्टि नहीं थी, वे पहले से चेतावनी दे रहे थे। 1908 में पूज्य महात्मा गांधी जी ने हिंदू स्वराज्य में कहा था ये ब्रिटिश पार्लियामेंटरी सिस्टम हमारे लिए योग्य नहीं। है। 1914 में योगी अरविंद ने कहा कि हमारे देश में एक हो सिस्टम काम कर सकता है वह है 'Govt. of Interests'! कार्य क्षेत्रों के अनुसार प्रतिनिधित्व (Functional representation) की जो बात बाद में आयी है। वही है Govt. of Interests! 1926 में जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जो जेल में थे उसमें उन्होंने आत्मकथा लिखी, उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा को यह majority-minority वाली डेमोक्रेसी हिन्दुस्थान में आती है, तो चुनाव के समय भारी भ्रष्टाचार होंगे और वह भ्रष्टाचार कंवल चुनाव के समय तक सीमित न रह कर बहुत फैलेगा। 1926 में उन्होंने यह लिखा। स्वराज्य प्राप्ति के थोड़े दिन पहले मानवेंद्रनाथ रॉय ने-जिन्होंने दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन किया-कहा कि यह ब्रिटिश पार्लियामेंटरी पद्धति उसी देश के लिए उपयुक्त है जहाँ लोक प्रबोधन पर्याप्त हो। जहाँ वह पर्याप्त नहीं हैं, वहाँ यह काम नहीं कर सकती। उनके किसी शिष्य पूछा कि. 'करोड़ो लोगों का देश है, इनको साक्षर बनाना, शिक्षित बनाना, फिर वे देश का कारोबार देखेंगे, इसमें कितना समय लगेगा? क्योंकि लोकतंत्र का मतलब होता है शासन की निर्णय प्रक्रिया में हर नागरिक का सहभाग होना। मात्र मतदान करना यही लोकतंत्र का मतलब नहीं है और इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता है। करोड़ों लोगों के सुशिक्षित करने में कितना समय लगेगा?' उनका उत्तर बड़ा अच्छा था जिसका हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी प्रयोग करते हैं, "It may be the longest way, but if it is the only way, then it becomes the shortest way!"

आज लोक प्रबोधन की स्थिति क्या है? हम जानते हैं, जब संविधान की रचना हुई तो 'फेडरल स्ट्रक्चर' नहीं होना चाहिए । डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने भी कहा, 'यहा फेडरल स्ट्रक्चर नहीं है।

"Indian Union" इस शब्द का प्रयोग मैंने जानबूझकर किया है, ताकि आने वाली पीढ़ियों में गलतफहमी न हो कि यह कोई फेडरेशन है।' आंबेडकर जी ने यह स्पष्ट कहा था। उसके पश्चात् जब संविधान की त्रुटियों के बारे में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, स्वयं डॉ आंबेडकर सभी ने जगह जगह पर अपना असंतोष प्रगट किया था। फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण, विनोबाजी भावे, एम. एन. रॉय आदि ने यह प्रश्न खड़ा किया कि क्या राजनीतिक पार्टियों की पद्धति जनतंत्र के लिए अनुकूल ? एम्. एन. रॉय की जो पुस्तक है, "Party, Power and Politics' है उसमें यह चर्चा है कि क्या राजनीतिक पक्ष लोकतंत्र का माध्यम बन सकते हैं? यही चर्चा जयप्रकाश नारायण ने अपने प्रजा समाजवादी पक्ष से त्यागपत्र के समय की थी। उन्होंने कहा कि 'मुझे लगता है, राजनीतिक पक्ष प्रजातंत्र की भूमिका नहीं निभा सकता, पक्ष के अंतर्गत भी लोकतंत्र आवश्यक है। परमपूज्य श्रीगुरुजी ने थाना में कुछ सुझाव दिए थे। उन्होंने कहा था, "This Constitution can not be the product of the soill" कदम बदलना भी नहीं, किंतु दो बातें कही थीं। एक तो कहा कि "territorial representation के साथ-साथ functional representation भी होना चाहिए । मतलब ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के साथ साथ कार्य गुटों का प्रतिनिधित्व भी लाया जाए। इस हेतु कैसी व्यवस्था करना यह सर्वमत से तय हो सकता है। दूसरी बात उन्होंने कही कि सबसे छोटी इकाई में चुनाव निर्विरोध ही होना चाहिए। (Unanimous election at the lowest unit)' जब मैं थाना से दिल्ली लौटा, तब अपने एक साम्यवादी सांसद मित्र से मैंने यह निर्विरोध चयन की बात बतायी। तो उन्होंने कहा 'नॉन-सेंसिकल!' यही 'प्रोग्रेसिव्ह' लोगों की भाषा होती है। मैंने इतना ही कहा, 'आपका कहना सच हो सकता है। आप भी अनुभवी हैं, किंतु एक ही बात मुझे स्मरण हो रही है। मुहम्मद साहब के जीवन में उनको ईश्वरीय अनुभूति (रिव्हीलिएशन) उम्र 40 की अवस्था में हुई। उसके बाद उन्होंने प्रचार कार्य शुरू किया। उनके जीवन के अंतिम चरण में अरब क्षेत्र में इस्लाम चारों ओर फैल गया था। वे बूढ़े हो चले थे। मक्का से बहुत दूर एक गाँव में उनके शिष्यों में विवाद बताया और कहा कि 'साहब आप हमारे गाँव चलिए क्योंकि अपने ही पंथ में गुट बने हैं। मोहम्मद साहब ने कहा 'एक तो मेरी उमर बड़ी है, यातायात के साधन कम हैं। जहाँ विद्वान लोग साथ बैठते हैं, वहाँ मतभेद हो ही सकते हैं। इस्लाम इतना दूर दूर तक फैला है कि जहाँ-जहाँ मतभेद हो वहाँ वहाँ मैं जाकर हल ढूँढता रहूँ तो यह शारीरिक दृष्टि से भी असंभव-सा है। मैं नहीं आता।'

शिष्यों ने पूछा, फिर निर्णय कैसे होगा? मुहम्मद साहब बोले.' आप सब गाँववाले इकठ्ठे बैठ कर एक अमीर को एकमत से चुनें। अमीर याने नेता या अध्यक्ष। एकमत से अमीर चयन करें, और उसका जो फैसला होगा वही मेरा फैसला माना जाए।' उन लोगों ने कहा, 'साहब यही तो गड़बड़ है। जहाँ दो गुट हैं वहाँ एकमत से चुनाव कैसे हो सकता है? तो आप कम से कम अमीर की योग्यता के निष्कर्ष तो बताइये।' मुहम्मद साहब ने कहा जो अमीर बनने की इच्छा न रखता हो उसे ही बनाइए। इस पर हमारे कम्युनिस्ट सांसद ने कहा, 'हाँ! There is some grain of truth in it!' हमने कहा, 'मोहम्मद साहब ने बोला तो grain of truth मालूम होता है, एम. एस. गोलवलकर साहब ने बोला तो 'नॉन सेन्सिकल' हो जाता है। तथाकथित प्रगतिशील अतिवादी अर्थात गैर जिम्मेदार लोगों की यही परिपाटी होती है। लेकिन इतने से भी समाधान होने वाला नहीं था। वर्तमान संविधान चलता रहे, उसमें हम कुछ सुझाव दें, थोड़े संशोधन हों, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। थाना के बैठक के कई वर्ष पूर्व ही पंडित दीनदयाल जी से श्रीगुरुजी ने कहा था कि भाई राष्ट्रहित के परिपूर्ण दृष्टिकोण के आधार पर इस संविधान का अपना विकल्प भी हम लोगों ने पेश करना चाहिए । अत: दीनदयाल जी ने सघन चिंतन, मनन के साथ एकात्म शासन प्रणाली का सूत्रपात किया।

'एकात्म' शब्द की व्याख्या करते समय में वहाँ था। बड़ी कठिनाई है। वास्तव में एकात्म का अनुवाद अंग्रेजी integral होता है। एकात्म मानवता याने integral humanism किंतु प्रचलित दुनिया के राजनीतिक क्षेत्र में दो ही शब्द प्रचलित थे। 'यूनिटरी' और 'फेडरल'। यह Integral शब्द लोगों को समझता नहीं, जँचता नहीं। इसलिए साधारण जनता की समझदारी के स्तर के अनुसार शब्द रखना पड़ा।- 'यूनिटरी'। अभी- अभी कुछ राजनैतिक दलों ने कहा है कि पहले हमने भाषावार राज्य रचना का समर्थन किया, किंतु अब हमें लगता है कि राज्य छोटे होने चाहिए । यदि वे 'एकात्म शासन प्रणाली' को देखते तो उन्हें पता चलता कि आज कठिनाईयाँ आ रही हैं उन्हें दीनदयाल जी ने पहले ही भाँप लिया था. इसलिए उन्होंने कहा था कि मूलतः छोटी इकाई Basic unit समान स्थानीय विशिष्टताओं के आधार पर होनी चाहिए । (Region with common local characteristics)। भाषा एक पहलू हो सकता है. किंतु एकमात्र नहीं। उन्होंने कहा कि पारंपरिक रूप से हमारे यहाँ 55 से 60 तक ऐसे यूनिट मानकर हम चले थे शायद अभी भी हम छाँट सकते हैं। उन्होंने छाँटना शुरू किया था । अब ये common local characteristic याने महाराष्ट्र में जैसे आज एक विदर्भ है, कोंकण है, मराठवाड़ा है, जिनकी common characteristics हैं। गुजरात में दक्षिण गुजरात, उत्तर गुजरात है। आंध्र में भी है। common local characteristic वाले ये 'जनपद' हैं। दीनदयाल जी के पश्चात् जहाँ-जहाँ झगड़े खड़े हुए वहाँ आप यही भाव देखेंगे, कारण तो स्पष्ट है कि बड़े राज्य की सरकारें अपने छोटे विभागों के लिए सतर्क नहीं रहतीं इसलिए वहाँ असंतोष रहता है।

लेकिन जहाँ-जहाँ झगड़े खड़े हुए, मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वे सभी क्षेत्र पंडित दीनदयाल जी की धारणा के अनुसार जनपद ही थे। खालिस्तान, नागालैंड, मिजोरम, वनांचल, झारखंड, विदर्भ, तेलंगाना आदि जहाँ-जहाँ आज झगड़े खड़े हुए हैं वे जनपद ही हैं। किंतु दीनदयाल जी के पश्चात् इस बात पर आवश्यक ध्यान नहीं दिया गया। इस प्रकार की वैकल्पिक व्यवस्था की बात गुरुजी के मस्तिष्क में थी।

अब अपने सामने इस पर गम्भीर समस्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि सारी अस्थिरता है। हमारे यहाँ सर्वश्रेष्ठ अधिकार (सुप्रीम अॅथॉरिटी) धर्म का रहा है, राजा का नहीं। राजदंड, धर्मदंड के अंतर्गत है। पश्चिम में सर्वोच्च अधिकार राजसत्ता का है। पश्चिम से हमारे यहाँ एक दूसरी भ्रांति आयी है (another myth) पश्चिम के अनुसार राजसत्ता सर्वोच्च है, इसलिए राजसत्ता हर एक बात कर सकती है। अतः हम कुछ भी गड़बड़ करके सत्ता में आ जाएंगे- एक बार सत्ता प्राप्त करने पर सब कुछ ठीक कर देंगे। अर्थात 'राजसत्ता सब कुछ कर सकती है यह भ्रांति हमारे देश में भी आयी। यह नहीं समझते कि साधन-शुचिता के अभाव में, गलत साधनों का प्रयोग करके यदि हम सत्ता प्राप्त करते हैं। तो उसके द्वारा हम सही ध्येय प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यह सोचने के लिए धीरज (पेशेंस) की आवश्यकता है। आजकल सभी लोग बहुत जल्दी में हैं, कहाँ जाने की जल्दी में हैं पता नहीं। यही है सत्ता के विषय में एक भ्रांति।

जहाँ राजसत्ता को सर्वश्रेष्ठ माना गया था वहाँ भी अब एक नयी चर्चा शुरू हो गयी है। हमारे देश में वह चर्चा प्रारंभ होने में और कुछ साल लगेंगे। अभी तक वामपंथीय एवं दक्षिणपंथियों में चर्चा थी कि शासन क्या करें और क्या न करे। साम्यवादी कहते थे कि शासन सब कुछ अपने अधिकार में करे। पूँजीवदियों का कहना था कि शासन कम से कम विषय अपने हाथ में रखे। किंतु ऐसा विवाद करने वाले दोनों पक्ष मानते थे कि शासन सब कुछ करने की क्षमता रखता है। अब आज नयी चर्चा शुरू हुई है कि शासन क्या कर सकता है और क्या कर ही नहीं सकता। सब कुछ बातें शासन करे ऐसा सोचने पर भी, क्या वह संभव है? कई कारणों से हरेक काम संपन्न करने की क्षमता शासन में होती ही नहीं। यह बात अब प्रकाश में आने लगी है।

व्यवस्थापन शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता पीटर डकर ने ही यह विवाद वहाँ छेड़ा है, और इस पर वहाँ चर्चा चल रही है। हमारे देश में अभी भी वर्षों पुराना पश्चिमी प्रभाव है कि राजसत्ता हथियाने पर हम सब कुछ कर सकेंगे। दूसरी बात चुनाव में एकमात्र हिंदुत्ववादी दल होने के कारण संघ ने भाजपा का समर्थन किया। किंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य के बारे में एवं राजनैतिक पक्ष के कार्य के स्वरूप के विषय में पहले से स्पष्ट धारणाएँ थीं। राष्ट्रनीति, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राजनीति के पारस्परिक संबंधों के विषय में मैं इतना ही कहूँगा कि परमपूज्य श्री गुरुजी के कुछ भाषण 'ध्येय दर्शन' पुस्तिका में ग्रंथित हुए हैं, वह पुस्तिका आप पढ़ेंगे ताकि राष्ट्रनीति, संघ और राजनीति के संबंधों का विश्लेषण आपके ध्यान में आएगा।

संघ की धारणा है कि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संपूर्ण हिंदू समाज का दर्शन है।' धारणा के धरातल पर संघ एवं समाज का सह-अस्तित्व है, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संघ सारे समाज के साथ एकरूपता की भूमिका रखता है। वह कोई गुट, पार्टी या राज्य नहीं है, समाज का अंश या हिस्सा मात्र नहीं है। समाज के अंदर अलग इकाई बनाने की संघ की धारणा नहीं है। संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित रूप प्रदान करने की संघ की मंशा है। (Psychologically, Sangh is identified with the entire society. Sangh is not a part of the society. Sangh does not want to create the organisation within the society. Sangh wants to build the entire Hindu society and make it as an organised state of affairs.) यही प्रमुख भूमिका है। इसी के अनुसार पहले से काम चला है।

फिर भी राजनैतिक मुद्दों का, क्षेत्रों का कुछ महत्व होता है और उसके कारण खतरा जब बढ़ता है तब राष्ट्रहित के नाते चिंता करनी पड़ती है। परमपूज्य डॉक्टर जी के जीवनकाल में भी ऐसा एक प्रसंग आया कि हमारी मूल भूमिका व्यापक होते हुए भी संघ संपूर्ण समाज का दर्शन है, राजनैतिक क्षेत्र के बारे में सोचने की आवश्यकता पड़ी। वह था रेम्जे मेकडोनाल्ड उस ने "Govt. of India Act, 1935" के अंतर्गत जब कम्युनल अवॉर्ड दिया। गांधी जी और कांग्रेस की स्थिति बड़ी पेचीदा हो गयी। वह अवॉर्ड स्पष्ट रूप से राष्ट्रविरोधी (anti-national) होने से उसको स्वीकार करना संभव नहीं था। किंतु उसको नकारने पर तो मुसलमान नाराज हो जाएंगे, इसलिए कांग्रेस ने चुनाव के समय यह नीति अपनायी कि कम्युनल अॅवॉर्ड के बारे में मौन रखना। (We neither accept, nor reject.) डॉक्टरजी उनसे कहते थे, "neither accept nor reject" का क्या मतलब है? तुम्हारे मकान में चोर घुस आया है, हम पूछते हैं कि आपकी नीति क्या है, तो आप उसका स्वागत भी नहीं करते, और उसको बाहर भी नहीं निकाल सकते?

इस स्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक राष्ट्रवादी होने के कारण, उस समय कम्युनल अवार्ड का विरोध करने वाली कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा थी उनका काम स्वयंसेवकों ने व्यक्तिगत तौर पर किंतु खुलेआम किया। संघ द्वारा अपने नाम से कोई वक्तव्य नहीं दिया गया किंतु खुलेआम स्वयंसेवकों ने काम किया।

किंतु उसके पश्चात् स्वयंसेवकों का काम देखकर वे नेता लोग खुश हो गए। उनको लगा कि ये वालेंटियर अच्छे हैं। उन्होंने स्वयंसेवकों से कहना शुरू किया कि आप हमारे वालेंटियर बन जाइए। आपको समझना-बूझना कुछ है नहीं, हम नेता हैं, हम आपको काम बताएंगे, आप हमारे मार्गदर्शन में चलें। तो संघ के स्वयंसेवकों ने कहा कि हम यह मानने के लिए तैयार नहीं। हमारा संगठन राजनैतिक दल के अंतर्गत संबद्ध नहीं रह सकता। एक विशेष परिस्थिति में विशेष मुद्दे को लेकर हमने सहयोग किया है, किंतु 'संघ याने संपूर्ण हिंदू समाज' यही हमारी भूमिका रहेगी।

जनसंघ की स्थापना होने के बाद पहले चुनाव संबंध में परमपूज्य श्री गुरुजी का मतदाताओं को मार्गदर्शन करने हेतु जो वक्तव्य प्रकाशित हुआ वह पठनीय है। वैसे ही पिछले चुनाव के पूर्व सरकार्यवाह माननीय शेषाद्रि जी ने एक परिपत्र जारी किया था। उसकी भूमिका, गुरुजी की भूमिका, और डॉक्टरजी के समय की भूमिका समान है। इससे स्पष्ट होता है कि संघ राष्ट्रनीति में है, राजनीति में नहीं है तब मजबूरी से तात्कालिक कार्य हमारे स्वयंसेवक करते हैं। इस 'लक्ष्मणरेखा' को समझना चाहिए। एक बिन्दु पर और सोचना आवश्यक है। आज की परिस्थिति का मूल्यांकन क्या है?

हिंदू समाज रचना जब कभी आएगी , उसको लाने में समय लगेगा। आज जो समस्याएँ निकट हैं, वे क्या हैं, यह खोजना चाहिए । कई लोग सोचते हैं कि 'हमने अपने धरातल के अनुकूल (product of the soil) संविधान नहीं बनाया, इंग्लैंड की नकल उतारी है लेकिन इंग्लैंड की नकल हम पूर्णरूप से नहीं कर सकते। लोगों के खयाल में नहीं आता कि यह असंभव है। लोग ऊपरी तौर पर देखते हैं। कहते हैं कि जैसी रचना इंग्लैंड में सभी महिलाओं को मतदान का अधिकार है, हमारे यहाँ भी है। वहाँ लोकसभा है, हमारे यहाँ भी है। संसदीय कार्य पद्धति जैसी वहाँ है वैसी यहाँ भी है। किंतु इंग्लैंड में जैसे परिणाम मिलते हैं, वैसे हमारे यहाँ क्यों नहीं मिलते? वैसे इंग्लैंड के लोग भी नहीं मानते कि उनकी रचना सर्वोत्तम है। उनकी केवल इतनी ही मान्यता है कि उस में त्रुटियाँ अत्यल्प हैं।

किंतु क्या कभी सोचा है कि वहाँ जो सारी रचना बनी वह किस ऐतिहासिक घटनाक्रम में से (historical course of events) आयी और हमारे यहाँ जो रचना यकायक बनायी गयी वह किस घटनाक्रम के फलस्वरूप आयी है? इंग्लैंड के इतिहास में राजा (मोनार्क) सर्वश्रेष्ठ था। उसके खिलाफ अपने अपने अधिकारों के बारे में लोग असंतोष प्रकट करते थे, किंतु राजा सर्वशक्तिमान था। फिर जो विविध हितों के गुट (Interest groups) थोड़े जागृत हुए उन्होंने थोड़ा प्रभाव डालना प्रारंभ कर दिया। 'पार्लियामेंट' शब्द प्रचलित नहीं था, किंतु संस्था के रूप में 'किंग्ज कौंसिल' 11वीं शताब्दी में हेनरी (प्रथम) ने बनाया, जिसे हम संस्था के नाते पार्लियामेंट का सूत्रपात कह सकते हैं। पार्लियामेंट यह शब्द 13वीं शताब्दी में आया। 1215 में एक ऐतिहासिक घटना वहाँ हुई जिसे कहते हैं 'मेग्ना कार्टा।' किंग जॉन ने 'मेग्ना कार्टा' पर हस्ताक्षर किए और किंग्ज कौंसिल में सदस्यों की संख्या बढ़ायी। अन्यान्य हितों के गुट सामने आए थे, उनके भी प्रतिनिधियों को लिया गया। और उसी को पार्लियामेंट संज्ञा दी गयी। फिर भी राजा के सर्वाधिकार बने रहे। पार्लियामेंट केवल उपदेशक एवं सलाहकार (advisory and recommendary) के रूप में थी। पार्लियामेंट को सर्वाधिकारी (Supreme Authority) का रूप प्राप्त होने में और चार शताब्दियाँ लगीं। 1628 में जो क्रांति हुई, जिसे वे गौरवपूर्ण क्रांति (Glorious Revolution of Britain) कहते हैं, उसके पश्चात् ही निर्णायक रूप से प्रस्थापित हुआ कि पार्लियामेंट सर्वोच्च और राजा का स्थान उससे निम्न रहेगा। फिर भी मतदान का अधिकार कितने लोगों को था? बहुत थोड़े प्रतिशत में था। अप्रैल 1832 में उन्होंने एक कानून मंजूर किया जिसे 'लोकसत्तात्मक पद्धति में लंबी छलाँग' (along leap in the way of democracy) कहा जाता है। उसके अनुसार कुछ गृहस्वामियों को मूल्यांकन के आधार पर मतदान का अधिकार प्राप्त हुआ फिर भी मतदाताओं की मात्रा जनसंख्या के केवल 10 प्रतिशत तक बढ़ी। यह 1832 की छलाँग भी बड़े संघर्ष के बाद उन्होंने प्राप्त की। उसके बाद फिर 1867,1882, 1918 और 1928 में शनैः शनैः सुधार करते हुए 1928-29 में प्रौढ़ मतदान का अधिकार सबको मिला।

इंग्लैंड में मेग्ना कार्टा हुआ, 1215 में किंतु पार्लियामेंट के लिए सब महिलाओं को मतदान का अधिकार 1918 में मिला। सात शताब्दियों के बाद। और इतने लंबे कालक्रम में अलग-अलग हितों के गुट संगठित होते रहे, संघर्ष करते रहे। 700 साल के संघर्ष के पश्चात् प्रौढ़ मताधिकार वहाँ आया। जहाँ संघर्ष चलता है वहाँ लोक शिक्षा भी होती है, संघर्ष के कारण एक संस्कार भी होता है। एक मानसिकता है।

हमारे यहाँ भी महिलाओं को अधिकार मिला है। प्रौढ़ का अधिकार है, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में घटनाचक्र क्या है? हमारे यहाँ यह कैसे हुआ? संसदीय पद्धति हमारे यहाँ 1920 में आयी। किंतु उस रचना के अंतर्गत कितने लोगों को मताधिकार प्राप्त हुआ था? Council of State के लिए मताधिकार मिला 17,000 लोगों को और National Assembly के लिए मताधिकार मिला 9 लाख 9 हजार लोगों को। कुल मिलाकर 24 करोड़ लोगों को मताधिकार मिला। क्या इसमें एवं संघर्ष के कारण निर्माण होने वाले संस्कार, मिलने वाली राजनैतिक शिक्षा-दीक्षा, दोनों में अंतर नहीं रहेगा?

जैसे कोई आदमी अपने कौशल से गरीबी में से उठता है, एक-एक पैसे की बचत करता है, और धनी बनता है, अपना बंगला, और मोटरकार आदि लेता है, वह पैसे का मूल्य एवं प्रतिष्ठा जानता है। लेकिन चांदी का चम्मच लेकर मानसिकता होगी और पिताजी को मानसिकता, इनमें जो अंतर होता है उतना अंतर इंग्लैंड और हमारी व्यवस्था में है, यद्यपि ढाँचा समान है। मेरा मतलब यह है कि लोक शिक्षा ज्यादा से ज्यादा कैसे बढ़ेगी और यह शिक्षा मात्र महाविद्यालयीन न होकर राजनीतिक प्रशिक्षण भी कैसे बढ़ेगा इसकी चिंता करनी चाहिए । नेता लोग यह काम नहीं करते, क्योंकि यदि लोग ही शिक्षित हो जाएंगे तो उनकी नेतागिरी का क्या होगा ?

अतः प्रचार होता है, किंतु शिक्षा नहीं होती। प्रचार का मतलब होता है आत्मस्तुति, परनिंदा। हम अच्छे हैं बाकी सब लोग खराब हैं। इससे काम नहीं बनता। प्रौढ़ मताधिकार को यदि सफल करना है, तो लोकशिक्षा। सभी का पूरा होना चाहिए, हमारे देश का भी यही अनुभव है। केवल औपचारिक शिक्षा के द्वारा जिम्मेदार मतदाता पैदा होने की कोई शाश्वतता नहीं।

परमपूज्य डॉक्टरजी देशभक्त थे, उनके समकालीन सभी राजनीतिक, गैर राजनीतिक कार्यों में उन्होंने हिस्सा लिया था। सभी देशी-विदेशी विचारधाराओं से उनका परिचय था। किंतु उनके मन में कुछ अस्वस्थता निरंतर रहती थी। उनके निधन के पश्चात् बंगाल के क्रांतिकारी- अनुशीलन समिति के ज्येष्ठ नेता श्री त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती महाराज जी ने एक वक्तव्य दिया था। उन्होंने कहा कि, केशवराव ने संघ की स्थापना तो 1925 में की, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि ऐसा कुछ कार्य प्रारंभ करने का विचार उनके मन में बहुत सालों से चल रहा होगा। क्योंकि क्रांति कार्य के लिए डॉक्टरजी जब बंगाल में थे । मुझे मिलते थे और कहते थे कि महाराज जी, हम स्वराज्य प्राप्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं यह तो बात ठीक ही है, क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र की यहीं माँग है कि स्वराज्य के लिए हम सारी कोशिश करें। लेकिन हमारे राजनेता एक बात जनता को बता रहे हैं कि एक बार स्वराज्य हाथ लगने दीजिए। एक बार राजसत्ता हाथ में आने दीजिए, सारी समस्याएँ हल हो जाएंगी, सुलझ जाएंगी प्रगति के रास्ते प्रशस्त हो जाएंगे। मुझे ऐसा नहीं दीखता। मुझे लगता है, जब तक हिन्दुस्थान का हर एक नागरिक राष्ट्रभक्त नहीं होता, उसकी राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं होता, और ऐसे लोगों का संगठन नहीं होता, तब तक राष्ट्र को कोई आशा नहीं है, केवल राजसत्ता के भरोसे यह नहीं हो सकता।"

अर्थात ध्येय दर्शन करते समय डॉक्टरजी ने 'बायफोकल विजन' का परिचय दिया। 'बायफोकल विजन' में नीचे की काँच में नजदीक का दीखता है, और ऊपर ये दूर का। एक और उन्होंने तात्कालिक लक्ष्य समझाया, 'स्वराज्य-हिंदू राष्ट्र का स्वराज्य'। वह शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त होना चाहिए। 'याचि देही याचि डोळा'। दूरदृष्टि की काँच से उन्होंने देखा 'परं वैभवम्' (Long range vision) जब तक हर नागरिक राष्ट्रभक्त एवं राष्ट्रीय चेतना से युक्त होकर संगठित नहीं होता, देश के लिए कोई भविष्य नहीं। आज जो कुछ हो रहा है, वह उच्च शिक्षा किंतु नीच संस्कारों के कारण हो रहा है। राष्ट्र समर्पण के संस्कार जब तक नहीं आते और इस तरह आम जनता जब तक संस्कारित नहीं होती, उनका संगठन नहीं होता तब तक देश को केवल राज्यकर्ताओं के भरोसे छोड़ना खतरे से खाली नहीं। लोक शक्ति का, जनशक्ति का दबाव राज्यशक्ति पर रहने पर राजशक्ति को ठीक ढंग से चलना ही पड़ेगा। धर्मदंड रहेगा तो राजदंड ठीक चलेगा; लेकिन अगर जनता में जागृति न हो, राष्ट्रीय चेतना का स्थैर्य न हो, दूसरे शब्दों में 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' यदि कमजोर रहा, तो फिर राजसत्ता के ठीक ढंग से चलने की कोई शाश्वती नहीं। राजशक्ति के ऊपर लोकशक्ति का दबाव होना होगा। राजसत्ता हाथी के समान है, अंकुश की आवश्यकता है। हमारी परंपरा में समाज का नैतिक नेतृत्व ही इस हाथी के गंडस्थल पर बैठकर जनशक्ति के रूप में अंकुश रखता था।

चुनाव होते हैं, गलत लोग आने के बजाय अच्छे लोग आने चाहिए । भाजपा के बारे में हम स्पष्ट रूप से बोल ही रहे हैं कि यही एकमात्र हिंदुत्ववादी दल है। जनता दल को छोड़कर हमारे स्वयंसेवक जब बाहर आए थे, वे भी संघ के लिए ही बाहर आए थे। हमारा भाजपा से सुसंवाद अच्छा है।

किंतु केवल इतने से नहीं होता। चर्चा होती है कि भाजपा का काम कैसे बढ़े? हमारी भी चिंता है। लेकिन सारी चर्चा जहाँ-जहाँ हम सुनते हैं, उतना ही सुनते हैं कि भाजपा का मतदान कैसे बढ़ेगा ? उनके लोग सत्ता में कैसे आएंगे? भाजपा को सत्ता में लाने के लिए, सत्ता में स्थिर रखने के लिए और शासन का उपयोग 'परं वैभवम्' हेतु करने के लिए जो क्षमता चाहिए वह क्षमता कैसे आएगी , इस पर विचार कहीं नहीं हो रहा है। पश्चिमी भ्रांति के अनुसार केवल यही सोचा जा रहा है कि हमारे हाथ में सत्ता आ जाएगी तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। जहाँ भाजपा को सत्ता में लोगों का विचार चलता है, वहाँ उसके पश्चात् ठीक काम करने की क्षमता भी निर्माण हो, इसकी चिंता करने की आवश्यकता है।

क्या केवल भाजपा को जैसे-तैसे (By hook or crook) हम सत्ता में लाएंगे? आजकल कहते हैं कि हम भी पैंतरेबाजी करेंगे, तिकड़मबाजी करेंगे। बाकी लोग तिकड़मबाजी कर सकते हैं, तो क्या हम नहीं कर सकते? हम क्या कम बुद्धिमान हैं? किंतु अपवित्र साधनों द्वारा उचित ध्येय सिद्ध नहीं होता।

यदि संघ की शक्ति बढ़ती है क्योंकि संघ संस्कारित है, नक्सलवादी भी प्रधानमंत्री होगा तो भी उसको डॉ. हेडगेवार भवन आना पड़ेगा; अन्यथा मैं स्वयं भी यदि प्रधानमंत्री बनता हूँ, मैं भी भ्रष्टाचार करूँगा। क्योंकि अपनी कमजोर शक्ति से आप मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं? अतः भरोसे की बात यदि कोई होगी, तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शक्ति।

इसी दृष्टि से ही राजनीतिक दलों का समर्थन करना चाहिए । भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, हमारे स्वयंसेवक जिन-जिन संस्थाओं में काम कर रहे हैं, उन सभी संस्थाओं का हमें समर्थन करना चाहिए। लेकिन इन सब संस्थाओं का काम, और संघ का कार्य इनमें अंतर क्या है समझना चाहिए । जैसा फोड़ा-फुंसी होता है, तो सहन न होने के कारण हम मरहमपट्टी करते हैं। मरहमपट्टी करना आवश्यक है, नहीं तो बड़ा दर्द होगा। किंतु एक जगह फोड़ा आया, मरहमपट्टी की; जब तक वह दुरुस्त होता है, और चार जगह आ जाते हैं। सोचना पड़ता है मामला क्या है? निदान नहीं होता कि मूल रूप से रोग क्या है यदि खून खराब है तो खून की खराबी कैसे दूर की जाए? उसका इलाज शुरू करना पड़ेगा, जिसमें समय लगता है।

मैं केवल राजनीतिक दलों की बात नहीं कर रहा हूँ। जैसे हमारी अन्य संस्थाएँ हैं। उनके काम का भी महत्व है। किंतु उनके काम का स्वरूप मरहमपट्टी करने जैसा है लेकिन बीमारी दुरुस्त करने के लिए समय लगता है, मेहनत करनी पड़ती है। खून की खराबी दूर करना, अर्थात संपूर्ण राष्ट्र को राष्ट्रसमर्पण के संस्कार देकर संस्कारित लोगों का अर्थात स्वयंसेवकों का संगठन करना ही वास्तव में इलाज है। तो यदि वास्तव में इलाज की जगह हम मात्र मरहमपट्टी करते रहे, तो काम नहीं बनेगा। भाजपा, भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, प्रज्ञा भारती, संस्कार भारती कैसे बढ़ेगी? ऐसी मरहमपट्टी हम जरूर करें। किंतु समझना चाहिए कि खून की खराबी यदि दूर करनी है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शक्ति बढ़ानी होगी, जिसका केंद्रबिंदु 'शाखा' है। शाखा- शाखा- शाखा! वह जितनी मजबूत होगी उसी मात्रा में राष्ट्र का पुनरुद्धार होगा।

डॉक्टर आंबेडकर ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि मात्र संविधान के आधार पर, कानून के आधार पर कोई भी राज्य ठीक ढंग से नहीं चल सकता। उन्होंने कहा, लोगों में संविधान के प्रति प्रामाणिकता (Constitutional morality) यदि है, तभी संविधान ठीक चल सकता है और इसका आधार सर्वकष नैतिकता (General morality) है, जो संस्कारों से आती है। तो मौलिक काम होगा, शाखा, संपर्क, संस्कार, स्वयंसेवक एवं संगठन! यही मौलिक काम है। उस पर यदि हमारा ख्याल नहीं रहता, तो आप मरहमपट्टी जीवन भर करते रहिए , रास्ता निकलने वाला नहीं!

सोपान-2

(कुछ प्रमुख बिन्दु)

· श्री गुरुजी के बारे में भी किसी ने यही कहा है, "परिणामों की परवाह न करते हुए इसी जल्दी के कारण अपने शरीर की मोमबत्ती उन्होंने दोनों तरफ से जलाई।" कई बार लोगों ने आग्रह किया कि विश्राम लेना चाहिए । किंतु वे कहते थे कि विश्राम आखिर में लेंगे। बाद में बहुत विश्राम है।

· अपने शरीर के साथ अखंड घोर अन्याय करते हुए वे प्रकाश देते रहे, जो सभी का मार्गदर्शन करनेवाला था। जैसे जीवन काल में वैसे मृत्यु में भी श्री गुरुजी ने हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है।

· प. पू. श्री गुरुजी का हमारे लिए जीवन संदेश क्या है यह इस प्रसंग में स्पष्ट होता है। एक विद्वान को हस्ताक्षर देते समय श्री गुरुजी ने लिखा है "मैं नहीं, तू ही", संपूर्ण आत्म समर्पण। जैसे नारद भक्ति सूत्र में कहा है "तद् सुखेन सुखितम्, To be happy in His happiness परमात्मा के चरणों में सब कुछ समर्पण कर देना, लोगों के लिए यही उनके जीवन का मार्गदर्शक संदेश है, वसीयत है। "

· मुझे स्मरण है कि बारह वर्ष पहले 'इंडिया टुडे' में एक लेख छपा था। इसका शीर्षक था 'व्हेयर आर दे नाऊ? उसमें इस साल पूर्व जिनके नाम तथा फोटो समाचार पत्र में नित्य आते थे, वह दशक समाप्त होते होते जिनके नाम लुप्त हुए थे ऐसे लोगों की सूची दी गई थी। तो ऐसी प्रसिद्धि से समाजोपयोगी संगठन निर्माण नहीं हो सकता। हम यह प्रत्यक्ष देखते हैं।

· स्वयंसेवक प्रचारक की याने कार्यकर्ता की वृत्ति कैसी है। इस पर बहुत कुछ निर्भर है। यदि संघ समर्पित है तो यह शक्ति बढ़ेगी और यदि व्यक्ति केंद्रित होगी तो यह शक्ति कभी निर्माण होगी ही नहीं, होगा नहीं और इसलिए परमपूज्य गुरूजी नित्य कहते थे कि आत्मविलोपी वृत्ति रहनी चाहिए।

· भगवान बुद्ध ने ऐसा कहा कि जहाँ उपेक्षा वृत्ति होगी वहाँ कार्य बढ़ेगा। जहाँ उपेक्षा वृत्ति नहीं होगी वहाँ कार्य नीचे जाएगा।

· आजकल लोकतंत्र के ताने-बाने में 'विचार' तो गौण रह जाता है और राजनीतिक जीवन में हाथ लगता है केवल 'प्रचार'। प्रचार तो केवल प्रचार होता है। इसलिए लोग 'विचार' की अपेक्षा 'प्रचार' के अधिक अभ्यस्त हो गए हैं। विचार तो केवल सत्यान्वेषी होता है। सत्य प्रचार के पैरों पर खड़ा नहीं होता। जन-समर्थन उसे मिले तो सोने पर सुहागा। किंतु यदि विशाल बहुमत उसका विरोध भी करे तो भी सत्य अपने बल पर टिकता है।

· अपने आर्थिक क्षेत्र में हमने आँख मूँदकर पश्चिमी प्रतिरूप का अनुसरण किया है, यथा उद्योग का आकार क्या होना चाहिए, प्रोद्यौगिकी कैसी होनी चाहिए, उद्योग कहाँ लगना चाहिए, उद्योग के स्वामित्व का स्वरूप कैसा होना चाहिए, हर बात में हमने पश्चिम का अन्धानुकरण किया है। हमने कभी यह नहीं सोचा कि हमारी परंपरा क्या है, इन बातों पर विचार किए बिना ही हमने पश्चिमी प्रतिमान को विकास का अपना आदर्श मान लिया।

· उत्तरी देश, विदेशी पूँजीपति तथा कुछ विदेशी सरकारें तृतीय जगत् के देशों में अपने आर्थिक साम्राज्य के क्षेत्र निर्माण करने के प्रयास में हैं। राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की दृष्टि से विकासशील देशों का परस्पर आर्थिक-औद्योगिक सहयोग अधिक उपयुक्त और व्यवहार्य है यह बात दोनों सोच रहे हैं।

· हमारे लिए राष्ट्रीयता एवं अंतरराष्ट्रीयता में कोई विसंगति नहीं है। ये तो मानव चेतना के विकास के विभिन्न पड़ाव हैं। सच्चा भारतीय जितना राष्ट्रीय है, उतना ही अंतरराष्ट्रीय विकासशील देशों के लिए आर्थिक भौतिक प्रगति का महत् अवश्य है। किंतु उतना ही महत्व आध्यात्मिक सभ्यता को भी देना चाहिए। आध्यात्मिक सभ्यता का विकास नहीं हुआ तो आर्थिक भौतिक प्रगति को स्थायित्व नहीं आ सकता। केवल भौतिकवादी मनुष्य स्वार्थी बनेगा; वह राष्ट्र का विचार नहीं करेगा।

· सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वामपंथी कुप्रभावों के फलस्वरूप जिस तरह की हानि हुई है, उस तरह की हानि को टालना ही राष्ट्रहित की दृष्टि से उचित है।

· राष्ट्रहित सर्वोपरी मानना, राष्ट्रहित को प्राथमिकता देना, यह यूनियनों का और मजदूरों का कर्तव्य है।

  • राष्ट्रहित, उद्योगहित और मजदूरहित ये तीनों बातें एक ही दिशा में जाने वाली हैं।

· राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता परस्पर विरोधी नहीं, तो परस्पर पूरक हैं। सभी राष्ट्र परस्पर सहयोग के आधार पर अपनी अपनी प्रगति करें।

· हम औद्योगिक क्षेत्र में कहते हैं कि Need based minimum wage हरेक को मिलना चाहिए। वैसे ही Need-based minimum publicity मजदूरों को मिलनी चाहिए, इतनी ही हमारी प्रार्थना है। हम उन लोगों में नहीं हैं जो Cheap publicity में विश्वास रखते हैं। जो इमेज बिल्डिंग में विश्वास रखते हैं।

· ये जनशक्ति निर्माण करने का अपना काम है। उसी का एक प्रयास इस रैली के द्वारा हो रहा है तो स्थायी विकल्प पार्टी के लिए पार्टी का नहीं है। सरकार के लिए सरकार का नहीं है तो जागृत, जागरूक, प्रशिक्षित, नित्य सिद्ध जनशक्ति यह स्थायी विकल्प सभी सरकारों के लिए है और यह प्राचीन राष्ट्र है हम जानते हैं। यहाँ कितनी सरकारें आई कितनी सरकारे गई राष्ट्र जीवन हमारा अखंड चलता है। The governments may come and the governments may go but this nation will go on for ever वो गवर्नमेंट पर अवलम्बित नहीं है और इस दृष्टि से यह स्थायी विकल्प जनशक्ति का निर्माण करने के लिए उपयुक्त है।

· आज का मनुष्य जल्दबाजी में है। वह एकात्म मानववाद के मूल सिद्धांतों को समझने के समयाभाव से ग्रस्त है। एकात्म मानववाद सनातन धर्म का आधुनिक अवतार है।

· यह एक ही विश्व है और कहीं भी कोई भी त्रासदी आती तो अंततोगत्वा सभी स्थानों पर सारी समृद्धि को समाप्त कर देती है।

· वैज्ञानिक दावा करते हैं कि वे ई. सन् 2040 तक विशेष गुणधर्म वाले मनुष्य को उत्पन्न कर देने की स्थिति में आ जाएंगे, तो इसकी क्या गारन्टी है कि वे भगवान बुद्ध, ईसा मसीह और महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति ही बनाएंगे और अतीला, चंगेज खां और स्टालिन जैसे व्यक्ति नहीं बनाएंगे। प्रत्येक प्रतिभावान वैज्ञानिक या नोबल पुरस्कार के लिए नामित व्यक्ति मानवता की भलाई के लिए ही प्रतिबद्ध होगा, यह आवश्यक नहीं है।

· यह शताब्दी हिंदू शताब्दी होगी अर्थात् यह मानवीय शताब्दी होगी, क्योंकि हिंदू और मानव पर्यायवाची हैं। इस मंगल सूचक दृश्य के अवसर पर हम सभी एक पवित्र शपथ लें कि हम वही करेंगे जिससे कि न्याय और स्थाई शांति प्राप्त हो, हमारे मध्य भी और सभी राष्ट्रों में भी किसी के प्रति द्वेष और दुर्भावना नहीं रखेंगे। सभी के लिए सद्भाव और परोपकार की दृष्टि रखेंगे। सत्य के साथ लगातार खड़े रहेंगे क्योंकि भगवान ने हमें सत्य को देखने की दृष्टि दी है। यह वही प्रतिज्ञा है जिसे इस पृथ्वी पर अवतरित होने वाले सबसे महान मानवतावादी ने बताया था।

खंड - 4

सोपान - 3

अखिल भारतीय कार्यसमिति बैठकों में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा मार्गदर्शन

1. अमृतसर बैठक - 1975

2. पुणे बैठक - 1977

3. बड़ौदा बैठक - 1977

4. टाटानगर बैठक - 1980

5. मुंबई बैठक - 1981

6. जम्मू बैठक - 1986

7. पटना बैठक - 1987

8. जयपुर बैठक - 1988

9. हरिद्वार बैठक - 1989

10. कोलकत्ता बैठक - 1989

सोपान-3

केंद्रीय कार्यसमिति बैठकों में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा मार्गदर्शन

(भा. म. संघ केंद्रीय कार्यसमिति बैठकों में ठेंगड़ी जो सदैव उपस्थित रहते थे। बैठक का समापन उन्हीं के प्रेरक समारोप उद्बोधन से होता था। भा. म. संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता और पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री आर. वेणुगोपाल (केरल) मा. ठेंगड़ी जी द्वारा बैठकों में की गई चर्चाओं सम्बोधनों के लिखित नोट्स लिया करते थे। उन्हीं में से कुछ नोट्स उन्होंने उपलब्ध किए हैं। जिन्हें स्थान व तिथि सहित यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। )

अमृतसर बैठक

17 अप्रैल 1975

राष्ट्रीय अभियान समिति की पिछली बैठक स्थगित हो गई। कारण यह था कि सीटू (CITU) के भीतर इस बात को लेकर मतभेद हो गया कि संयुक्त मोर्चा में भारतीय मजदूर संघ के साथ रहें अथवा न रहे। वह मतभेद अब सुलझा लिया गया है और सीटू (CITU) भा. म. सं. के साथ ट्रेड यूनियन संबंधी मसलों पर संयुक्त मोर्चा बनाने को तैयार हो गया है। राजनीतिक क्षेत्र में उक्त मोर्चा सी.पी.एम. या भारतीय जनसंघ के साथ किसी राष्ट्रीय मोर्चे में सम्मिलित नहीं होगा।

राजनीतिक क्षेत्र में जनसंघ के संघीय दल के प्रस्ताव का समर्थन बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक दल का अपना स्वयं का नेतृत्व होगा और संघीय दल (फैडरेल पार्टी) का अपना नेतृत्व होगा। संसद में भी उस का अलग नेतृत्व होगा। यह नान कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प होगा। समाजवादी पार्टी ने आश्वस्त किया है कि वे राष्ट्रीयकरण की माँग पर अधिक जोर नहीं डालेंगे।

पुणे बैठक

13-14 अगस्त 1977

युगोस्लाविया में श्रम संघ भारतीय विचार पद्धति की भाँति चलते हैं। गांधी जी जनमानस में कुछ परिवर्तन लाए। उनमें से एक यह था कि सूट-बूट के स्थान पर खादी को धारण किया जाए। यह निश्चित् किया गया कि खादी ही स्टेटस सिंबल है और मंत्री जन ₹500/- मासिक से अधिक वेतन स्वीकार न करेंगे किंतु स्वतंत्रता उपरांत द्रुतगति से तब्दीलियां आई और हमारे नेताओं ने अंग्रेजी स्टेटस सिंबल और ब्रिटिश शासनकाल की पद्धतियाँ और जीवन मूल्य अपनाने प्रारंभ किए। जनता के सम्मुख यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है कि वह उक्त उपनिवेशवादी मानसिकता के उन्मूलन के लिए जानजागरण करे।

प्रधानमंत्री का नाम अल्पसंख्या अथवा बहुमत के आधार पर तय नहीं हुआ था। नाम सुझाने के लिए जयप्रकाश जी तथा कृपलानी जी से संपर्क किया गया था और उन्होंने नाम का सुझाव दिया है। इसके कारण अच्छे जीवन मूल्यों के पुनस्थापन की संभावना बनी है। देखते हैं इन जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना होती है अथवा नहीं होती है। प्रतीक्षा करें और देखें कि वर्तमान नेतृत्व पुरानी तानाशाही के स्थान पर एक नई तानाशाही लाते हैं अथवा भारतीय जीवन मूल्यों को सुदृढ़ करते हैं। अभी कुछ कहना कठिन है। हमने श्रमिक मित्र (प्रो वर्कर) सरकार का समर्थन करना चाहिए। जब राजस्थान जैसे राज्यों में जनसंघ के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने भारतीय मजदूर संघ का सहयोग समर्थन नहीं किया। मेरे मन में तीन बातें आ रही हैं: जब आपात्काल लागू किया गया तो कुछ स्वयंभू सर्वनाशी अवतार पैदा हो गए जो कहने लगे कि अब सब कुछ अच्छा हो रहा है किंतु परिस्थिति पूरी तरह बदल गई यह कैसे संभव हुआ? कुछ ने कहा यह परमेश्वर कृपा से हुआ। कुछ ने कहा प्रारंभ ही में हम लोगों ने इस परिवर्तन की योजना बना ली थी। इन सभी बातों का उक्त परिवर्तन में योगदान है। भगवान का आशीर्वाद तो था ही किंतु परिवर्तन बहुत अनअपेक्षित तरीके से आया।

लौकिकानांतु साधुनां-अर्थवाक अनुवर्तते ऋषिणों--

हमारा सरकार के साथ रिस्पान्सिव को-आपरेशन वाला संबंध है। कई स्थानों पर किंतु 'जनता यूनियन' नाम से श्रमिक संगठन बन रहे हैं। ब्रिटिश काल से यह देखने में आता है कि जो यूनियन शासन सत्ता (सत्ताधारी दल) से जुड़ कर चलती है वह इसे अपना स्टेटस सिंबल मानती है।

हमारा जनता सरकार से संबंध इस बात पर निर्भर है कि मंत्रिपरिषद की कैबिनेट मीटिंग श्रमिक संबंधों पर क्या निर्णय लेती है। कैबिनेट ने अभी तक इस बारे में कोई निर्णय नहीं लिया है।

एक बात स्पष्ट है कि कांग्रेस कुशासन के सतत तीस वर्षों के उपरांत केंद्र में जनता दल शासन सत्ता में आया है किंतु यह भी स्पष्ट है कि जनता शासन ने अभी तक बेतहाशा बढ़ी हुई मँहगाई पर रोक लगाने का कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। आर्थिक विषयों पर उनकी सोच अभी स्पष्ट नहीं है। केंद्रीय मंत्रियों ने तो यह कहना प्रारंभ किया है कि श्रम संघों ने एकता करते हुए उनके अधीन कार्य करना चाहिए। वर्तमान सरकार आगामी ढाई वर्ष अवधि के अंदर सअधिकारवादी (मोनापलिस्ट्स) और भ्रष्ट अफसरशाहों के विरुद्ध अगर कार्यवाही नहीं करती है तो हमें राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का बिगुल बजाना होगा। अगर हम सरकार के अधीन काम करते हैं तो संगठन सरकार के विरुद्ध कैसे जा सकता है। अगर जनता सरकार मजदूरहित अपेक्षाओं पर असफल होती है तो संगठित ग्रुप के नाते सी. पी. एम. इसका लाभ उठाएगा।

अतः उक्त परिस्थिति के दृष्टिगत् जनता सरकार को लोगों की असन्तुष्ट भावनाओं को नियंत्रित करना चाहिए और गैर-राजनीतिक विरोधी स्वर जैसा कि हमारा है उस पर ध्यान देना चाहिए जिससे किसी सी. पी. एम. को कोई मौका नहीं मिले। हमारे परिवार का संगठन जो सरकार चला रहा है को सुदृढ़ किए जाने की आवश्यकता है जिससे सरकार हमारे स्टैंड को कार्यरूप प्रदान कर सके।

सी. पी. आई. के एटक तथा सी. पी. एम. के सीटू के एकीकरण के प्रयास चल रहे हैं। यह एकीकरण भविष्य के लिए फलदायी नहीं होगा। सी. पी. आई. इस प्रयास में अधिक जोर लगा रही है। किंतु सी. पी. एम. अधिक उत्सुक नहीं है। आने वाली परिस्थिति कैसी बनती है। इस बारे में कुछ अधिक जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है किंतु एक बात स्पष्ट है कि सी.पी.एम. इस समय अधिक प्रभावकारी है। हमारा उनकी ओर देखने का दृष्टिकोण व्यवहारवादी (प्रोग्मेटिक) होना चाहिए।

अन्य श्रम संघों के कुछ नेताओं ने ट्रेड यूनियन यूनिटी की चर्चा चलाई है। हमारा स्पष्ट मत है कि श्रम संघ किसी भी राजनीतिक दल की अधीनता स्वीकार न करे। वर्ग संघर्ष और लाल फीताशाही समाप्त की जाए और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नाते राष्ट्रीय श्रम दिवस की पहचान की जाए।

तीनों श्रम संघों को ट्रेड यूनियन यूनिटी का प्रस्ताव पारित करना होगा क्योंकि एच. एम. एस. में कई ग्रुप हैं और उनके कारण एकता में बाधा आ सकती है। इसके साथ यह संकेत श्रमिकों में नहीं जाना चाहिए कि हम श्रम संघ एकता के विरुद्ध हैं।

हमने उपरोक्त समझदारी का वातावरण निर्मित किया है। इसके दृष्टिगत् हमें श्रम संघ एकता के लिए तैयार रहना होगा। एकता के उपरांत क्या होगा हम नहीं जानते किंतु उक्त एकता के लिए हम अति उत्साहित भी नहीं हैं। हम जानते हैं कि समाजवादी में कुछ आधारहीन गैर जिम्मेदार तत्व भी हैं वे आपस में छोटी छोटी चालाकियों में माहिर हैं। इसमें हमारा हित भी है। उनके पास नए युवा कैडर के आने की कोई संभावना नहीं है। इस समय जो भी उन के साथ जा रहे हैं वे अवसरवादी और व्यक्तिगत स्वार्थवश ऐसा कर रहे हैं। हमारे पास जो आ रहे हैं वे शुद्ध राष्ट्रहित मजदूरहित के दृष्टिगत आ रहे हैं।

हमारे सदस्यों की गुणवत्ता श्रेष्ठ है। जब हमारे पास मान्यता नहीं थी तब भी हमारे लोग निरंतर कार्य कर रहे थे किंतु वे मान्यता के बिना एक दिन भी काम नहीं कर सकते हैं। उपरोक्त कारणों से राष्ट्रीय श्रम आंदोलन के हम ही वास्तविक प्रवक्ता हैं।

बड़ौदा बैठक

16-17 दिसंबर 1977

एक दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। क्या हम बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के अपने हक में तब्दील कर रहे हैं। समझौते (Agreement) की जो धाराएँ हैं क्या वह हमारे हित में हैं। जिसका अर्थ है क्या केवल कच्चा माल और स्पेयर पार्ट्स ही हमें उपलब्ध किए जाएंगे। क्या हमारे विशेषज्ञों को ट्रेनिंग दी जाएगी। कुछ नियंत्रक धाराएँ (Restrictive clauses) जैसे निर्यात किए जाने वाले उत्पाद का मूल्य नियंत्रण (Price control), मूल्यों की करेंसी (Currency) जिसमें उत्पाद की कीमत अदा की जाएगी आदि का विचार किया जाना चाहिए। हमारे और रूस के मध्य समझौता है हम विचार करें कि उत्पाद का कितना लाभ दिया जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री नान-कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों के विलीनिकरण (मर्जर) अथवा राष्ट्रीय स्तर पर परिसंघ (कंफडरेशन) बनाए जाने के इच्छुक हैं। आई. सी. एफ. टी. यू. (ICFTU) (अमेरिकन) एन. एल. ओ. (NLO) सहित चार बड़े अखिल भारतीय श्रमसंघों का विलीनिकरण (Marger) चाहती है। इसमें अपना स्वार्थ देख रहे हैं। विलीनिकरण से पूर्व हमें कई पहलुओं पर विचार करना होगा। जैसे कि जिन श्रमसंघों के साथ विलीनीकरण होना है वे आपात्काल विरोधी अथवा समर्थक थे। अवसरवादी अथवा गैर-अवसरवादी हैं। उदाहरणार्थ जब बी. आर. एम. एस. (BRMS) और ए. आइ. आर. एफ. (AIRF) विलीनिकरण पर चर्चा प्रारंभ हुई तब हमने लिखा था कि मर्जर विचारधारा आधारित होना चाहिए और उन समस्त इकाईयों और नेताओं जिन्होंने आपात्काल का समर्थन किया था। उन्हें पहले एक तरफ हटा दें तो मर्जर की बात को आगे बढ़ाया जा सकता है। औद्योगिक एवं स्थानीय स्तर पर हम सीटू (CITU) के साथ संयुक्त मोर्चा बना सकते हैं।

वर्ष 1930 में पंडित नेहरू एटक किसान मजदूर सभा को कांग्रेस का घटक (Wing) बनाना चाहते थे किंतु गांधी जी ने इसका विरोध किया। इसी प्रकार आचार्य कृपलानी और उन जैसे अन्य नेताओं ने एच. एम. एस. को प्रजा समाजवादी पार्टी का विंग बनाए जाने से मना कर दिया।

दो प्रकार के कार्यकर्ता हैं- एक वे जो निजी स्वार्थ वशीभूत होकर कार्य करते हैं और दूसरे वे जो ऊंचे उद्देश्य को ध्यान में लेकर चल रहे हैं। एक ही यूनियन में दोनों प्रकार के कार्यकर्ता एक भा. म. संघ के लिए और दूसरे राजनीतिक दृष्टिगत कार्य करते हुए दिखाई पड़ते हैं। यहाँ तक कि एक ही यूनियन एक ही लक्ष्य पर मत भिन्न भिन्न रहते हैं।

हम जिस विचार को लेकर चल रहे हैं उसे अपने संपर्कों संबधों से प्रदेश तथा राष्ट्रीय स्तर पर सुदृढ़ करना है हमारी भूमिका हमारी मातृ संस्था को सशक्त करने की है। क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा और यह क्रांति भारतीय मजदूर संघ लाएगा। प.पू. श्री गुरुजी का भा. म. संघ की भूमिका पर पूरा विश्वास था।

देश में अराजकता और साम्यवाद को बढ़ने से रोकने लिए हमें भारत की राष्ट्रीय शक्ति को बलवती बनाना होगा। हमारा कर्तव्य है कि हम जन जागृति करें- जन मानस में चेतना जगाएँ देशभक्ति की भावना जगाएँ तो फिर अराजकता और साम्यवाद यहाँ कभी भी नहीं आ सकते।

फ्रेंच सेना के एक सेनापति मार्शल फाक ने युद्ध से अपने कमांडर को टैलीग्राम द्वारा यह संदेश भेजा:

" My right recedes

my centre gives way

situation is excellent

I shall attack."

(मेरे दाँये हाथ की तरफ वाली सैन्य टुकड़ी पीछे हट गई है। मेरे सामने वाली टुकड़ी ने रास्ता खुला छोड़ दिया है। स्थिति अति उत्तम है। मैं आक्रमण करूँगा)

युद्ध समाप्ति पर देखा गया कि मार्शल फाक को छोड़ कर फ्रांस के अन्य सभी सेनापति पराजित हुए। पत्रकारों ने मार्शल फाक से पूछा क आप कैसे विजयी हुए। मार्शल फाक ने कहा "I was simply deter mined not to be defeated." (मैंने केवल यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि मैं पराजित नहीं होऊँगा)

आगे आने वाले समय में कुछ आह्वान हमारे सम्मुख उपस्थित हो सकते हैं। हमें कठिन परिस्थितियों में से विजयी हो कर निकलना होगा। हमें एकाधिकारवादिओं की भूमिका पर विचार करना होगा। कांग्रेस ने एकाधिकारवाद (monoplies) को समाप्त करने की घोषणाएँ तो कई बार की किंतु इसे समाप्त नहीं कर पाई। हमें देखना है कि इसके लिए कोई कारगार और द्रुतगामी नीति बनाई जाती है अथवा नहीं।

भूतलिंगम समिति का गठन कीमतें, वेतन और आय के दृष्टिगत से किया गया है जो कि समुचित नहीं है। इसमें विशेषज्ञों की कमी है। भारतीय मजदूर संघ ने अतः माँग की है कि सभी हितों और विशेषज्ञों सहित एक गोलमेज कांग्रेस (Round Table Conference) बुलाई जाए। उक्त समिति अक्षम व असमर्थ है।

अभी (1977) केंद्र का श्रम मंत्रालय श्रमिकहित की ओर ध्यान दे रहा है किंतु सरकार की नीतियों का ही पालन करना पड़ता है।

हमें देखना होगा कि आर्थिक नीति की दिशा सही है कि नहीं। अभी बोनस, पी. एफ., सी. डी. आदि में कुछ रियायतें दी गई हैं किंतु यह सब गरिमायुक्त ढंग से नहीं किया गया। इन सब बातों पर हमारी पैनी दृष्टि रहेगी और हम यह देखेंगे कि इसमें सच्चाई कितनी है। हमारे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है कि किस दल का मंत्री किस मंत्रालय का प्रभारी है। हम केवल यह देखेंगे कि निहित स्वार्थों का पोषण तो नहीं किया जा रहा।

कुछ दिन पूर्व जनता सरकार का एक जिम्मेदार पदाधिकारी हमसे मिलने आया। उसने कहा भारतीय मजदूर संघ अगर सत्ताधारी दल का घटक (Wing) बनकर चलने को तैयार हो तो उसे केंद्रीय स्तर पर मान्यता, कार्यालय एवं अन्य सभी सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी। हमने अस्वीकार कर दिया। जानते हैं क्यों? क्योंकि हमें अपनी स्वायत्तता, स्वतंत्रता प्रिय है। हम अपनी स्वतंत्रता को कुर्बान नहीं कर सकते- बस इतना ही अगर पेशकश स्वीकार कर लें तो फिर सभी प्रकार की सुविधाएँ हमारे द्वार पर होंगी किंतु हमारी मान्यता है कि सब कुछ राज्य के अधीन नहीं होना चाहिए। सब कुछ राज्याधीन उससे बाहर कुछ नहीं यह हमें स्वीकार नहीं है। सर्वाधिकार से राज्य की तानाशाही प्रवृत्ति पनपती है जो लोकतंत्र के लिए घातक है। अतः हमने सत्ताधारी दल का पार्टी घटक (party wing) बनने से इंकार कर दिया।

जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के साथ हमारा संबंध कैसा रहे तो हमने कहा है रिसपांसिव कोआपरेशन (Responsive co-operation) का रहे। केवल लोकतंत्र में जेन्यून ट्रेड यूनियनिज्म चल सकता है। देश में जब आपात्काल था तो तब राजनीति और टैक्ट के रूप में हमें थोड़े समय के लिए राजनीति में दाखिल होना पड़ा पर वह आपात् धर्म के नाते ही था। सरकार का सहयोगात्मक अथवा नकारात्मक श्रमिकों के प्रति जैसा व्यवहार होगा हम वैसा ही लौटाएंगे। इसे ही रेस्पान्सिव को-आपरेशन कहते हैं। बात अतः सरकार के कोर्ट में है।

आपात्काल अब समाप्त हुआ है। लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ है एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तित परिदृश्य जनता के सम्मुख आना चाहिए और उसी के अनुरूप जनमानस निर्मित होना चाहिए। लोकतांत्रिक अस्तित्व इस बात पर निर्भर नहीं है कि कौन मंत्री अच्छा या अच्छा नहीं है। अतः जनमानस में परिवर्तन की मानसिकता का सम्मान होना चाहिए।

हमारे देश में एक स्थाई और दूसरी अस्थाई सरकार है। स्थाई नौकरशाही और अस्थाई निर्वाचित मंत्री परिषद। अगर आप नौकरशाही की लगाम नहीं कसते हैं और उस पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं करते हैं तो नौकरशाह आप के लिए कठिनाईयाँ पैदा करते रहेंगे। जनता सरकार इस दृष्टि से अभी परिवीक्षा अवधि (Probation period) में है।

जनता सरकार के लिए हमारी शुभकामनाएँ हैं। जब तक परिवीक्षा अवधि चल रही है हम प्रतीक्षा करेंगे। यह अवधि कितने मास या वर्ष चलेगी हम थोड़ा धैर्य रखकर देखेंगे और तदुपरांत परिस्थिति अनुरूप कदम उठाएंगे।

हम पार्टी के घोषणा पत्र (manifesto) को अधिक गंभीरता से नहीं ले सकते क्योंकि यह विवाह के पूर्व लिखे गए प्रेम पत्र की तरह ही होता है। कोई भी दल घोषणाओं को पूरी तरह कार्यरूप नहीं दे पाता है क्योंकि अर्थशास्त्र शरीर विज्ञान नहीं होता।

प. पू. श्री गुरुजी विशुद्ध राष्ट्र निर्माता हैं जो दलगत राजनीति से बहुत ऊपर हैं किंतु इंदिरा गांधी शुद्ध राजनीतिज्ञ हैं जिन्हें राष्ट्र निर्माण गतिविधियाँ आकर्षित नहीं करती। महात्मा गांधी राष्ट्रनीतिज्ञ हैं पर संयोगवश वे दलगत राजनीति में हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू शुद्ध राजनेता हैं किंतु संयोगवश राष्ट्र निर्माता हैं। मधु लिमये शुद्ध राजनीतिज्ञ हैं।

महात्मा गांधी राष्ट्र निर्माता थे पर वह कांग्रेस के नेता भी थे। उन्होंने कांग्रेस से जुड़े सभी जन संगठनों को आंदोलन में नहीं लगाया। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने जन संगठन को नहीं अपितु कांग्रेस को काम में लगाया। वे ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि वे एक राष्ट्र निर्माता थे।

पंजाबी हिंदी आंदोलन के समय जनसंघ का विचार था कि हिंदी अपनाई जाए। प. पू. श्रीगुरुजी ने कहा पंजाब की भाषा पंजाबी और लिपि गुरमुखी रहेगी। ऐसा वे इसलिए कह सके क्योंकि वे राजनेता नहीं राष्ट्र निर्माता थे।

जार्ज वाशिंगटन एक और श्रेष्ठ उदाहरण है। बावजूद इसके कि असैनिक अधिकारी जार्ज वाशिंगटन के प्रति ईर्ष्यालु भाव रखने के कारण रसद आपूर्ति आदि में व्यवधान उपस्थित कर रहे फिर भी जार्ज वाशिंगटन युद्ध जीत गए। उन सहयोगी सेनापतियों ने कहा अब आप युद्ध के विजेता हैं और असैनिक सत्ताधारी तुच्छता दिखा रहे हैं अतः आप सत्ता शासन सँभालिए कोई रोकने वाला नहीं है। कितना आकर्षक अनुरोध था किंतु जार्ज वाशिंगटन नही माने। उन्होंने एक समिति बनाई जिसने संविधान बनाया और वे विधिवत् लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किए गए। निजी स्वार्थ से उपर उठ जाना यह कठिन कार्य है।

इटली का उदाहरण है। मंजिनी को इटली का राष्ट्रपिता कहा जाता है किंतु युद्ध में उन्होंने गैरीवाल्डी को सेनापति बनाया और स्वयं बंदूक उठा कर एक सैनिक की भाँति उनके नेतृत्व में युद्ध लड़ा। जब युद्ध में विजय प्राप्त हुई तो गैरीवाल्डी ने कहा में अपने गाँव की में खेतीबाड़ी करने जा रहा हूँ और मेजिनी को राष्ट्रध्यक्ष बना दिया।

चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के लिए संघर्ष किया और उन्हें राजा बना दिया। राक्शामों को उनका प्रधानमंत्री बना दिया और स्वयं कमंडल उठाकर हिमालय की ओर चल दिए। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के तिलक जी पिता माने जाते थे। वह इंग्लैंड गए तो पत्रकार ने पूछा स्वतंत्र भारत की सरकार में कौन सा पोर्टफोलियो (मंत्रीपद) लेंगे तो तिलक जी ने कहा मैं तब भी प्रतिपक्ष का नेतृत्व ही चाहूँगा।

बेलगाम कांग्रेस कान्फ्रेंस में सी. आर दास व मोतीलाल नेहरू कौंसिल में प्रवेश करके अंग्रेजों से वहाँ भी संघर्ष करने का औचित्य बता रहे थे किंतु अधिवेशन में उपस्थित अधिकांश सदस्य तो गांधीजी के साथ थे। गांधी जी ने यह जानते हुए भी कि बहुमत उनके साथ है। सी. आर. दास व मोती लाल जी की माँग को स्वीकार किया। डा. आंबेडकर व डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने शांत भाव से अपने सिद्धांतों की खातिर सत्ता का मोह त्याग दिया।

अब हम तस्वीर का दूसरा पहलू कि कैसे सत्ता सिंहासन से चिपके रहा जाता है को देखे:

This earth this stage is so

gloomed with woe. That you

all but sicken at the shifting scenes

and yet be patient

our play Wright may show

In some fifth act

What this wild drama is"

(यह धरती, यह मंच किस कदर गहरी निराशा और वेदनाओं में आच्छादित है। रंगमंच पर बदलते दृश्यों को देखते रहने की बाध्यता उबाने और वितृष्णा पैदा करने वाली है किंतु फिर भी हमें धैर्यपूर्वक बैठे रहकर देखते रहना है कि हमारे नाटक का कार (रचनाकार) आगे कौन सा चित्र उकेरता है। वह कदाचित इस नाटक के पंचम अंक (चक्र) में दिखाए कि आखिर इस जंगली तमाशे की वास्तविकता क्या है।)

आपात्काल की समाप्ति के साथ नाटक के एक अंक का हो गया है। दूसरा प्रारंभ हुआ है। पता नहीं पाँचवां अंक ( Fat) कब प्रारंभ होगा। इस तमाशे (ड्रामे) के शेष भाग और बदलते दृश्य कैसे होंगे वे अभी हमारे सम्मुख नहीं हैं। अलग-अलग घटनाएँ घटित हों और तदनुसार संभव है स्थिति बदलती जाए। अब हमारे सम्मुख एक सरकार है।

टाटानगर बैठक

 

9 सितंबर 1980

एक घुड़सवार अपने घोड़े की प्यास बुझाने रहट (कुरे) पर ले गया। किसान ने रहट चलाया-पानी आने लगा बोड़ा ने पानी की टंकी में मुँह डाला ही था कि रहट की टक टक आवाज से, घोड़े के कान खड़े हो गए और उसने मुँह ऊपर उठा लिया। घुड़सवार ने किसान से कहा- माई यह टक टक की आवाज बंद करो-मेरा घोड़ा पानी नहीं पी सकेगा। किसान ने कहा टक टक बंद करने का मतलब है रहट बंद करूँ, रहट बंद करूँ तो पानी नहीं आएगा, पानी चाहिए तो रहट चलाना होगा। रहट चलेगा तो टक टक होगा ही अतः आप अपने घोड़े को टक टक के चलते पानी पीना सिखाइए।

कार्यकर्ता मन के घोड़े को संसार की घर परिवार की टक टक चलते सतत कार्य करते रहने का स्वभाव बनाए।

मुंबई बैठक

5 जून 1981

राजनीतिक क्षेत्र के संबंध में भविष्यवाणी करना कठिन है। हम अपने गैर-राजनीतिक चरित्र को बनाए रखें और सामने लाएँ इसलिए जब हम यूनियन पदाधिकारियों का चुनाव करते हैं तो ध्यान रखें कि वे हमारे उद्योग से हों।

ग्रीक एटलांटा नाम की राजकुमारी दौड़ में फर्राटा परी मानी जाती थी। राजा ने घोषणा की, कि मेरी बेटी को जो राजकुमार दौड़ में हरा देगा उसी के साथ उसका विवाह कर दिया जाएगा।

राजकुमारी को दौड़ में जीतना बहुत कठिन था। एक राजकुमार ने एक तरकीब सोची। दौड़ में उसने अपनी कमर पेटी (Belt) में छोटे-छोटे सोने के सेब (Golden apple) छिपाकर रख लिए। दौड़ प्रारंभ हुई। राजकुमारी आगे निकल गई। राजकुमार राजकुमारी की कमजोरी जानता था। उसने राजकुमारी के सामने दायीं ओर सेब फेंका- राजकुमारी उसे उठाने लपकी तो यह आगे बढ़ गया किंतु राजकुमारी दौड़ में लौटी और पुनः आगे बढ़ गई। राजकुमार ने फिर बायीं ओर सेब फेंका और दाएं बाएं सेब फेंकने का यह क्रम चलता रहा। दौड़ के आखिरी प्वाइंट से पूर्व बचे हुए दो सेब राजकुमार ने दोनों ओर फेंके। राजकुमारी उन्हें उठाकर जब तक लौटी तब तक राजकुमार आखिरी निशान पर पहुँच गया और दौड़ जीत गया।

हमारा जोर दौड़ पर और दृष्टि सदैव लक्ष्य पर रहनी चाहिए।

जम्मू बैठक

2-3 मई 1986

बड़ी शक्तियाँ (super powers) हमारे देश में पूँजीवादी साम्राज्य स्थापित करना चाहती हैं। वे राजनीतिक प्रभाव भी बढ़ा रही हैं। उक्त के अतिरिक्त कम्पूटराइजेशन बेरोजगारी, पंजाब समस्या भी हमारे सामने है, चिन्ह अलग अलग हैं, किंतु बीमारी एक ही है।

सरकार की इच्छा शक्ति (will power) को जगाने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब राष्ट्र की इच्छा शक्ति जागृत हो जाए। इसके लिए राष्ट्रशक्ति को पुष्ट करना होगा। राष्ट्रशक्ति के हम एक अंग हैं। अमेरिका पाकिस्तान को मदद करता है और पाकिस्तान आतंकवादियों को मदद करता है। हिटलर के पराभव के पूर्व साम्यवादियों ने पर्सिया के माध्यम से यही पद्धति अपनाई।

पंजाब समस्या में संघ ने क्या किया। संघ की शक्ति है। आतंकवादी सोचते थे आतंकी घटनाओं से उत्तेजित हो कर संघ सिखों के विरुद्ध खड़ा हो जाएगा किंतु संघ किसी उत्तेजना में नहीं आया। शांतचित्त समाजसेवा और एकता रक्षार्थ पूर्ववत कार्य करता रहा।

कुछ बात तो होगी जिसके कारण इंटक राष्ट्रीय स्तर पर समस्त श्रम संघों का सांप्रदायिकता और विभाजनकारी शक्तियों के विरुद्ध सम्मेलन बुला रही है। यह सम्मेलन हमारे लिए सिर दर्द है। वहाँ स्पष्टतया रा. स्व. संघ के विरुद्ध विष वमन होगा किंतु परिवार की निंदा का अखाड़ा न बने, यह सम्मेलन स्थगित हो प्रथम तो हमारा यह प्रयास रहे अन्यथा वहाँ हमारा प्रतिनिधि जो भाषण दे उसे सावधानी से तैयार करे। वहाँ पारित किए जाने वाले प्रस्ताव की भाषा संयत व संक्षिप्त हो। सांप्रदायिकता की निंदा हो पर किसी संस्था का नाम उसमें न आए।

इंटक की उक्त सम्मेलन के लिए पहल सरकार के इशारे पर हो सकती है। इंटक एन. सी. सी. में नहीं है अतः अकेलेपन का कारण भी हो सकता है। इंटक और वामपंथियों का आग्रह अलग अलग है। इंटक का आग्रह एकता पर तो वामपंथिओं का आग्रह सांप्रदायिकता पर होगा।

अगर हम सम्मेलन में भाग नहीं लेते हैं तो उनके लिए मैदान खुला छोड़ देने जैसा होगा। हमारे भाग लेने से उन पर कुछ नियंत्रण रहेगा अन्यथा सारा प्रचार उनके हक में जाएगा जो हमारे लिए हानिकारक होगा। सम्मेलन में भागीदारी नहीं करना हमारे लिए आत्मघाती होगा। वे लाभ की स्थिति में रहेंगे।

इंटक सरकार की लाबी (Lobby) है इसीलिए इंटक ने सम्मेलन की पहल की है।

अब हम भी उक्त सम्मेलन में भाग ले रहें है इसलिए वहाँ पारित किए जाने वाले प्रस्ताव में ऐसी कोई टिप्पणी न हो जो विवादास्पद हो। अगर प्रस्ताव में विवादास्पद अंश सम्मिलित किए जाते हैं तो हम सार्वजनिक वक्तव्य देते हुए सम्मेलन का बहिष्कार करके बाहर आ जाएँ। हम खड़े होकर कहें फिर रा. स्व. संघ के विरुद्ध की गई टिप्पणी हम कदापि सहन नहीं करेंगे। अगर वह हिंदू सांप्रदायिकता की बात करें तो हमें मुस्लिम धार्मिक रूढ़िवाद (Fundamentalism) की बात उठानी चाहिए तब विरोध करने की उनकी बारी होगी।

हमारे संगठन का कार्य बढ़ रहा है। भा. म. संघ में लोग आ रहे हैं किंतु वे भा. म. संघ विचार केंद्र के हैं ऐसा नहीं है। वे जिस यूनियन से आते हैं वहाँ की मानसिकता भी साथ लाते हैं। उन्हें भा. म. संघ की संस्कृति में आत्मसात् करना होगा। कितने स्थानों पर नगर परिषद और कितने जिलों में जिला समितियों का निर्माण हुआ है। क्या संघ परिवार के अधिकारियों से नियमित मिलते हैं ?

एकात्मता के लिए परिवार भाव आवश्यक है। यूनियनों में इस भाव को पुष्ट करें। हम राष्ट्रशक्ति के अंग हैं अतः उस राष्ट्रशक्ति के साथ भी एकात्मता आवश्यक है।

प्रदेशों का कार्य लंबवत (Horizontal) तथा महासंघों का कार्य सीधे ऊपर की ओर (Vertical) है। महासंघ प्रदेश से बात करके कार्यक्रम करे और प्रदेश महासंघ को विश्वास में ले कर आगे बढ़े। इस प्रकार द्विपक्षीय संप्रेषण होना चाहिए।

पटना बैठक

1 अप्रैल 1987

हमारे राष्ट्रवादी कुछ मित्र कहते हैं कि विदेशी मिशनरियों का प्रभाव बढ़ रहा है। हमने कहा था कि विदेशी आर्थिक साम्राज्यवाद आ रहा है। किंतु हमारे विचार पर ध्यान नहीं दिया गया। साम्यवादी विदेशी आर्थिक प्रभाव को समझते हैं किंतु उन्होंने मिशनरी प्रभाव का मूल्यांकन नहीं किया है।

हमारी सफलता के परिणामस्वरूप हमारी शब्दावली की आवश्यक प्रशंसा की जाएगी।

विभिन्न पदाधिकारियों में आपसी सहयोग, परस्पर तालमेल बिठाने के लिए सभी प्रदेशों के अध्यक्ष व महामंत्री और सभी महासंघों के अध्यक्ष व महामंत्री एक साथ दो या तीन दिन तक एक स्थान पर बिना किसी एजेंडा के रहें।

सामान्यतया यूनियनें अपने अपने कार्यालय भवन बनाएँ इस वृत्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। कोई भी यूनियन केंद्र की अनुमति के बिना अगर भवन निर्माण करती है तो उसकी संबद्धता समाप्त कर देनी चाहिए।

जयपुर बैठक

11 अप्रैल 1988

जो कार्य हितकर और हमारे पक्ष का है उसे समर्थ गुरु रामदास जी ने जैसा कहा है अविलंब करना चाहिए। किंतु अनावश्यक शीघ्रता नहीं करना। हमें अपनी सफलता पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। आत्मविश्वास भरपूर होना चाहिए किंतु ध्यान रखें आत्मविश्वास और अहंकार में अंतर की बहुत पतली रेखा होती है।

इस वर्ष को हम 'संस्कृति वर्ष' के नाते मनाएँ। हमें अपनी महान संस्कृति का गौरव होना चाहिए। हम अपने मन में धारण करें यह बड़ी बात होगी।

अंतरराष्ट्रीय सभी शक्तियाँ इस समय अंतर्विरोधों से जूझ रही हैं। यह कमी हममें नहीं है। पू. डॉ. हेडगेवार जी के व्यक्तित्व एवं चरित्र का क्रमिक धीरे-धीरे अनावरण (unfolding) हो रहा है। व्यक्तिगत चरित्र और संघ पद्धति का आपसी गहरा संबंध है और इसलिए संघ का उत्तरोत्तर विकास होता गया है। इसी प्रकार हमारे कार्यकर्ताओं के चरित्र और संगठन कार्यपद्धति का भी संबंध है। परिणामस्वरूप हमारा कार्य भी बढ़ रहा है। पू. डॉ. हेडगेवार जी ने 1920 कांग्रेस में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था कि कांग्रेस का लक्ष्य (1) पूर्ण स्वराज्य और (2) पूँजीवाद की विश्व से समाप्ति।

जैसे समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी के बारे में कहा है वैसे ही पू. डॉ. जी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को पुनः पुनः स्मरण करना चाहिए। प पू. श्री गुरूजी ने ठाणे बैठक में सभी विषयों पर मार्गदर्शन किया। भा. म. संघ के बारे में कहा भारतीय मजदूर संघ का कार्य हमारी विचारधारा और दर्शन के अनुरूप बढ़ रहा है। यह अच्छी बात है कि हम नई कार्य संस्कृति का निर्माण करें। नए नेतृत्व को आगे लाने के दृष्टिगत कुछ पदाधिकरियों को बार बार एक ही पद पर रखने के बजाए कुछ टर्म्स (Terms) की संख्या तय करें।

यह तरीका कोई पक्का नियम (Principle) के नाते नहीं किंतु व्यवहार में लाएँ। वे कार्यकर्ता जो सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो रहे हैं उनसे श्री भक्त जी विचार-विमर्श करें और निर्णय लें। सरकारी कर्मचारी विशेषकर पोस्टल आदि से जो सेवानिवृत्त हो रहे हैं। उनके बारे में श्री अन्नाजी, सुर्वे जी व शर्मा जी संयुक्त रूप से विचार करके भा. म. संघ को राय दें। उनकी राय मान ली जाती है तो भा. म. सं. की यह राय होगी ऐसा माना जाना चाहिए।

यह पद्धति भा. म. संघ के अतिरिक्त अन्य संगठनों में नहीं है। भा म. संघ एक परिवार है। उन्हें हम पदाधिकारी भले न बनाएँ किंतु उन्हें अच्छा मान देने में संकोच न करें।

महासंघ के मंत्री और प्रदेश के मंत्री की भूमिका क्या है? महासंघ का मंत्री अपने उद्योग का भा. म. संघ का प्रमुख प्रतिनिधि है। अपनी यूनियन और महासंघ के माध्यम से वह भा. म. संघ का सदस्य बनता है। बी.आर.एम.एस. (BRMS) प्रतिनिधि की दोहरी जिम्मेदारी होती है। भा.म. संघ के सम्मुख वह बी. आर. एम. एस. का प्रतिनिधि है किंतु बी. आर.एम.एस. के सम्मुख वह भा.म. संघ प्रतिनिधि है।

केंद्रीय कार्य समिति सदस्यों को स्थानिक तौर पर वहीं पर (on the spot) निर्णय लेने चाहिए। कभी कभी उतना समय नहीं होता कि केंद्र से विचार-विमर्श किया जा सके। अतः हमें स्वयं निर्णय लेने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। आप कितने भी समझदार क्यों न हों किंतु कोई भी निर्णय तथ्यात्मक जानकारी के आधार पर ही लेना चाहिए। अतः हमारे पास पूरा ब्योरा होना चाहिए। गत दिल्ली बैठक में यह बात आई थी कि केंद्र से निर्णय आने में विलंब होता है सो उक्त व्यवस्था का विकल्प रख सकते हैं। हमें कार्यकर्ताओं के ध्यान में बड़ी-बड़ी ही नहीं छोटी-छोटी बातें भी ध्यान में लाना चाहिए।आइए इस वर्ष प्रतिपदा से अगले वर्ष प्रतिपदा तक अघोषित 'संस्कृति' वर्ष मनाएँ जिसमें यह संकल्प धारण करें कि हम अच्छे कार्यकर्ता बनेंगे अपनी संस्कृति के अनुरूप चलेंगे।

आम चुनाव (General election) आते हैं तो राजनीतिक दलों से हमारा मेलजोल बढ़ जाता है। ध्यान रहे कि हमारे वे कार्यकर्ता जिनकी पहचान सार्वजनिक रूप से सर्वविदित है वे चुनाव में भाग नहीं लेंगे। यह हमने पूर्व में निर्णय लिया है। हम प्रचार में सहयोग करें किंतु राजनीतिक दल के मंच से भाषण नहीं देंगे। दल का झंडा भी नहीं उठाएँगे। प्रचार प्रसार में भाग लेते हुए भी सावधानी रखें।

हरिद्वार बैठक

27 सितंबर 1989

हमें स्थिति का अवलोकन करना चाहिए। स्वतंत्रता के पूर्व हमारे नेता स्वतंत्रता सेनानी थे वह देश के लिए लड़े। स्वतंत्रता के पश्चात् भी सरकार को अस्थिर करने का किसी का विचार नहीं था। पं. जवाहर लाल नेहरू की कुछ नीतियाँ ठीक नहीं थी फिर भी सरकार के विरुद्ध विद्रोह जैसी स्थिति नहीं थी। एक परिणाम यह हुआ कि नौकरशाहों की निर्वाचित सरकार पर पकड़ मजबूत होती चली गई।

अब देखने में यह आ रहा है कि श्रमिक नेताओं का मन भी बदल रहा है। बदला यह है कि वे यथास्थिति बनाए रखने के पक्षघर हैं इसलिए हमें दिन प्रतिदिन स्थितिनुसार सोचने और अपनी नीति निर्धारित करने की आवश्यकता है। हमारी सोच स्पष्ट है। हमें अपने निर्धारित लक्ष्य को बदलने की आवश्यकता नहीं है। वह अटल है, हाँ रणनीति, रणयुक्ति, कार्यक्रम आदि समयानुसार बदलते रहेंगे। अन्य किसी भी दूसरे श्रमिक संगठन ने इस प्रकार की सामूहिक सोच की पद्धति विकसित नहीं की है।

हम सब एक ही लक्ष्य के लिए कार्य कर रहे हैं। फिर भी अपनी मर्यादा, अनुपात तथा समान भाव से चलना होगा। (We need sense of propriety, sense of proportion and sense of balance).

छोटी बातों का ध्यान रखना चाहिए। कोई भी कार्यकर्ता कष्ट में है अस्वस्थ है उससे मिलने अवश्य जाना चाहिए। संगठन कार्यालय नियमित जाना, डाक देखना, पत्रों का उत्तर लिखना, बड़े कार्यक्रम करने हैं पर छोटी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए- कार्यक्रम चल रहा है- मंच से भाषण चल रहे हैं किंतु क्या होगा अगर बिजली चली जाए, जनरेटर का प्रबंध रखना चाहिए।

रा. स्व. संघ समाज का भाग नहीं अपितु संपूर्ण समाज है। भा. म. संघ के सदस्य के नाते क्या मुझे भा. म. संघ तक ही सीमित रहना चाहिए। प.पू. श्री गुरुजी ने कहा है संघ मजदूर क्षेत्र में केवल भा. म. संघ तक सीमित नहीं है। आज जो संघ को भला बुरा कहते हैं वे सब कल के संभावित स्वयंसेवक हैं।

भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल जब रशिया प्रवास पर गया तो वहाँ पैट्रोग्राद नगर में हमने नव निर्मित अनेक पुतले देखे। यह पुतले वीनस और ग्रीक गॉड के थे। हमने पूछा साम्यवादी होने के कारण आप गॉड (God) तथा पुरातन को मानते नहीं फिर यह पुतले यहाँ क्यों खड़े हैं।

यह ठीक है उन्होंने कहा कि हम गॉड को नहीं मानते किंतु हिटलर ने जब हमारे देश पर आक्रमण किया तो हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने के लिए उसने सभी पुतले तोड़ डाले। अपने देश के स्वाभिमान की बहाली के लिए हमने इनका पुनर्निर्माण किया है। कार्यक्रम करें और प्रदेश महासंघ को विश्वास में ले कर आगे बढ़ें। इस प्रकार द्विपक्षीय संप्रेषण होना चाहिए।

भारतीय मजदूर संघ निर्माण और उसके पश्चात् 1969 से 1989 अवधि पर दृष्टि डालें- वामपंथियों की मजदूर क्षेत्र पर मजबूत पकड़ वे मिलीटैन्ट माने जाते थे। उस कालावधि से कुछ समय पूर्व भा.म.संघ थी। का निर्माण हुआ। आज वे पीछे हट रहे हैं- हम आगे बढ़ रहे हैं। जंगल के शेर अब सर्कस के शेर बनकर रह गए हैं।

कोलकाता बैठक

17 अप्रैल 1989

गहन द्वंद्व और विचार से दार्शनिक तत्वबोध प्राप्त होता है।- वादे-वादे जायते तत्वबोध, लोहिया कहते थे 'वाणी स्वतंत्रम कर्म नियन्त्रम'।

अभावों प्रभावों अर्थात्, धन का अभाव तथा प्रभाव दोनों स्थितियाँ खतरनाक हैं। द्रोपदी चीरहरण के समय भीष्म ने कहा, पुरुषो अर्थस्य दासः मनुष्य धन संपत्ति का गुलाम है।

भा. म. संघ कार्यकर्ताओं पर सभी का विश्वास है। हमें स्वयं पर विश्वास होना चाहिए। अपनी विजय पर हमें अपने स्वयं से भी अधिक भरोसा होना चाहिए। यह कार्य सफल होकर ही रहेगा। अगर हम नहीं तो ईश्वर कोई दूसरा उपकरण ढूंढ लेंगे।

शताब्दी वर्ष (प.पू. डा. हेडगेवार जन्मशती) में हमने 'संस्कार संकल्प' वर्ष मनाने का निश्चय किया है। श्रमिक क्षेत्र कार्यकर्ता के रूप में हम अपने में और अधिक सुधार करें।

एक सुविख्यात मराठी उपन्यासकार ने प.पू. श्री गुरुजी से कहा मैं संघ कार्य और विचार से अत्यंत प्रभावित हूँ और स्वयंसेवक बनना चाहता हूँ किंतु संघ की प्रतिज्ञा ईश्वर के नाम पर की जाती है। मैं नास्तिक हूँ अतः ईश्वर के नाम से प्रतिज्ञा नहीं ले सकता क्या करें। प.पू. श्रीगुरुजी ने कहा आपका संसार में जो भी सर्वाधिक प्रिय है आप उस नाम से प्रतिज्ञा लें इसमें कोई आपत्ति नहीं है।

मैक्सिम गोर्की ने लिखा है कि विशेष परिस्थिति में सरकार, प्रबंधक तथा श्रमिक मिलकर लोगों का सामना कर सकते हैं।

अखिल भारतीय स्तर पर महिलाओं के संगठन का गठन सही नहीं होगा। भविष्य में इस कारण से कठिनाइयाँ आ सकती हैं। अगर आवश्यक लगे तो प्रदेश स्तर पर महिला संगठनों का गठन करना उचित रहेगा। वहाँ अगर कोई कठिनाई आती है तो प्रदेश स्तर के संगठन को विसर्जित करना आसान है। आप किसी भी महिला को भा. म. संघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष भले ही बना लीजिए किंतु राष्ट्रीय स्तर पर उनका संगठन नहीं बनाइए।

हमने धन संग्रह और उसके तौर तरीकों पर चर्चा की है। सार्वजनिक उपक्रमों में समझौता हुआ है। हम इन उपक्रमों के कर्मियों से एक पवित्र उद्देश्य पूर्ति हेतु धन संग्रह की अपील करें। हम रा. स्व. संघ से आते हैं अतः नौकरशाहों से हमारा कैसा व्यवहार रहे हम जानते हैं।

कल हमने महासंघों और प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय भा. म. संघ के साथ संबंधों पर चर्चा की थी। यह संबंध सहयोगात्मक और एक दूसरे के पूरक होने चाहिए। रेलवे में अपने कार्य विस्तार की आवश्यकता है। हमने तकनीशियन कैडर श्रमिकों की हड़ताल की देखभाल सँभाल की है। हमें बी. आर. एम. एस. के कार्य को ब्रांच स्तर तक ले जाना चाहिए।

बैंकिग उद्योग में ए. आई. बी. ए. का ग्राफ नीचे आ रहा है। एन. ओ. बी. डब्ल्यू का कार्य बढ़ रहा है ऐसे में भा. म. संघ ने और क्या कदम उठाए। क्षेत्र स्तर पर भा. म. संघ और महासंघों ने आपसी तालमेल से कार्य आगे बढ़ाना चाहिए। गोवा प्रदेश के लिए एक समिति का गठन किया है। उत्तर पूर्व में भी हमें कामयाबी मिल रही है।

इस शताब्दी वर्ष में हम अपना संगठन कार्य बढ़ाए।

सोपान - 3

(कुछ प्रमुख बिंदु)

· हम गैर राजनीतिक हैं और दलगत राजनीति से परे हैं कि हमारे स्वयं के सांसद और विधायक होने चाहिए। इस बात की आशंका जताई जाती है कि अगर हम दलगत राजनीति से ऊपर रहते हैं तो हमारे कई सांसद और विधायक नहीं होंगे। तो फिर क्या रास्ता निकाला जाए। यहाँ हो सकता है कि भारतीय मजदूर संघ संसद और विधानसभाओं में अपना समूह (लाबी) तैयार करे और वह लाबी श्रम संघ संबंधी मसलों पर सरकार पर जोर डाले।

· ऋषि पहले बोलते हैं तद्नन्तर उसके अर्थ समझ में आते हैं। प्रथम ऋषि के जो अंतिम शब्द थे वह यही थे 'विजय ही विजय है।

· हम रा. स्व. संघ के स्वयंसेवक हैं। हमारी निष्ठा संघ के प्रति है। हमारा चरित्र संघ के नाते जाना जाता है किंतु संघ हमारा नियंत्रण नहीं करता इसलिए हम जैन्यून ट्रेड यूनियन चलाते हैं।

· हम जैन्यून ट्रेड यूनियनिस्ट हैं। वामपंथी ब्रेड एण्ड बटर (Bread butter) आर्थिक प्राणी हैं। उनका ट्रेड यूनियनिज्म राजनीति से बँधा है। रोजीरोटी (Bread and butter) के लिए हम भी संघर्ष करते हैं किंतु हमारे लिए वही सब कुछ नहीं है। हम किसी भी राजनीतिक दल के वामपंथिओं की तरह अग्रिम मोर्चे (Front Organisation) ) के नाते कार्य नहीं करते। हम राष्ट्रवादी हैं। राष्ट्रहित और मजदूरहित एक ही है। राष्ट्रवादी से हमारा तात्पर्य वह संगठन याने भा. म. संघ जो मजदूर क्षेत्र में राष्ट्र के पुनर्निर्माण में संलिप्त है। संगठन कार्य में छह प्रकार हैं यथाः कार्य, कार्यक्रम, कार्यकर्ता, कार्यालय, कानून और कोष महत्वपूर्ण हैं।

· हमारा ध्यान कुटीर उद्योग व किसानों पर केंद्रित होना चाहिए। कुटीर उद्योग में श्रीनिवास समिति द्वारा संस्तुत नई टेकनालोजी को प्रयोग में लाया जाना चाहिए जो हमारे देश के अनुकूल उपयुक्त है। हमें निगरानी रखनी चाहिए कि 40 प्रतिशत जो ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आवंटन हुआ है वह वाछित लोगों तक पहुँचे।

· एक श्रेणी में वे लोग होते हैं जो शुद्ध राजनीतिज्ञ होते हैं किंतु बचे हुए समय में राष्ट्रनिर्माण का भी कुछ कार्य करते रहते हैं। दूसरी श्रेणी में वे राष्ट्रनिर्माता होते हैं जो राष्ट्रनिर्माण कार्य में व्यस्त रहते हैं पर बचे हुए समय में कुछ राजनीतिक साधना भी कर लेते हैं। फ्रांस के जान ऑफ आर्क सक्रिय राजनीति में होते हुए भी राजनीतिज्ञ नहीं थे।

· समय का क्षितिज अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग होता है। राजनेता के लिए समय क्षितिज चुनाव से चुनाव तक होता है- एक स्टेट्समेन के लिए दशाब्दी से दशाब्दी तक किंतु एक राष्ट्र निर्माता का समय क्षितिज शताब्दी से शताब्दी तक होता है।

· हम तीन बिंदुओं पर विचार करते हैं। भारतीय मजदूर संघ एक संगठन के नाते, भारतीय मजदूर एक क्षेत्र के नाते और भारत एक राष्ट्र के नाते। अच्छे से अच्छे की आशा रखो किंतु बुरे से बुरे की तैयारी रखो। यही भारतीय मजदूर संघ का सूत्र है। हमारा कार्य अभी थोड़ा है किंतु हम देखें कि औद्योगिक क्षेत्र में राष्ट्र विरोधी तत्व टिकने न पाएँ। जिस उद्योग में हमारा कार्य हो वहाँ हम पहरुए (Watch dog) की भूमिका का निर्वहन करें। आह्वान बढ़ रहे हैं और उसी के अनुरूप हमें अपनी सामर्थ्य बढ़ानी होगी।

· सब कुछ सरकार की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। पर्सिया के गृहमंत्री ने सेना को स्पष्ट कहा आपकी बंदूक से चलाई गई एक एक गोली मेरी बंदूक से चलाई गई गोली है उसके कुछ दिन पश्चात् मार्शल गोरिंग ने बताया कि रशियन साइड से की जाने वाली आतंकी घटनाएँ समाप्त हो गई हैं। आतंकवाद समाप्त करने की इच्छा शक्ति चाहिए।

· विदेशी धार्मिक प्रभाव और आर्थिक प्रभाव वास्तव में दोनों विदेशी पूँजीवादी और आर्थिक साम्राज्य की दो टाँगे हैं। इन दोनों प्रभावों के खतरे को हम समझे हैं। भारतीय मजदूर संघ अब आर्थिक स्वतंत्रता के द्वितीय संग्राम को आगे बढ़ा रहा है।

· एक नई परंपरा स्थापित करें। सेवानिवृत्ति के पश्चात् कार्यकर्ता को पद पर न बनाए रखें किंतु उनके विस्तृत अनुभव का लाभ संगठन को मिलता रहे सो नए कार्यकर्ताओं की दक्षता बढ़ाने का काम उन्हें सौपें।

· पैतृक नेतृत्व के बारे में विचार करें। परिवर्तन (Change) आना स्वभाविक है। युवा कंधों पर प्रौढ़ परिपक्व मस्तिष्क (old brains on young shoulders) कंधों ने निर्णयों का कार्यान्वित करना और अनुभवी प्रौढ़ मस्तिष्क ने निर्देशित करना चाहिए। परिवार भाव से बड़े बूढ़ों ने मार्गदर्शन करना चाहिए। छोटी-मोटी बातों पर टोका-टोकी यह करो, यह न करो याने पैतृकता भाव से निर्देशित करना चाहिए। युवा कार्यकर्ताओं को इस परिवार भाव संस्कृति का संस्कार उचित व्यवहार से देना चाहिए।

· हमें जमीनी स्तर (grass root) की जानकारी रखनी चाहिए। यह तभी संभव है जब हमारे ग्रांउड लेवल के सभी कार्यकर्ताओं से सीधे जीवंत स्नेह संपर्क संबंध होंगे।

· प्रचार वर्षा समान है। वर्षा एक सीमा तक ही अच्छी है। अधिक हो तो बाढ़ और कम हो तो सूखा।

· समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी महाराज के बारे कहा वे 'श्रीमंत योगी' हैं। वे संपन्न और धनवान हैं पर भोगी नहीं योगी हैं।

· हमारी सफलता निश्चित है। वह हमारी विचारधारा के कारण है। हम तनावमुक्त सहज स्वभाविक रूप से कार्य करें युद्धस्व विगतज्वर--

· औद्योगिक महासंघ का पदाधिकारी प्रथम और अंत (First and Last) भा. म. संघ का कार्यकर्ता पहले है।

· साम्यवाद अपने अंतर्निहित विरोधाभासों ही के कारण समाप्त हो जाएगा। यह समझकर हम पंद्रह, बीस लोग भोपाल में एक साथ बैठे थे और भा. म. संघ निर्माण करके इसे एक धक्का लगाते हुए नीचे लाने का विचार किया। हमें पूर्ण विश्वास था कि ईश्वर भौतिकवाद को नष्ट करने वाले हैं। चीन ने 1979 में कहा कि उसे आध्यात्मिक सभ्यता की आवश्यकता है। वर्ष 1979 नए मोड़ का महत्वपूर्ण (Turning point) बिंदु है।

· विश्व में सब से पहली सफल क्रांति भारत में हुई है। हमारे बहुत सारे बुद्धिजीवी साम्यवादी बन गए। अब परेस्त्राईका की चर्चा चली है। जीवन बीमा में सी. पी. एम. की ए. आई. आई. ई. ए. (AIIEA) का वर्चस्व था किंतु उसकी अब वह स्थिति नहीं है। समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में साम्यवादी विचार के विरोधाभास उजागर हो रहे हैं। परमेश्वर की रचना के जो शाश्वत यूनिवर्सल नियम हैं साम्यवादी अब उसके शिकार हो रहे हैं।

खंड 4

 

सोपान -4

 

संस्मरण

1. उदय राव पटवर्धन (पुणे)

2. डा. ईश्वर चन्द्र (कानपुर)

3. सर्वेश चन्द्र द्विवेदी (लखनऊ)

4. श्रीमती श्रीकान्त विद्या धारप (मुंबई )

5. दिनेश चन्द्र त्यागी (दिल्ली)

6. अमर सिंह सांखला (उदयपुर)

7. राजेश्वर दयाल (आगरा)

8. सरोज मित्र (दिल्ली)

9. शब्द संकेत

10. अखिल भारतीय अधिवेशन की जानकारी

11. लेखक परिचय

सोपान- 4

(संस्मरण)

उनका पूरा जीवन ही प्रेरणास्रोत था

उदयराव पटवर्धन

पूर्व महामंत्री

भारतीय मजदूर संघ

पुणे (महाराष्ट्र)

भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री ठेंगड़ी जी के मार्गदर्शन में जिन कार्यकर्ताओं ने अपने कुछ पल बिताए वे सभी उनके लिए प्रेरणादायी बने। इसलिए श्री ठेंगड़ी जी का पूरा जीवन ही प्रेरणास्रोत है।

भा.म. संघ के काम में बिताए पिछले दशकों में मेरा उनके साथ सहवास बहुत कम रहा। मैं छोटा कार्यकर्ता हूँ और दत्तोपंत जी हर बीते वर्ष के साथ और ऊँचे बनते चले गए।

'अपने स्थान पर बैठकर भा.म. संघ में सही फैसला करना सीखा नहीं है, इसलिए जब तक साँसें चल रही हैं, दौरा करना पड़ेगा" ऐसा दत्तोपंत जी ने मेरे सामने पुणे में डॉक्टर मुळेजी को बताया। जब तक उस स्थान पर पहुँचकर कार्यकर्ताओं का मन नहीं जानते और इर्द गिर्द की स्थिति सामने नहीं आती तब तक सही क्या है इसका अंदाजा आप नहीं लगा सकते। यह स्पष्टीकरण भी उनको दिया था।

दत्तोपंत जी के व्यक्तित्व और उनके प्रवास का यह अनिवार्य हिस्सा रहा है। मन की बात, प्रवास में कार्यकर्ताओं को बताना। उनकी प्रतिक्रिया जानना। उस आधार पर आगे की रणनीति एवं कार्यक्रम तय करना ऐसा वे करते रहे। अपने चिंतन की वैधता एवं उपयोगिता को खूबी से प्रस्तुत करते रहे एवं उससे उपजे कार्यक्रमों की मान्यता सभी के मन में बने ऐसा उनका प्रवास कार्यक्रम चलता रहा।

मुझे एक प्रसंग याद है

अप्रैल 1984 को मैं पुणे (महाराष्ट्र) जिले का मंत्री था। एक कार्यक्रम में मुझे मा. ठेंगड़ी जी को लेकर जाना था। ऑटो रिक्शा में हम चले। उन्होंने मुझे पूछा कि इंडियन ऑयल की वेतन वार्ता कैसे चली है मुंबई में?

1980 में सरकार ने इस उद्योग की सेवा शर्तें तय करने का सर्वाधिकार सरकार के पास लेने वाला कानून बनाया था और इसलिए उस उद्योग में आंदोलन की वार्ताएँ चल रही थीं। मैंने तत्काल कहा कि कलेक्टिव बारगेनिंग नहीं बचा है। तब से हाल ठीक नहीं है।

ठेंगड़ी जी ने कहा कि, द्विपक्षीय वार्ता अलग है और कलेक्टिव बारगेन अलग है। यह आप जानते नहीं हो। हम जिम्मेवार संगठन हैं। शब्दों का प्रयोग भी सोच समझकर करना चाहिए ।

बाद में सभी बारीकियाँ भी समझायीं। बाद में उनका प्रवास चलता रहा। निश्चित है कि यह चर्चा अन्य वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से लेकर जिला स्तर तक मा. ठेंगड़ी जी ने की होगी।

पर्याप्त समय देकर और देश भर का मन बना है ऐसा जब प्रतीत हुआ तब ठेंगड़ी जी ने दिसंबर 1987 में संपन्न हुए त्रैवार्षिक अधिवेशन बंगलोर में सूत्रपात किया और घोषित किया कि भारतीय मजदूर संघ ग्राहक के हित की सुरक्षा की पहल करता है। इसलिए औद्योगिक वार्ताओं में ग्राहक हित की सुरक्षा को साक्षी रखकर भा.म.संघ इस वार्ता प्रक्रिया को कलेक्टिव बारगेनिंग की संज्ञा से नहीं तो नेशनल कमिटमेंट के नाम से जानेगा। यह क्रांतिकारी परिवर्तन महज एक घोषणा नहीं थी तो उसके पूर्व अढ़ाई तीन वर्ष की विविध स्तर की वार्ताएँ आधार बनीं थीं, अर्थात सभी प्रतिनिधियों ने इसको सहज स्वीकार किया था। बाद में और भी उद्योग/उत्पादन का केंद्रबिंदु ग्राहक रहा है और उस दृष्टि से पूरे विश्व में नेशनल कमिटमेंट स्थापित हुआ है। इन शब्दों का व्यवहार में उपयोग शायद कम होता है।

अपने शुरूआत के एक दशक का काल मैंने एक छोटे जिले में बिताया वहाँ जिला मंत्री था।

1974 में प्रांत स्तरीय पाँच दिन के चिंतन शिविर में कार्यकर्ताओं की व्यवस्था में था। ठेंगड़ी जी को दूर से ही देखा करता था। उसके पूर्व आपका दो दिवसीय प्रवास 1972 में सतारा जिले में हुआ था तब वहाँ एक उद्योग में सक्रिय कार्यकर्ता था और रैली में मैंने पहली बार ठेंगड़ी जी को देखा था। आपत्स्थिति के बाद पुणे में एक प्रादेशिक बैठक में 1977 में मुझे बुलाया गया था और इसी वर्ष बड़ोदरा के अ.भा. शिक्षा वर्ग में मैं सहभागी था।

इसके बाद लगभग सात वर्ष बीत गए और कभी ठेंगड़ी जी से मिलने का मौका नहीं मिला था। किसी कारणवश शायद मिलने पर आम कार्यकर्ताओं पर पाबंदी जैसी लगायी गयी थी।

1984 में संचालन समिति की बैठक पुणे में हुई। तब मैं पुणे में था और जिला मंत्री बना था। तब फरवरी में बात करने का आधा मिनट समय मिला, एक मेसेज देना था। ठेंगड़ी जी निकलकर जीप में बैठे ही थे।

मैं पहुँचा तब एकदम से मेरा नाम लेकर पुकारा-कहा क्या बात है? क्यों दौड़े चले आए हो? मैं रोमांचित हुआ। अहसास हुआ कि मेरे ऐसे छोटे कार्यकर्ता को भी याद रखते, सात वर्षों के बाद।

बाद में लगभग सभी ने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं, परिवार वालों के घर के बच्चों के नाम भी याद रखते हैं। कोई इतना ही करे कि जो संपर्क में आया उसको याद रखे और दूसरा कि फैसला सुनाने से पहले संबंधित हर एक व्यक्ति को सुना जाए तो मुझे लगता है भा.म.संघ को कोई रोक नहीं पाएगा। श्री दत्तोपंत जी से जब बाद में संपर्क हुआ, स्नेह से मिलने तक की कई यादें आज भी आँखें नम कर जाती हैं। किंतु जिनसे सीख मिली ऐसा स्मरण थोड़े में प्रस्तुत किया है।

ह्रदयस्पर्शी थे वे क्षण

डॉ. ईश्वर चन्द्र

मा. क्षेत्र संघचालक

पूर्वी उत्तर प्रदेश (कानपुर)

सन् 1990 की बात है, उस समय श्री राम मंदिर निर्माण हेतु आंदोलन अपनी युवावस्था में था। जन-जन में उत्साह, जोश एवं तीव्र उमंग हिलोरें ले रहीं थीं। इसी समय श्री राम कारसेवा के माध्यम से कानपुर में प्रथम सत्याग्रह आयोजित किया गया। इसका नेतृत्व मैं ही कर रहा था। उस समय मेरे साथ लगभग 450 कार्यकर्ता थे। हम सभी को बंदी बनाकर फतेहगढ़ की जेल भेज दिया गया। इसके उपरांत कानपुर एवं अन्य नगरों, शहरों एवं प्रदेशों के कार्यकर्ताओं को बंदी बनाकर फतेहगढ़ की जेल में ही भेजा जा रहा था। इस तरह वहाँ लगभग 4000 सत्याग्रही बंदी बना लिए गए थे। इसी समय परम पूज्य स्वामीजी श्री परमानन्द जी महाराज एवं साध्वी ऋतम्भरा जी भी वहाँ पहँचे। विशाल जनसमूह एकत्रित होने के कारण आपसी समस्या निवारण हेतु कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को विभागों के दायित्व दिये गए जिसमें मुझे प्रशासनिक विभाग दिया गया। मुझे प्रशासनिक अधिकारियों से वार्ता करनी होती थी।

लगभग तीन-चार दिन बाद ही श्रद्धेय श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी को कानपुर से एवं श्री संघ प्रिय गौतम जी (सांसद) को लखनऊ बंदी बनाकर फतेहगढ़ के बंदी गृह में पहुँचाया गया। उनके आगमन मात्र से ही हम सभी कार्यकर्ताओं का मनोबल समोन्नत हो गया। अपने स्वभाव के अनुसार वे सभी कार्यकर्ताओं की चिन्ता करते हुए उनसे मिले। इन राम भक्त कार्यकर्ताओं में केरल के भी बहुसंख्यक रामभक्त थे। पूज्य श्री ठेंगड़ी जी केरल में प्रांत प्रचारक भी रहे थे। वे उनके पास बड़ी आत्मीयता के साथ मिलने पहुँचे एवं उनकी समस्याओं को समझा। भाषा की अनभिज्ञता के कारण वे खाना नहीं खा पा रहे थे अतः पूज्य श्री ठेंगड़ी जी ने आकर मुझसे कहा कि इन लोगों के लिए चावल और हरी मिर्च की व्यवस्था कर दीजिए , वे लोग स्वयं पकाकर खा लेंगे। आपके बौद्धिक प्रारंभ हुए और उनके प्रभाव से हम सभी का उत्साह एवं जोश उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। यह समाचार किसी तरह दिल्ली प्रशासन तक पहुँचा। परिणामस्वरूप वहाँ से आदेश आया कि पूज्य श्री को अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया जाए। हम लोगों के मनों में शंका हुई कि वहाँ आपको कुछ हो न जाए। अतः सभी की सम्मति से मैंने तत्कालीन पुलिस अधीक्षक महोदय से अनुरोध किया कि आपके साथ हममें से किसी एक कार्यकर्ता को भेजा जाए। यह निवेदन स्वीकार कर लिया गया। यह समाचार किसी तरह पूज्य श्री के कानों तक भी पहुँच गया। वे मेरे पास आए और बड़े ही सहज ढंग से बोले भाई डॉ. साहब आप यहाँ के माननीय संघचालक जी हैं आप बतायें हमें क्या करना है? वे स्वयं अखिल भारतीय अधिकारी हैं, और मेरा मानवर्धन करने के लिए मुझसे पूछ रहे हैं। आपकी इस सहजता एवं सरलता ने मेरे मन को अत्याधिक प्रभावित किया। मेरे नेत्रों से स्नेहाश्रु छलक आए। लगभग 15 दिन बाद जब हम सभी जेल से मुक्त किए गए और हम लोग कानपुर आए तो उन्होंने कहा कि आप परम पूज्य स्वामी जी एवं पूज्या ऋतम्भरा जी को अपने घर ले जाइए। मैं राम भक्तों के साथ संघ कार्यालय पर ही जाऊँगा। यहाँ भी आपकी सादगी निरभिमानिता एवं समत्व परिलक्षित हो रहा था।

वास्तव में उनके साथ बिताए गए वे हृदयस्पर्शी क्षण आज भी याद आते हैं। यदि उनके इस निरहंकार, सहज एवं सरल जीवन पद्धति तथा राष्ट्रभक्ति, समाजसेवा, सर्वभूते हिते रतः की भावना एवं वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का हम सभी अनुकरण करें तो निश्चित ही हम परम् वैभव नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम् की कल्पना को साकार कर सकते हैं। यही उनको वास्तविक श्रद्धांजलि होगी। हम उनके दिव्य चरणों में शत्-शत् प्रणाम् एवं श्रद्धा सुमन समर्पित करते हैं।

दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का व्यक्तित्व-कृतित्व सर्वस्पर्शी

सर्वेश चन्द्र द्विवेदी

पूर्व अखिल भारतीय वित्त सचिव

भारतीय मजदूर संघ

लखनऊ

भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी से संपर्क वर्ष 1970 में हुआ। तब से उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का स्पर्श प्राप्त होता रहा। उन्होंने भारतीय विचारों को वाणी व्यवहार से सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन किया। उनके सापेक्ष कुछ बिंदुओं का उल्लेख आवश्यक है।

भारत परिचय:

भारतीय शास्त्रों (श्रुति-स्मृति) के आलोक में दार्शनिक चिंतन रहा। हिरण्यगर्भ भगवान पुरुषोत्तम का उत्क्रान्त स्वरूप पंच भूतात्मक सृष्टि व्यष्टि तक प्रकृति (सुकृति-विकृति) को माया कहा। जो पूरे विश्वात्मक जगत् व सभी लोकों में व्याप्त है। विशेषतः भारत भू पर चतुर्युगीन व चतुर्पुरुषार्थ, चतुर्वर्णआश्रम भाषित है। जिसको त्याग, तप, दान रूपी यज्ञ की संज्ञा दी उसे ही संस्कृति कहा। जिसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति का सम्यक् दर्शन रहा। यह हमारा धर्म है। भारत कर्मभूमि शेष संपूर्ण विश्व भोग भूमि अतः इसे देवभूमि, पितृ भूमि, धर्म भूमि, कर्म भूमि, मातृ भूमि कहते हैं। गुण कर्म स्वभाव के अनुसार युगानुरूप इसके नाम सतयुग में ब्रह्म ऋषि देश, त्रेता में भारतवर्ष, द्वापर में आर्यावर्त, कलियुग में हिंदू स्थान। तदनुसार विजयशालनी शक्ति, सत्य, ज्ञान, कर्म व श्रम पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, (सुख-शांति), वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आज यह काल वाह्य प्रतीत होते हैं। कलियुग का महावाक्य "संघे शक्ति कलौ युगे" तथा " श्रमेव जयते" अतः संघ (संगठन) व श्रम की शक्ति से विजय व सुख शांति की कामना।

भारत वैभव संपन्न रहा है। यहाँ कृषि, गोपालन, विपणन, उद्योग, कला-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, धर्म-कर्म, सुख-शांति का देश अपनी श्रेष्ठता पर है। इसलिए विश्वगुरु और सोने की चिड़िया कहा जाता था। पश्चिम की भोग वृत्ति के कारण आक्रांत होकर इसे विनष्ट कर अपना साम्राज्य (राज सत्ता) स्थापित कर भारत सहित पूरे विश्व को गुलाम बनाने का कार्य किया।

यहाँ के कौशल को समाप्त कर उद्योगों के स्वरूप को बदला, मशीनी लाभ कमाऊ शोषण युक्त व्यापार व्यवस्था स्थापित की जिसे औद्योगिक क्रांति का नाम दिया। श्रम को भी व्यापारिक दृष्टि से एक कमोडिटी माना। उपभोक्ता को लक्ष्य रखकर खंडश: सोच के साथ व्यापारिक लूट की आधारशिला रखी जिससे मालिक मजदूर के संबंध बिगड़े, शोषण से निजात हेतु श्रमिक संगठित हों आंदोलित हुए। आर्थिक, राजनैतिक, व वैयक्तिक स्वतंत्र विचार संगठनों में परिवर्तित हुए। जिससे वर्ग संघर्ष की उत्पत्ति हुई पूरा विश्व शोषक, शोषित में विभक्त हुआ। जन आंदोलन हुए। देश स्वतंत्र होने लगे। भारत में भी आंदोलन हुए। भारत भी 1947 में स्वतंत्र हुआ। यहाँ भी श्रमिकों के संगठन राजनैतिक, आर्थिक, वैयक्तिक आधार पर बने।

भारतीय मजदूर संघ की स्थापना:

मान्यवर दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के मार्गदर्शन में 23 जुलाई 1955 को मध्य प्रदेश के भोपाल में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना हुई। भारत स्वातंत्र्य के प्रणेता व प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी महाराष्ट्र में जन्मे बाल गंगाधार तिलक जी जिन्होंने कहा था-" स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है हमें पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए।" अर्थात (व्यक्ति स्वातंत्र्य, कर्म स्वातंत्र्य, अर्थ स्वातंत्र्य, राज स्वातंत्र्य तथा सामाजिक सरोकार स्वातंत्र्य) से प्रेरणा लेकर ही उनके जन्मदिन पर भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की। भारतीय चिंतन को दृष्टिगत रखकर चतुर्पुरुषार्थ की सिद्धि हेतु कर्म की प्रधानता के प्रतीक भौतिक जगत् के आदि शिल्पी भगवान विश्वकर्मा को आदर्श श्रमिक मानकर मजदूर संघ का कार्य प्रारंभ किया।

संगठन कार्य की प्रेरणा हेतु पथ परहेज:

भारतीय चिंतन पर भारत भूमि को माँ मानें अतः भारत माँ के प्रति पुत्र का भाव, माँ की रक्षा तथा जय की कामना से कार्य। इसके लिए नारा दिया " भारत माता की जय"। महाभारत के शांति पर्व में राज्य के संबंध में भीष्म जी का कथन:

"न वै राज्यं न राजा ऽऽ सीन्नच दंड न दांडिकः।

धर्मेणैव प्रज्ञाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ "

पहले न कोई राज्य था न राजा था न दंड था और न दंड देने वाला ही था समस्त प्रजा धर्म के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा करती थी।

सुखस्य मूलम धर्म: धर्मस्य मूलम अर्थ

सुख धर्म का मूल है और धर्म अर्थ का मूल है। अतः अर्थ के क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों का संगठन सुख के लिए है।

अतः मजदूरों का, मजदूरों के द्वारा गैर राजनैतिक (राजनैतिक निरपेक्ष) मजदूर संघ विशुद्ध राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा। "वसुदैवः सर्वम" अर्थात एक सत्ता के सिवा कुछ नहीं। इस दृष्टि से मैं नहीं हम बोलने की सीख।

मजदूर संघ की क्या पहचान, त्याग तपस्या और बलिदान।

ध्येय- राष्ट्रहित, उद्योग हित, मजदूर हित। राष्ट्र का औद्योगिकरण, उद्योगों का श्रमिकीकरण, श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण।

संकल्प व नारे:

देश (राष्ट्र) के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम।

आय विषमता समाप्त हो, एक दस अनुपात हो।

श्रम की पूँजी श्रम का मान, माँग रहा मजदूर किसान।

पैसे और पसीने की कीमत एक समान।

कमाने वाला खिलाएगा खाने वाला कमाएगा।

पूरे विश्व समुदाय के प्रति नजरिया विश्व बाजार का नहीं, विश्वबंधुत्व का। उपभोक्ताओं के हित को दृष्टिगत रखकर औद्योगिक परिवार माना है। कहते थे राष्ट्र साध्य है संगठन साधन। कार्यकर्ता साधक देश व राष्ट्र के लिए श्रम रूपी तप साधना है। कार्यकर्ताओं की बैठक में मजदूर संघ के कार्य करते समय कार्य की जानकारी लेते समय यह पूछते हैं कि कितने को (चार्जसीट) अभियोग पत्र मिले, कितने निलंबित हुए, सेवा समाप्ति हुई, जेल गए, बलिदान हुए। इससे सभी के प्रति जहाँ संवेदना वहाँ उनमें कार्य के प्रति प्रोत्साहन व आंदोलन के प्रति आत्मविश्वास का जागरण त्याग, तपस्या, बलिदान के प्रति स्वीकारोक्ति थी।

भारतीय मजदूर संघ के उत्सव, जन्मदिन, बलिदान दिवस पर मंच कार्य: पं. बाल गंगाधर तिलक जयंती स्थापना दिवस 23 जुलाई। विश्वकर्मा जी की जयंती 17 सितंबर श्रम दिवस बलिदान दिवस 25 मार्च गणेश शंकर विद्यार्थी भी सर्व पंथ समादर मंच के माध्यम से पंथों में सद्भाव, 23 अगस्त अमृतादेवी के साथ 363 का पर्यावरण के लिए बलिदान, 12 दिसंबर बाबू गेणू जी का बलिदान स्वदेशी दिवस। मंचों के माध्यम से मजदूर जगत् में शक्ति स्वतंत्र समाज सद्भाव, प्रकृति संरक्षण व संतुलन हेतु देश व राष्ट्र के प्रति कर्तव्य बोध कराने हेतु दैनंदिन कार्य के अतिरिक्त कार्य व्यवहार है।

 

(1) सर्व पंथ समादर मंच:

पंथ (Religion) के संबंध में ठेंगड़ी जी का कथन हमें यह मेक और मेकर अर्थात निर्माता और निर्मित के संबंध का बोध कराता है। यह आस्था का विषय है। निर्माता एक निर्मित अनेक विविध रूप में इसे समझने के रास्ते भी अनेक ही हैं। इसलिए सभी पंथ समान रूप से आदर के पात्र हैं। भारतीय समाज आस्थावान है। अतः समाज के सभी लोग समान आदर के साथ बंधुभाव से रहें। कानपुर में हिंदू मुस्लिम सम्प्रदायिक दंगा हुआ। स्वतंत्रता की क्रांतिकारी अलख जगाने वाले "प्रताप" दैनिक समाचार पत्र के सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी 25 मार्च को हिंदू बाहुल्य समाज के स्वरूप नगर से कुछ मुस्लिम बंधुओं को उनके सुरक्षित मुस्लिम क्षेत्र चौबे गोला नई सड़क मूलगंज छोड़ने गए। वहाँ उनकी हत्या कर दी गई। उनका पूरा शव नहीं मिला हाथ पर नाम लिखे से पहचान हो सकी। उनके बलिदान दिवस को सांप्रदायिक सद्भाव व समान आदर हेतु प्रेरणा का दिवस मानकर मंच के कार्य का लक्ष्य रखा। विद्यार्थी जी एक पत्रकार थे। आजकल समाचार पत्रों में, व मीडिया में ऐसे वक्तव्य व अग्रलेख आते हैं जिससे सद्भाव बिगड़े। ऐसे समाचार संपादकीय आते हैं। विद्यार्थी जी ऐसे सम्पादक थे जिन्होंने समाज में पंथों के समादर व सद्भाव कायम करने हेतु केवल लेखनी से नहीं तो वाणी व्यवहार से अपनी कुर्बानी देकर प्रेरणादायी कृत्य किया। सर्वपंथ समादर मंच का निर्णय डॉ. भीमराव आंबेडकर जी व सरसंघ चालक श्रीमान् सदाशिव राव गोलवलकर जी के जन्मदिन 14 अप्रैल 1991 को नागपुर में बैठक कर किया। कार्यकारिणी का गठन दो वर्ष बाद इंदौर में किया तथा वृहत् बैठक दिनांक 11.12 अप्रैल 1998 को विद्युत कालोनी पनकी पावर हाउस कानपुर में हुई, तब से विकास की यात्रा सतत चल रही है।

(2) पर्यावरण मंच:

आज पूरा विश्व बढ़ते औद्योगिक विकास से बिगड़ते पर्यावरण संतुलन से चिंतित है। भारतीय समाज पहले से ही जागरूक था। यजुर्वेद के अंतर्गत रुद्र की स्तुति श्रावण मास में रुद्राष्टाध्यायी में यज्ञ व अभिषेक के द्वारा प्रकृति रुद्र रूप का ही पूजन संरक्षण, जल को वर्षों जल, जीव, जगत् रूप में अगस्त मास में प्रधानता से होती है। मानव के लिए पशु पक्षी, जीव जंतु, पेड़ पौधों, खाद्यान्न सभी पूरक व सहायक हैं। भारतीय समाज में यह संकल्प रहता है कि अपने जीवनकाल में पाँच पेड़ अवश्य लगाएं। तालाब, बाबड़ी, कुँआ, बनवाएं, वंश वृद्धि हो यह हमारा धर्म है। शांति संकल्प में प्रकृति सहित राजस्थान के जोधपुर जिले से 25 किलोमीटर दूर स्थित खेजडली गाँव में दिनांक 28 अगस्त सन् 1730 को जोधपुर के तत्कालीन राजा अजीत सिंह के कारिंदों ने पेड़ों को काटना चाहा। पेड़ न कटे इसके लिए ग्रामीणों ने किसानों ने गाँव के ही रामो विश्नोई की पत्नी अमृता देवी के नेतृत्व में 363 लोगों ने पेड़ों से चिपककर पेड़ रक्षार्थ अपना बलिदान किया। उनकी दो पुत्रियों ने भी माँ का अनुसरण किया। बलिदान करने वाली 69 महिलाएँ सम्मिलित हुई जिन्होंने प्राणों की आहुति दी तभी से इस अवधारणा ने जन्म लिया कि " सिर कटे रूख रहे तो भी सस्ता जाण"। उस समय राजाज्ञा से वहाँ पेड़ काटना बंद। वन्य जीवों को मारना प्रतिबंधित हुआ। अत: 28 अगस्त पर्यावरण दिवस के रूप में अमृता देवी के बलिदान से प्रेरणा लेकर वृक्षारोपण कार्य मंच के माध्यम से करते हैं।

(3) स्वदेशी जागरण मंच:

भारत पर पश्चिमी भोगवादी प्रभाव के कारण राजसत्ता अंग्रेजों के हाथ लगी। उन्होंने देश को गुलाम बनाया। राष्ट्रभक्त नेताओं ने स्व का जागरण कर स्वतंत्रता आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र के अंबेगाँव तहसील में महाळुणे पडवल की एक महिला अपने बच्चों के पुणे जिले को लिए रोटी कमाने हेतु गाँव से बाम्बे आ गयी। उसका एक बेटा भी जिसका नाम बाबू गेणू था। वह कपड़ा मिल में काम करने लगा। पोर्ट से विदेशी माल ट्रक द्वारा लाया जा रहा था जिसका मजदूरों ने विरोध किया। 12 दिसंबर 1930 को 11 बजे न्यू हनुमान रोड पर ट्रक से जा रहे माल को रोका। भारतीय चालक ट्रक को रोककर खड़ा हो गया। अंग्रेज सारजेंट ने ट्रक चलाने को कहा बाबू गेणु जी ट्रक के समक्ष लेट गए। एक अंग्रेज सारजेन्ट ने आकर ट्रक चला दिया। ट्रक बाबू गेणु पर चढ़ गया। वहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। एक सामान्य श्रमिक के बलिदान को स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणा हेतु स्वदेशी दिवस के रूप में मनाने के लिए स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया जिससे मजदूरों के माध्यम से समाज में स्वदेशी अर्थ नीति व भाव की प्रेरणा मिले। शोषण अन्याय के विरुद्ध स्वदेश प्रेम के प्रति बलिदान होने के लिए समाज सदैव तत्पर रहे। इसकी जागरूकता बनाए रखी जाए। यह लक्ष्य रखा।

(4) श्रम दिवस:

विश्व में प्रचलित श्रम दिवस जो कि पश्चिम शिकागो में मजदूरों के द्वारा शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने पर पुलिस द्वारा मजदूरों की बर्बर गोली मारकर हत्या की गयी। यह वर्ग संघर्ष तथा घृणा विद्वेष से उपजे आक्रोश का परिचायक है इसे जीवित रखना श्रम दिवस का शोच है जबकि भारतीय चिंतन में आद्य श्रमिक भगवान विश्वकर्मा जयंती 17 सितंबर श्रम दिवस के रूप में मनाना। इस दिन मजदूर अपने औजारों (टूल्स), मशीनों की सफाई कर आदर व श्रद्धा के साथ पूजन कर उद्योग व रोजी रोटी को अपना मानकर व्यवहार करते हैं। अब प्रबंधक व मालिक भी कारखाना बंद कर इस कार्यक्रम सहभागी होने लगे हैं, सरकारें भी अवकाश घोषित करने लगी हैं। इससे औद्योगिक परिवार भाव के विकास की प्रेरणा मिलती है, वर्ग संघर्ष समाप्त है।

(5) देश समाज , व्यक्ति हेतु आर्थिक चिंतन:

ईशा वास्य उपनिषद का उल्लेख कर बताते थे:

ईशा वास्य मिदं सर्व यत्किचित जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम।।

पश्चिम शिकागो में मजदूरों द्वारा 1 मई को शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई, प्रदर्शन किया, पुलिस ने मजदूरों पर गोली चलाकर बर्बर हत्याएं कीं, मजदूरों में आक्रोश हुआ। इस दिवस को श्रमिक जगत् में मई दिवस के नाम पर श्रम दिवस मनाया जाने लगा। यह धरना, वर्ग संघर्ष, घृणा, विद्वेष से उपजे आक्रोश का परिचायक है इसे जीवंत रखना। भारतीय चिंतन में आद्य श्रमिक भौतिक जगत् के आदि शिल्पी जिन्होंने अपने प्रपौत्र वृत्तासुर जो आक्रांता व शोषक था कि वध हेतु बज्र का निर्माण किया के जन्मदिन 17 सितंबर को श्रम दिवस के रूप में मनाना।

(6) कार्यकर्ताओं का प्रबोधनः

योजक तत्व:- शुक्र नीति के 127 वें शूक्त का वर्णन करते हुए कहते हैं।

अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूल मनौषधम।

आरोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥

कोई भी अक्षर ऐसा नहीं जो मंत्र से शून्य हो, तरु गुल्म आदि। कोई भी मूल (जड़ी बूटी) ऐसी नहीं है जो जड़ी बूटी न हो एवं कोई भी ऐसा पुरुष नहीं जो किसी कार्य के योग्य न हो। किंतु इन सबों को यथोचित रीति से कार्यों में लगाने वाला ही पुरुष दुर्लभ है। अर्थात सभी उपयोगी हैं। हमें भी सभी का सदुपयोग करना चाहिए।

परिचय के महत्व को दर्शाते हुए रुस्तम और सोहराब का उदाहरण देकर बताते हैं कि दोनों पिता-पुत्र थे किंतु परिचय न हो के कारण बचपन में बिछुड़ने पर पुत्र दूसरे राज्य में चला वहाँ सेना में भर्ती हो गया। यह भी सेना में था। दोनों बलवान बहादुर युद्ध में प्रवीण थे। दोनों राज्यों के बीच युद्ध हो गया। दोनों आमने-सामने युद्ध कर रहे, यह निश्चय करके कि मारेंगे। लड़ते समय एक की मृत्यु हो गयी। युद्ध समाप्त हुआ। पता चला कि मारा गया सैनिक था। परिचय नहीं था नहीं तो एक दूसरे को मारने में तत्पर नहीं रहते। समाज के सभी तरह के व्यक्तियों से परिचय रहना चाहिए। उनका उपयोग करना चाहिए। इससे प्रेरणा मिलती है कि हम सभी भारत माँ के सपूत हैं। सहोदर भाई हैं। भारत माँ की सेवा में अलग-अलग मोर्चे पर कार्य कर रहे हैं। वर्ग संघर्ष या विद्वेष नहीं होगा। लक्ष्य प्राप्त हेतु सहायक होगा। वह स्वयम् प्रत्येक कार्यकर्ता के नजदीक जाकर आत्मीयता से परिचय प्राप्त करते थे। जिसे आत्मस्पर्शी परिचय कह सकते हैं।

(7) श्रम कर्म की प्रेरणा:

भगवद्गीता के ज्ञान, कर्म, भक्ति के समुच्चय दर्शन में 18 वें अध्याय के श्लोक का वर्णन करके कहते थे।

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्म चोदना।

करणं कर्म कर्तति त्रिवधाः कर्म संख्यः।।

ज्ञाता, ज्ञान, और ज्ञेय ये तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा हैं। कर्ता, करण, तथा क्रिया यह तीन प्रकार के कर्म संग्रह हैं। इसलिए कर्म फल सुलभ हो इसके लिए कार्यकर्ताओं का प्रबोधन, प्रशिक्षण और अभ्यास वर्ग का आग्रह रहता है।

अधिष्ठान तथा कर्ता करणं च पृथग्वि धाम्।

विविधाश्च पृथक्वेष्टा देवं चैवात्र पंच्चमम्।।

कर्म की सिद्धि में अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कारण एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसी ही पाँचवाँ हेतु दैव है। अधिष्ठान मानव के लिए शरीर है तो राष्ट्र के लिए देश है। राष्ट्र के परम वैभव हेतु जिस प्रकार हमारे अंत: व ह्य करण, व्याकरण व उपकरण हैं। कर्ता द्वारा स्वयं की चेष्टा, पवित्र संकल्प जो राष्ट्र भक्ति का प्रेरक है। अंत: करण में मन बुद्धि, अहंकार व आत्मा, वाह्य करण में शरीर की वाह्य इंद्रिय, व्याकरण भाषा, वाणी, लिपि, आदि उपकरण, मनुष्य के सहायक मशीन आदि यंत्र इनका संयम मानव व राष्ट्र का समुच्चय, संगठन, कर्ता रूप में विविध चेष्टाएँ, उनके शिव संकल्प से कर्म को प्रेरणा हेतु ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय तथा कर्ता, करण, क्रिया से कर्म संग्रह अर्थात शुभ फल होगा। कर्मों की सिद्धि उसका भी फल शुभ ही होगा।

संगठन को साधन तथा राष्ट्र (भारत माता) को साध्य मानकर विविध क्षेत्रों में संगठनों को खड़ा करके प्रेरणा दी। औद्योगिक क्षेत्र में श्रम करने वालों के लिए भारतीय मजदूर संघ, तो कृषि उत्पादन करने वालों में किसान संघ, विद्यार्थियों में विद्यार्थी परिषद्, ग्राहकों के हित में ग्राहक पंचायत, अधिवक्ताओं में अधिवक्ता परिषद्, शैक्षणिक कार्य भारतीय विचार का हो शैक्षणिक महासंघ जैसे अनेक राष्ट्रीय विचारों को लेकर काम करने वाले संगठनों की प्रेरणा स्रोत मा. ठेंगड़ी जी रहे। इन सभी का शक्ति केंद्र (पावर हाउस) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।

पश्चिमी शिक्षा तथा भारतीय शिक्षा पद्धति के अंतर को बताया कि लार्ड मेकाले द्वारा स्थापित शिक्षा पद्धति विद्यार्थी व शिक्षक का संबंध ज्ञान लेने और ज्ञान देने वाला है। भारतीय शिक्षा गुरु शिष्य परंपरा में अन्वेषणात्मक ज्ञान अर्जन (डायलिसिस सिस्टम) एक दूसरे के संयुक्त प्रयास व अभ्यास से है। सभी के लिए सुख और शांति मिले इसकी कामना है।

तकनीकी ज्ञान विज्ञान से उत्पन्न मशीन के संबंध में कहना था कि मशीन मानव का प्रतिस्थापन न होकर मानव के सहयोग हेतु उपकरण मात्र है। अतः मानव के कार्य व रोजगार में मशीन सहायक हो इसके लिए सभी मशीन के उपयोग की राष्ट्रीय नीति बने।

(8) विश्व परिदृश्य पर:

विश्व व्यापार की दृष्टि से विकसित देशों ने विकासशील देशों पर आर्थिक नीति व व्यापार नीति बनाकर सदस्य देशों से लाभ कमाने हेतु उदारीकरण के नाम पर (गैट) समझौता जो बाद में डब्लू.टी.ओ. के नाम से प्रतिबन्धित किया जिससे उद्योगों व उपभोक्ताओं, किसानों, मजदूरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा। विश्व बैंक, आई. एम. एफ. जैसे संगठन देशों की आर्थिक व व्यापारिक नीतियों को बदलने की सलाह देकर आर्थिक गुलामी को स्थापित करने का कार्य करने लगे। भारत की सरकार ने भी अनुबंध किया जिसे मजदूर संघ ने देश के हित में न मानकर विरोध किया। लाभ कमाऊ, एकाधिकार शोषण युक्त बाजार नीति लोक हित विरोधी है। विश्व बाजार नहीं विश्व परिवार है। नारा दिया डब्लू. टी. ओ. तोड़ो, मोड़ो, छोड़ो। दिनांक 4 अप्रैल 2001 का दिल्ली में देश भर में भारतीय मजदूर संघ ने मजदूरों की विशाल रैली कर विरोध प्रर्दशन किया। उस समय श्री अटल जी के नेतृत्व में (एन.डी.ए.) की सरकार थी। अन्य देशों में भी विरोध के स्वर मुखर हुए। रैली का उद्देश्य विश्व को संदेश देना भी था कि विकासशील देश शोषण के विरुद्ध एकजुट हों। भारत इसका नेतृत्व करे। इसे दूसरी आर्थिक आजादी की लड़ाई कहा। इससे विश्व जागृत हुआ। लेकिन पूँजीवाद का प्रभाव होने के कारण पूर्ण सफलता नहीं हो पा रही।

ठेंगड़ी जी ने चीन की यात्रा के समय वीजिंग में कहा था कि भारत का मजदूर किसान जनता व चीन के समाज में सांस्कृतिक समानता से है। वह आपस में संघर्ष नहीं सहयोग चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पूरे विश्व से अपने कारणों से साम्यवाद बिखर जाएगा तो पूँजीवाद भी 2010 से अधोगति पर आ जाएगा क्योंकि दोनों पूँजीवाद हैं। एकाधिकार पर आधारित जनता के शोषक अनैतिकता को बढ़ाने वाली शक्ति केंद्रित है। असीमित लाभ व टैक्स प्राप्त करने की नीति लोक हित में नहीं है। अतः विश्व मानवतावादी भारत के तीसरे रास्ते को स्वीकार करेगा जिसे एकात्म मानव या धर्मनिष्ठ अर्थ-काम व्यवस्था कहा है।

(9) कार्य संस्कृति , संविधान सापेक्ष कार्य व्यवहार स्पर्श:

भारत के संविधान के उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चर्चा, विचार की अभिव्यक्ति विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा, अवसर की समानता, सब व्यक्तियों में गरिमा, राष्ट्र की एकता, अखंडता हेतु बंधुत्व। मूल अधिकार तथा कर्तव्यों के लिए नीति-निर्देशक सिद्धांतों का कुछ उल्लेख है। भारत लोक-कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा, विशिष्ट तय आय की असमानताओं को केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों, व्यवसाय में लगे लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास। काम, शिक्षा, बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी, निःशक्तता में लोक सहायता, कर्मकारों को निर्वाह मजदूरी उद्योगों के प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी, पर्यावरण संरक्षण तथा संबर्धन, वन तथा वन्य जीवों का संरक्षण, नागरिक कर्तव्यों में भारत की प्रमुख रूप से प्रभूता, एकता, अखंडता की रक्षा पंथ भाषा, समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण। स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का पालन, पर्यावरण सहित सभी का पालन करने हेतु संगठन की विशिष्ट कार्य संस्कृति विकसित करने हेतु प्रेरणा तथा संगठन कार्य पद्धति का निर्माण कराया।

(10) व्यावहारिक प्रेरणा स्पर्श:

ठेंगड़ी जी सरकार, मालिकों, प्रबंधकों द्वारा उपलब्ध साधनों (मोटर गाड़ी, गेस्ट हाउस) के उपयोग को नकारते थे। स्वयं भी नहीं करते थे। उनका कहना था कि वह इसके बदले अनावश्यक दबाव डालेंगे जिससे मजदूरों का अहित होगा। (वह मुझे सहलाएँ हम उसे अर्थात वह हमारा हित देखें हम उनका हित )

(9) स्वयं का अनुभव:

विद्युत कालोनी पनकी पावर हाउस कानपुर में अखिल भारतीय विद्युत मजदूर संघ का अधिवेशन था। जिसमें कार्यकताओं ने तय किया कि आने वाले अधिकारियों को वस्त्र भेंट किए जाएं। सभी के लिए धोती कुरता का कपड़ा लिया गया। ठेंगड़ी जी के लिए भी समारोप के बाद वस्त्र भेंट किए गए। ठेंगड़ी जी को संघ कार्यालय में भेंट करने की तो पहले मना कर दिया जब हमने विशेष आग्रह किया तो उन्होंने आस्था व श्रद्धा को देखकर मा. राम दास जी से कहा यह धोती रख लो दूसरी निकाल दो तथा यह (वस्त्र) पूर्णकालिक कार्यकर्ता पिताजी के लिए भेंट कर दो। इससे पारिवारिक स्पर्श का आभास हुआ। कार्यकर्ता के परिवार व हम सभी के मन में श्रद्धा का सुखद संचार हुआ।

राम जन्मभूमि आंदोलन में कार सेवा हेतु पूरे देश से रामभक्त अयोध्या आ रहे थे। उत्तर प्रदेश सरकार जो जहाँ मिलता उनकी गिरफ्तारी करती थी। मा. ठेंगड़ी जी की गिरफ्तारी कानपुर में हुई। ईश्वरीय संयोग से मुझे उनका सानिध्य मिला। उस दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी तिथि थी हमने ठेंगड़ी जी से कहा आज हमारा जन्मदिन है। पुत्र को माता पिता पालने में बैठाकर आशीर्वाद देते हैं। हमारी गोद में बैठो उन्होंने सिर पर स्नेहिल हाथ रखकर आशीर्वाद दिया मैं अभिभूत हो गया। घर पर माता-पिता जी को बताया तो पूरा परिवार श्रद्धान्वित हुआ।

दिनांक 27-10-1990 को ठेंगड़ी जी को केंद्रीय कारागार फतेहगढ़ (फर्रुखाबाद) ले जाया गया। रात्रि में पहुँचे वगैर विश्राम तथा प्रक्षालन किए रात्रि से दोपहर तक जेल में देश के विभिन्न प्रांतों से आए कारसेवकों को पता चल गया था कि ठेंगड़ी जी आ गए, मिलना चाहते थे। उन सभी कार्यकर्ताओं से व्यक्तिगत रूप से मिलकर हाल पूछा। सभी का दुख दर्द सुना। सभी से कहा इस समय हम सभी विश्राम के लिए यहाँ हैं। यहाँ से जाने के पूर्व हमारी सेहत अच्छी हो वजन बढ़ाना चाहिए। चिंता मुक्त होकर सेहत बनानी है। दक्षिण भारत के कारसेवकों से उन्हीं की भाषा में बात की। सभी से मिलने पर कारसेवकों में नया उत्साह जाग्रत हुआ निराशा दूर हुई दुख की जगह सुख की अनुभूति हुई। सभी को अवर्णीय सुखद स्पर्श का अहसास हुआ। सरकार की तरफ से जेल प्रशासन में आर. ई. एस. के गेस्ट हाउस को जेल घोषित कर उन्हें स्थानांतरित कर दिया। उसकी व्यवस्था हेतु एक नायब तहसीलदार थे। ठेंगड़ी जी ने जब उनसे परिचय किया तो उन्होंने बताया कि हमारी ससुराल महाराष्ट्र में है। पत्नी वहाँ की हैं। ठेंगड़ी जी ने उनसे दामाद कहकर सम्मान व प्रेम से हाल पूछा- वार्ता की। वह ठेंगड़ी जी के हो गए। डिप्टी जेलर पांडे जी वाराणसी के निवासी थे। मिलकर इतने प्रभावित हुए कि घर से भोजन जलपान भिजवाया तो मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को जानकारी होने पर भोजन जलपान भेजने लगे। संघ प्रिय गौतम राज्यसभा सदस्य थे। वह भी वहाँ आ गए। प्रातः टहलने के समय विविध विषयों पर शंका समाधान ठेंगड़ी जी से प्राप्त किया तो मीडिया के लोग मना करने के बाद भी मिले। आंदोलन के विषय में पूछा ठेंगड़ी जी ने कहा हमारे नेता अशोक सिंघल जी हैं उनसे बात करें वह ही बताएँगे।

साध्वी सुश्री ऋतंभरा जी के साथ कुछ महिलाएं जिला जेल में बंद थीं। ठेंगड़ी जी ने इच्छा व्यक्त की कि उन सभी से मिलना चाहिए। जेल से छूटने पर यह व्यवस्था की गयी कि कन्नौज रोड पर एक भोजनालय (ढाबे) पर भेंट हो। वहाँ सभी से भेंट हुई। सभी ने ऐसा अनुभव किया कि पुत्रियों से पिता भेंट कर रहा हो। सभी अभिभूत हो गयीं। यह स्नेहिल स्पर्श था।

मान्यवर ठेंगड़ी जी राष्ट्र सेवा के व्रती, संघ के प्रचारक, शरीर, मन, वाणी, व्यवहार, भक्तिभाव से पूर्ण समर्पण तपः पूत प्रेम रूपी तेज की आभा से प्रकाशित थे। गीता के ज्ञान, भक्ति, कर्म, योग के कारण सापेक्ष साधना शैली से सिद्ध सर्वज्ञ से त्रिकालज्ञ तो थे ही किंतु जिन्होंने प्रकृति से परे करण उत्क्रांत शैली की साधना की हो वहाँ एक परम तत्व के सिवा अन्य की सत्ता ही नहीं रहती। सत्य शुद्ध प्रेम ही रहता है जिसके प्रकाश का स्पर्श सर्वत्र रहता है। ठेंगड़ी जी का व्यक्तित्व व कृतित्व ऐसा ही रहा। व्यष्टि से समष्टि तक अपने सत्य प्रेम के तेज से आकृष्ट कर सभी को स्पर्श किया। अतः कहना समयाचीन है कि वह सर्व स्पर्शी हैं।

राष्ट्रीय एकात्मकता के धनी स्वयम् निर्धन

श्रीमती विद्या श्रीकान्त धारप

मुंबई

मुंबई आने पर मा. श्री ठेंगड़ी जी का निवास एडवोकेट श्रीकान्त धारप जी के घर पर होना यह लगभग हमेशा की बात थी। कुछ साल पूर्व हमारे मकान की पुताई का काम जारी था। रसोई का कमरा छोड़कर बाकी कमरों में घरेलू सामान अस्त-व्यस्त ठूंसा हुआ था। ऐसी हालत में मा. दत्तोपंत जी हमारे घर पर पधारे। हमें बड़ा ही संकोच हो रहा था। किंतु इस सारी अव्यवस्था को अति सहज भाव से उन्होंने निभाया। मानो हमारे परिवार के एक ज्येष्ठ सदस्य हों।

उनका बड़ा आग्रह रहता था कि रात के भोजन पर परिवार के सभी एक साथ बैठें। परोसने के बहाने घर की महिला ने बाद में भोजन पर बैठना उन्हें मंजूर नहीं था। कभी-कभार सब के साथ मेरे लिए भोजन पर बैठना नहीं हुआ तो स्वयं का खाना हो जाने के बाद भी मा. ठेंगड़ी जी मेरा भोजन होने तक उसी कमरे में चहलकदमी के साथ बातचीत करते थे।

इस प्रकार मा. ठेंगड़ी जी को मिलने हेतु कई कार्यकर्ताओं का हमारे घर आना एक स्वाभाविक बात थी। उनके आने पर मा. ठेंगड़ी जी घर के बुजुर्ग के नाते, चाय पानी और नाश्ता के लिए स्वयं पूछते थे। यह सब एक अकृत्रिम भाव से होता था। यह मकान और परिवार उनका अपना मानकर चलने के कारण हो सकता था। आने वाले कार्यकर्तागण कुछ जानकारी देने या कोई मालूमात हासिल करने के लिए आते थे। यह मा. ठेंगड़ी जी के लिए रोजमर्रा की बात थी और इसमें उनको कतई अटपटा नहीं लगता था। किसी संस्था के कार्यकर्ताओं के व्यवहार से उस संस्था का सही परिचय मिलता है- संस्था के संविधान से नहीं। आदरणीय ठेंगड़ी जी प्रत्यक्ष सहवास के कारण रा. स्व. संघ और भा.म.संघ का सही आकलन मुझे कुछ मात्रा में हो सका।

कर्मठता:

राम जन्मभूमि के लिए आंदोलन के दिन थे। मा. ठेंगड़ी जी के घर पहुँचने पर उनके स्नान के लिए मैंने गरम पानी रखा। स्नान के बाद, मैंने जाकर देखा तो गरम पानी वैसे ही धरा था। मेरे पूछने पर आपका जबाब था- अयोध्या में हड़ताल होगी, जेल भी जाना पड़ सकता है तो वहाँ कौन गरम पानी देगा? उसके बाद मा. ठेंगड़ी जी कभी गरम पानी से नहाए नहीं। उस समय वे उमर के 75 साल पार गए थे। कार्यकर्ता को कितना कर्म कठोर होना चाहिए इसकी यह मिसाल थी।

मेरे पति श्रीकांत जी मा. ठेंगड़ी जी की कर्मठता के कई सारे किस्से सुनाते थे। मुंबई में 1972-73 साल में भा.म.संघ का मोर्चा आयोजित किया था। मोर्चे का मार्ग 12 कि.मी. का था। इतनी सारी दूरी मा. ठेंगड़ी जी ने सभी कार्यकर्ताओं के साथ पैदल चलकर तय कर ली। "चरैवेति" का यह उदाहरण।

मा. ठेंगड़ी जी के उमर के साठ साल पूरे होने पर उनकी षष्टयाब्दि पूर्ति का कार्यक्रम सारे देश भर में करते हुए भा.म.संघ के लिए निधि इकट्ठा करने की योजना बनी। इस कार्यक्रम में आयोजित सत्कार समारोह पर मा. ठेंगड़ी जी को आपत्ति थी, किंतु संगठन के लिए धनसंग्रह को उनकी 100 प्रतिशत सहमति थी। इसके वाबजूद समूचे देश में उनके सत्कार के कार्यक्रम संपन्न हुए और अगले साल भा.म. संघ की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में षष्टयाब्दि पूर्ति के कार्यक्रम न मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया।

मातृ हृदयी कार्यकर्ता

ज्येष्ठ कार्यकर्ता के नाते ठेंगड़ी जी का हृदय मातृवत था। भा.म. संघ ने दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित किया था। अप्रैल मास में यह आयोजन दोपहर के समय होने के कारण चिलचिलाती धूप में पहुँचे हुए कार्यकर्ता कड़ी धूप में मानो झुलस रहे थे। मंच के ऊपर छाया के लिए छप्पर था। धूप में तपते हुए कार्यकर्ताओं को देखकर मंच पर बैठे हुए ठेंगड़ी जी ने मंच के ऊपर का छप्पर हटाने को कहा। मातृ हृदयी ठेंगड़ी जी कितने ही कोमल हृदय के थे, और अपने कार्यकर्ताओं की कितनी चिंता उन्हें थी, इसकी यह मिसाल है।

आपात्काल के समय लोक संघर्ष समिति के सचिव श्री मान रविन्द्र वर्मा मा. ठेंगड़ी जी के साथ हमारे घर पधारते थे। एक बार श्री वर्मा जी बहुत बीमार हो गए। उस समय मा. ठेंगड़ी जी स्वयम् उनकी देखभाल करते थे। घर मालिक एडवोकेट धारप जी भी उस दरम्यान कारागृह में थे। आगे चलकर उसी कारागृह में मा. रविन्द्र वर्मा जी गिरफ्तार होकर पहुँचे। मा. ठेंगड़ी जी ने श्री धारप जी को चिट्ठी लिखकर श्री वर्मा जी की देखभाल के लिए सूचित किया।

एक बार धारप जी का परिवार दिल्ली के ठेंगड़ी जी के निवास पर पहुँचा। वह मकान यानि ब्रह्मचारी की मठी थी और हमेशा जैसी ठेंगड़ी जी की बैठकें मुलाकातें चल रही थीं। वे बहुत ही व्यस्त थे। फिर भी श्री राम दास पांडे जी को हम लोगों की आवभगत की सूचना देकर गए। दिल्ली में हमलोग पाँच दिन रहे। इसलिए मा. ठेंगड़ी जी ने अपना व्यस्त कार्यक्रम होते हुए भी एक पूरा दिन हम लोगों के साथ बिताया। कॅनाट प्लेस के वातानुकुलित होटल में भोजन की विशेष योजना आपने की। मा. ठेंगड़ी जी के बारे में ऐसे अनगिनत उदाहरण बताने लायक हैं।

 

व्यावहारिक बारीकियाँ

प्रतिदिन के गतिविधि में मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी छोटी-छोटी चीजों का बारीकी से ध्यान रखते थे। किसी घर-परिवार में पहुँचने पर उस मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रहें, ऐसा आपका आग्रह होता था। अपने नित्य के व्यवहार में पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए , ऐसा आपका उद्देश्य होता था। मा. रमन भाई शाह की धर्मपत्नी किसी अस्पताल में इलाज के लिए भरती थीं। मा. ठेंगड़ी जी उनसे मिलने के लिए जाने वाले थे। ऐसे समय मैंने उनके साथ चलना चाहिए ऐसा आपने आग्रहपूर्वक कहा। एक बीमार महिला से मिलने की बात थी। ऐसे समय किसी कार्यकर्ता की घरवाली साथ में होना अधिक उचित होगा, यह आपकी सोच थी।

मेरी सासूजी को पढ़ने में बहुत रुचि थी। समर्थ रामदास स्वामी रचित दासबोध का उनका अध्ययन गहरा था। कुछ दिनों से वे अस्वस्थ चल रही थीं। उनकी हालत का मा. ठेंगड़ी जी को पता था। मा. ठेंगड़ी जी ने उनके बीमार होने का कहीं उल्लेख नहीं किया। किंतु आपने उनके पास जाकर कहा, "माता जी आप दासबोध खूब पढ़ती हो, जो उसके हरेक (समास) कड़ी का निचोड़, कृपया लिख दीजिए । आगे चलकर मेरे चिंतन के लिए उनका बहुत लाभ होगा। उनके लिखे हुए कई श्लोक मा. ठेंगड़ी जी ने अपने कार्यकर्ता' इस किताब में दिए हैं। आगे के कार्यकाल में दत्तोपंत जी ने अपने भाषणों में भी उन श्लोकों का उल्लेख किया। यह सुनने पर मेरी सासूमाँ के खुशी का अंदाज लगा सकते हैं और उनकी सेहत में बहुत शीघ्र अच्छा सुधार हुआ।

मा. ठेंगड़ी जी हमारे परिवार से इतने निकट होने पर भी आप कुछ हद तक लक्ष्मण रेखा का पालन हमेशा करते थे। खुद के खाने-पीने की विशेष चाहत या पसंद कभी व्यक्त नहीं की। सघन परिचय का लाभ उठाते हुए, हमने दो-तीन पदार्थ बनाने पर कभी कभार एकाध के लिए 'हाँ' भरते थे।

सामाजिक संगठन में किसी समय कोई कार्यकर्ता निराश होना यह स्वभाविक है। अपने दिल की यह अवस्था खुलकर बताने के लिए ठेंगड़ी जी के अलावा कौन हो सकता है? ऐसे कार्यकर्ता की मानसिक अवस्था टटोलने के पश्चात् मा. ठेंगड़ी जी कहते थे, "ऐसा मौका मुझ पर कभी आया ही नहीं, ऐसा मत समझो। वह कहानी सुनाने के लिए सारी रात कम पड़ेगी। किंतु सही कार्यकर्ता ऐसे सारे घटनाओं को किनारे कर, अपने निहित कार्य के लिए जुट जाना, उस समय वह लड़की के पिता जैसी भूमिका निभाता है।

ऐसे मातृ हृदयी दत्तोपंत जी नित्य (Unattached Involvement) नीति अपनाते थे। कार्य के लिए सर्वस्व समर्पण कर कार्य में Involvement महत्वपूर्ण है। किंतु समय आने पर उसी उलझन से पार होकर अलिप्त होकर आगे के कार्य को प्रस्तुत होना जरूरी है। इसी को Unattached Involvement कहना चाहिए और भाषणों में केवल बताने का सिद्धांत नहीं अपितु स्वयं के व्यवहार में चरितार्थ करने की बात है। मा. ठेंगड़ी जी ने अपने व्यवहार में यह दिखाया है। मेरी सुपुत्री अनधा की शादी के लिए आप दो दिन पूर्व ही पहुँचे थे। विवाह की सारी विधियों में पूरा उत्साह के साथ आप शरीक थे। किंतु शादी के दिन नागपुर से एक महत्वपूर्ण बैठक के लिए आपको जाना पड़ा। शादी तो ठीक ढंग से संपन्न हुई किंतु विवाह के बाद आयोजित सत्कार समारोह में मुंबई और अन्य स्थानों से पधारे हुए ठेंगड़ी जी के निकटवर्ती कार्यकर्ताओं से आपका मिलना न हो पाया। इसकी चुभन आपने फोन पर बतायी। किंतु यह घटना ठेंगड़ी जी के जीवन का Unattached Involve ment ऐसा मैं मानती हूँ।

रात को सोने से पूर्व दिनभर के परिश्रमों से थके-हारे ठेंगड़ी जी कोई रहस्यपूर्ण (Detective) उपन्यास या विनोदपूर्ण पुस्तक पढ़ते थे।

आपको 'रंग संगनि' इस विषय पर भाषण देना था। मेरी लड़की अनधा कमर्शियल आर्टिस्ट की उपाधि प्राप्त कर चुकी थी। नाश्ते के समय मा. ठेंगड़ी जी ने अनधा से इस विषय को लेकर चर्चा छेड़ी। ठंडा रंग, गरम रंग उनकी संकल्पनाएं ऐसे कई बिंदुओं पर बातचीत चली और उस चर्चा के बाद कुछ विषयों का उल्लेख मा. ठेंगड़ी जी ने अपने भाषण में किया। मा. ठेंगड़ी जी आखिर तक विद्यार्थी रहे।

राष्ट्रीय एकात्मता का पुरस्कार मा. दत्तोपंत जी को प्राप्त हुआ। मेरे मन में विचार आया कि यह पुरस्कार की राशि धनादेश द्वारा न देकर आयोजक नकद रूप में देते तो अच्छा होता। इसलिए कि यह धनादेश याने चेक जमा कराने के लिए ठेंगड़ी जी का किसी बैंक में खाता होने की जानकारी मुझे नहीं थी। लाखों कार्यकर्ताओं के धनराशि की निरंतर चिंता करनेवाला यह महापुरुष स्वयम् निर्धन था।

 

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी विराट व्यक्तित्व के धनी

दिनेश चन्द्र त्यागी

दिल्ली

दत्तोपंत ठेंगड़ी एवं डॉ. आंबेडकर में प्रगाढ़ मित्रता की जानकारी बहुत कम लोगों को है। डॉ. आंबेडकर दत्तोपंत जी को हमेशा हिंदू धर्म की विशेषताओं के बारे में बताते रहते थे।

स्वदेशी जागरण अभियान के महानायक एवं राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के समग्र व्यक्तित्व को समझना कोई सरल और सहज कार्य नहीं है। इसके लिए चाहिए स्वदेशी मंत्र, स्वदेशी यंत्र से अनुप्राणित किसी कर्मयोगी का साधना अभियान।

भारत के श्रमिक आंदोलन को विदेशी साम्यवादी तंत्र और मकड़जाल से मुक्त कराने में अग्रणी इस महायोद्धा को समझना है तो उनके द्वारा प्रतिपादित श्रम नीति के उद्घोष वाक्यों के पीछे छिपे मर्म को समझना होगा। उनके नारों और उद्घोष वाक्यों के शब्दों के अर्थ से भी बड़ा महत्व है उसमें अंतर्निहित भाव और भावनाओं का, जिसमें छिपा है। प्रतिबिंब उस महान व्यक्तित्व की मनोकामनाओं का। दूसरे श्रमिक नेता कहते हैं "यह मजदूरों की लड़ाई है." ठेंगड़ी जी कहते हैं "यह मजदूरों की नहीं समस्त लोकतांत्रिक शक्तियों की लड़ाई है, यह राष्ट्रीय स्वाभिमान् को बचाने की लड़ाई है, यह लड़ाई राष्ट्र की आर्थिक स्वतंत्रता और संप्रभुता के अस्तित्व की रक्षार्थ साम्राज्यवादी और साम्यवादी शक्तियों से मिल रही चुनौतियाँ का मुँहतोड़ उत्तर है"। श्रमिकों के साथ ही भारत के किसानों के हित में ठेंगड़ी जी की विचार नीति को यदि समय पर समझ लिया गया होता तो आज भारत के लगभग सभी प्रांतों से किसानों द्वारा आत्महत्या करने के दुखद् समाचार सुनने को शायद नहीं मिलते।

राष्ट्रऋषि के व्यक्तित्व को जितना जाना और समझा गया, जितना प्रचार और यश ठेंगड़ी जी को प्राप्त हुआ जितने लेख, भाषण और विचार प्रकाशित करने की सुविधा उनके सहयोगियों को मिल सकी, उनके मन, मस्तिष्क और हृदय की तरंगों को अजस्रधारा के रूप में प्रवाहित करने में जितनी सफलता मिल सकी, यह सब कुछ मनोवैज्ञानिक गणित के अनुसार उनके कुल व्यक्तित्व की एक चौथाई दृश्यमान छवि ही मानी जा सकती है।

ठेंगड़ी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व का तीन चौथाई भाग तो अभी भी अदृश्य ही रह गया है जिसे वैचारिक समुद्र मंथन के द्वारा राष्ट्रीय हितों के व्यापक संदर्भ में दृश्य पटल पर लाने की महती आवश्यकता है।

 

डा. आंबेडकर और दत्तोपंत ठेंगड़ी जी

ठेंगड़ी जी को डॉ. भीमराव आंबेडकर का निकट सान्निध्य प्राप्त हुआ। इन अनुभवों को लिखा जाए तो एक अच्छी पुस्तक तैयार हो सकती है। एक संस्मरण यहाँ ठेंगड़ी जी की लेखनी से ही उद्धृत किया जा रहा है।

'धर्मांतरण के एक दिन पूर्व नागपुर के श्याम होटल में पूजनीय बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर दिन भर विदर्भ के अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ बैठे थे। सन् 1952 से ही उनको लगने लगा था कि अब अधिक समय वे जीवित नहीं रहेंगे। इस कारण अपने सारे विचार अपने अनुयायियों के सामने रखने की उनकी प्रबल इच्छा थी । बातचीत में एक वृद्ध अनुयायी ने उनसे प्रश्न किया, बाबा साहब, मैंने अपने जीवन काल में कई संस्थाओं का निर्माण होते हुए देखा है। ये संस्थाएँ तो कुछ समय तक तो बड़ी होती गयीं और बाद में घटती गयीं। कुछ तो समाप्त ही हो गयीं। मैं जानना चाहता हूँ कि ऐसा क्यों होता है, संस्थाएँ बढ़ती क्यों हैं और घटती क्यों हैं? बाबा साहेब ने कहा कि तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मैं क्या दूँ? उत्तर तो स्वयं भगवान बुद्ध ने ही दे दिया है। उन्होंने कहा है कि जहाँ उपेक्षा वहाँ काम बढ़ता जाता है और जहाँ उपेक्षा नहीं है वहाँ काम घटता जाता है।

वास्तव में उपेक्षा यानि उदासीनता। इस कारण हम सब लोगों को लगा कि यह संभवत: बाबासाहब के कहने में भूल है। बाबासाहब यह समझ रहे थे। उन्होंने हँसकर कहा, तुम लोग समझते हो कि यह कहने में भूल है। किंतु ऐसा नहीं है। यहाँ भगवान ने "उपेक्षा शब्द का प्रयोग तकनीकी अर्थ में किया है। कोई संस्था या कार्य प्रारंभ होता है. तो उस समय किसी का भी उधर ध्यान नहीं जाता। लोग इसके प्रति उदासीन रहते हैं तो भी थोड़े लोग उस समय काम को करते ही जाते हैं। इस कारण काम थोड़ा बढ़ता है तब लोगों का ध्यान उस ओर जाता है। वे कार्य की उस स्थिति का उपहास मात्र करते हैं। उपहास के कारण कई कार्यकर्ता कार्य छोड़ देते हैं। तो भी शेष कार्यकर्ता निश्चय के साथ काम को आगे बढ़ाते हैं। काम और बढ़ता है तो बाहर से विरोध प्रारंभ होता है। विरोध के होते भी ये लोग काम करते रहते हैं। इसके कारण वे विरोधियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और यश का प्रसार होता है।

यह समय है जब कार्यकर्ताओं के मानसिक परिवर्तन की संभावना का निर्माण होता है। जिन्होंने त्यागपूर्वक बड़े कष्ट सहते हुए निरंतर काम किया, उनके मन में भावना आती है कि काम के बढ़ने में मेरी कितनी भागीदारी है, मेरा कितना श्रेय है यह प्रकाशित किया जाए। इस अंधी दौड़ में मूल कार्यकर्ता आदि श्रेय की भागीदारी की उपेक्षा करते हैं तो काम आगे बढ़ता है और यदि वे स्वयं इस स्पर्धा में दौड़ने लगते हैं अर्थात उपेक्षा नहीं करते (तो काम घटने लगता है) इस अर्थ में भगवान बुद्ध ने उपेक्षा शब्द का प्रयोग यहाँ किया है।

वीर सावरकर पर लिखा ठेंगड़ी जी का अद्भुत संस्मरण

राष्ट्रऋषि ठेंगड़ी जी लिखते हैं- जब मैं कालेज में कक्षा 12 का छात्र था तो हमारे कॉलेज में सावरकर जी का आगमन हुआ। थोड़ी देर में कुछ छात्र काले झण्डे लिए हुए आगे बढ़े जो "सावरकर वापस जाओ" के नारे लगा रहे थे। हमने इन छात्रों को रोकना चाहा परंतु सावरकर जी ने कहा कि इन्हें रोको मत, मैं इनसे बात करना चाहता हूँ। तब प्रदर्शनकारी छात्रों से सारवकर जी ने पूछा कि आप मेरे विरुद्ध प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं, मुझे आप वापस क्यों भेजना चाहते हैं?

एक 14 वर्षीय छात्र खड़ा होकर बोला कि सावरकर जी आप हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं, आपके हिंदू राष्ट्र का घोषणा पत्र क्या है। यह प्रश्न एक कम्युनिस्ट ने उस छात्र को सिखाया था। सावरकर जो ने कहा कि प्रिय छात्रों तुम जीते और मैं हार गया। क्योंकि मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। परंतु यही प्रश्न मुझसे लेनिन ने पूछा होता तो मैं उसका उत्तर अवश्य देता। सावरकर जी ने स्मरण दिलाया कि लंदन में मेरे प्रवास के समय तीन देशों के तीन क्रांतिकारी नेता एक साथ ठहरे हुए थे। मैं सावरकर भारत से, डी वलैरा आयरलैंड से, और लेनिन रूस से। रूसी शासक जार के गुप्तचर लेनिन के पीछे पड़े थे और छिपने के लिए लेनिन मेरे साथ इंडिया हाउस ठहरे। मैंने एक बार लेनिन से पूछा कि यदि आप रूस में सत्ता में आए तब आप क्या कार्यक्रम चलायेंगे। इस पर लेनिन ने कहा कि सत्ता प्राप्ति के बाद ही इसका उत्तर दिया जाएगा। केवल दिशा-निर्देश इस समय समझाया जा सकता है। सावरकर जी ने छात्रों से कहा कि जिस प्रकार लेनिन के पास सत्ता पहले साम्यवाद का ब्ल्यू प्रिंट नहीं था उसी प्रकार मेरे पास इस समय हिंदू राष्ट्र का ब्ल्यू प्रिंट नहीं है।

प्रेरक प्रसंग

अमर सिंह सांखला,

उपाध्यक्ष,

भारतीय मजदूर संघ

उदयपुर (राजस्थान प्रदेश)

वह 17 अक्टूबर 1989 का दिन था। श्री शंभू सिंह जी खमेसरा द्वारा आयोजित किए गए भारतीय मजदूर संघ के संभागीय अधिवेशन में भाग लेने श्रद्धेय ठेंगड़ी जी उदयपुर पधारे थे।

उन दिनों हम सभी धागा फैक्ट्री श्रुति सिंथेटिक्स में अपनी यूनियन की बचाने हेतु संघर्षरत थे। जहाँ श्रमिकों के आपसी झगड़े में एक श्रमिक की मृत्यु हो जाने पर फैक्ट्री में मृत प्राय: इंटक की यूनियन ने अवसर का लाभ उठाने के लिए फैक्ट्री बंद करा दी थी और फैक्ट्री गेट पर धरना शुरू कर दिया था। इंटक के कार्यकारी अध्यक्ष प्रदेश में कांग्रेस की सरकार में श्रम मंत्री के पद पर थे। साथ ही उदयपुर की राजनीति से जुड़े कांग्रेस के अनेक दिग्गज प्रदेश सरकार में अकाल राहत मंत्री. शिक्षा मंत्री इत्यादि पदों पर आसीन थे।

इस वजह से राज्य सरकार के मंत्रियों के दबाव तले पुलिस व प्रशासन काम कर रहा था। पुलिस ने भा.म.संघ की मान्यता प्राप्त यूनियन श्रुति सिंथेटिक्स श्रमिक संघ के अध्यक्ष श्री अशोक सिंह चौहान, जो उस समय भा.म. संघ के जिला अध्यक्ष भी थे, सहित यूनियन के 9 पदाधिकारियों को 302 के झूठे मुकदमे में हिरासत में ले लिया था। फैक्ट्री प्रबंधन भी मान्यता प्राप्त यूनियन होने के नाते जिला कार्यकारिणी को फैक्ट्री प्रारंभ करने का अल्टीमेटम दे चुका था। फैक्ट्री शुरू करवाने के उद्देश्य से गेट के समीप जाते ही इंटक के उपद्रवी तत्व भा.म. संघ के कार्यकर्ताओं व श्रमिकों पर पत्थर बरसाने लगते। हमलावरों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने के स्थान पर पुलिस हमले में घायल हुए भा.म. संघ के कार्यकर्ताओं व श्रमिक सदस्यों पर झूठे मुकदमे लगाकर हिरासत में ले लेती थी। इन विकट परिस्थितियों में सभी कार्यकर्ता हैरान व परेशान थे और इस संकट से निकलने का कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा था।

ऐसे में हम कुछ कार्यकर्ता श्री ठेंगड़ी जी से मिलने पहुँचे। कदाचित् ठेंगड़ी जी को समाचार ज्ञात हो चुके थे। हमारे पहुँचने पर उन्होंने कहा "मुझे मालूम है कि इस वक्त आप सब लोग संकट में हैं और यह देखकर मैं व्यक्तिगत रूप से प्रसन्न हूँ।" सुनकर हम सभी हैरान हुए। किंतु उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि "भा.म.संघ का कार्यकर्ता विपरीत परिस्थितियों में कुंदन की तरह तपकर निखरता है और अंततः विजय प्राप्त करता है। मुझे विश्वास है कि आप भी इस संघर्ष में विजय प्राप्त करेंगे और उस दिन आप जिस आनंद का अनुभव करेंगे, उसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मेरी शुभ कामनाएँ आपके साथ है।" इन शब्दों ने हमें एक नए उत्साह से भर दिया और कुल 37 दिनों के अथक संघर्ष के बाद हमने फैक्ट्री शुरू करने में सफलता पायी। इंटक व सरकार ने मुँह की खाई। बाद में हमारे सभी कार्यकर्ता न्यायालय से बाइज्जत बरी हुए।

आज श्रद्धेय ठेंगड़ी जी हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके कहे शब्द आज भी कानों में गूँजते हैं और नया जोश व प्रेरणा प्रदान कर जाते हैं।

पागलों की सभा में एक पागल

राजेश्वर दयाल शर्मा

वरिष्ठ कार्यकर्ता, भा.म. संघ

मेरठ-आगरा

एक पुरानी घटना है। 26, 27, एवं 28 दिसंबर 1987 को बैंगलोर में भारतीय मजदूर संघ का अखिल भारतीय अधिवेशन संपन्न हुआ था। सौभाग्य से उस अधिवेशन में कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने हेतु अखिल भारतीय सह सरकार्यवाह श्रद्धेय शेषाद्रि जी आए हुए थे। उनका बौद्धिक प्रारंभ हो उससे पूर्व एक कार्यकर्ता उनका परिचय कराने के लिए मंच पर आया लेकिन श्रद्धेय माननीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी जी ने उनको आग्रहपूर्वक बैठा दिया बोले परिचय मैं कराता हूँ।

मान्यवर ठेंगड़ी जी ने भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि आजादी के पूर्व एक समय था जबकि राष्ट्र के लिए अपना सभी कुछ समर्पित करने वालों की एक लम्बी संख्या थी जो राष्ट्र के खातिर अपना सभी कुछ यहाँ तक कि प्राण भी न्योछावर करने के लिए प्रतिपल तैयार रहते थे। परंतु अब हम आजाद हैं, हमारा देश आजाद है इसीलिए अब वैसे पागल लोग भारतवर्ष में नहीं हैं। अब चतुर लोगों का साम्राज्य है जो अपने लिए, परिवार के लिए सभी कुछ लाने के लिए अवसर की तलाश में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। परंतु अपने भारत देश के ऐसे माहौल में आज भी समूचे भारतवर्ष में एक ऐसा कारखाना चल रहा है जहाँ पर देश के खातिर अपना सभी कुछ न्योछावर करने वाले पागलों का निर्माण किया जाता है। वह ऐसे कारखाने के निर्मित पागल हैं जो भारत माता के लिए अपना सभी कुछ अपने प्राण, अपना जीवन, अपनी शैक्षिक योग्यता माने सभी कुछ न्योछावर करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं।

ऐसे पागलों का जहाँ निर्माण होता है आज सौभाग्य से उन पागलों का उत्पादन करने वाले कारखाने के डिप्टी डायरेक्टर जिनको संघ की भाषा में सह सरकार्यवाह कहा जाता है अपने बीच में उपस्थित हैं। मान्यवर शेषाद्रि जी का यह परिचय पाकर उपस्थित सभी कार्यकर्ता बहुत प्रसन्न हुए, ठहाके लगाए और जोरदार ढंग से बहुत देर तक ताली बजाते रहे। मान्यवर श्रद्धेय सह-सरकार्यवाह शेषाद्रि जी जब उद्बोधन करने के लिए मंच पर आए तो उन्होंने कहा कि आज मैं असली परिचय पाकर बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे बहुत खुशी है यह जानकर कि मैं पागल हूँ और यह जानकर और भी ज्यादा प्रसन्न हूँ जो अपना असली परिचय जानकर हँस वह सभी भी पागल हैं, यह जानकर बहुत प्रसन्न होकर ताली बजाकर मेरा भी स्वागत कर रहे हैं। यह एक ऐसा शुभ समय है जबकि एक पागल सौभाग्य से अनेक पागलों की सभा के बीच उपस्थित है।

दत्तोपंत ठेंगड़ी -दृष्टा और सृष्टा

सरोज मित्र

राष्ट्रीय सह-संयोजक स्वदेशी जागरण मंच

नई दिल्ली

एक के बाद एक संगठन निर्माण करना, राष्ट्रहित में उन संगठनों और कार्यकर्ताओं को प्रेरित करना तथा लक्ष्य प्राप्ति पर पूर्ण विश्वास, भविष्य के बारे में भी निश्चित बताना, यह ठेंगड़ी जी ने किया है। रेनेसा (Renaissance) स्वर्णयुग, विकास के शीर्ष स्थान पर पहुँचकर विश्व का नेतृत्व करने वाला भारत का सपना ठेंगड़ी जी देख रहे थे। कर्मयोगी के रूप में निरंतर कार्यरत और मौलिक चिंतन के द्वारा भविष्य के पथ का अवलोकन करने की क्षमता उनमें थी। श्री गुरुजी के प्रति अपार श्रद्धा, विश्वास और वे उनकी प्रेरणा के केंद्र थे।

ठाणे बैठक , 1972

अक्टूबर 29 नवंबर 2, 1972 में ठाणे में विविध संगठन और संघ कार्यकर्ताओं की बैठक श्री गुरुजी ने संबोधित की थी। हिंदू शब्द को छोड़कर अपना मत व्यक्त करने की प्रवृत्ति पर गुरुजी ने दिशा-निर्देश किया। हम लोग (मजदूर संघ) ठेंगड़ी जी से पूछने पर उन्होंने बताया कि गुरुजी जो चाहते हैं हमें सीधा बताएंगे। दूसरे दिन श्रीगुरुजी ने यूरोप में विकसित विभिन्न मतवाद जैसा, फेबियन सोसोलिज्म, सिंडीकेलिज्म, कम्युनिज्म आदि चिंतन के ऊपर भाषण दिया। भाषण समाप्ति के बाद श्री गुरुजी बोले, 'दत्तोपंत अब तक मैंने सबकुछ ठीक कहा?' ठेंगड़ी जी ने उत्तर दिया, 'हमारे यहाँ विवाह के निमंत्रण पत्र के लिफाफे के अंदर अपरिवर्तित रहता है, सिर्फ पता बदलता है। उनके वहाँ लिफाफे के पता बदलने के साथ अंदर का विषय (वर-वधू का नाम) भी बदल जाता है।' जोरदार हँसी के बाद श्रीगुरुजी बोले, 'दत्तोपंत अपना विचारदाता (Thought giver) है। राज्यसभा के सदस्य के नाते उनका विभिन्न विषयों पर भाषण सुनने के बाद प्रधानमंत्री के निकटतम लोगों ने उनको पूछा था कि आप किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, गोलवलकर या जनसंघ गोलवलकर, ठेंगड़ी जी का उत्तर था।

श्रीगुरुजी, दीनदयाल उपाध्याय और ठेंगड़ी जी की विचार अभिव्यक्ति एक ही तार की झंकार है। (same wave length)। श्रीगुरुजी ने इस बैठक में मार्क्स के विचार के साथ सामंजस्य रखने वाले विष्णु बाबा ब्रह्मचारी के नाम का उल्लेख किया था। उपस्थित लोगों में से सिर्फ ठेंगड़ी जी और बाबूराव जी पालधीकर ही बाबा ब्रह्मचारी को जानते थे। इस बैठक में श्रीगुरुजी द्वारा दिए गए अभिभाषण में देश की आर्थिक नीति के बारे में संकेत दिया गया था और उसी को आधार मानकर ठेंगड़ी जी ने कुछ व्यावहारिक बातों का हिंदू अर्थशास्त्र किताब के मुख्य पृष्ठ पर उल्लेख किया है।

ठेंगड़ी जी एक दिन अपने निवास स्थान 57, साउथ एवेन्यू, नई दिल्ली में दोपहर को पहुँचे और अपने साथ मुझे चलने के लिए कहा। कई महीने में कड़ी धूप में बनियान पहनकर मैं ठेंगड़ी जी के साथ निकला। आधा किलोमीटर चलकर एक झोपड़ी के पास पहुँचकर, ठेंगड़ी जी के बुलाने पर मैला कपड़ा पहना हुआ एक आदमी आया और उन्हें नमस्कार किया। वह उनका मोची था। आगे बढ़े तो एक परिवार मकान के बाहर आया, वे उनके धोबी थे। इसी प्रकार नाई, सफाई कर्मचारी आदि से मिलकर पूरा साउथ एवेन्यू का चक्कर काटकर हमलोग हरि की दुकान पारकर एक पेड़ के नीचे बैठे। ठेंगड़ी जी ने बताया कि हर साल वे इन लोग से मिलते हैं। 3 बजे ठेंगड़ी जी ने नागपुर जाने के लिए रेलवे स्टेशन के लिए प्रस्थान किया। शाम को दिल्ली विश्वविद्यालय के दो अध्यापक पहुँचे। उनमें से एक का पी.एच.डी. के लिए लिखा गया थिसिस ठेंगड़ी जी की टेबल पर रखा था। थिसिस का शीर्षक था 'द्वंद्वात्मक वस्तुवाद और अनाशक्त योग" (Dilectical materialism vs Anashakt Yoga) I

ठेंगड़ी जी को इस थिसिस पर अपना मंतव्य देना था। अध्यापक ने मुझसे पूछा,' ठेंगड़ी जी को इस थिसिस को पढ़ने के लिए कब समय मिलता है? आज यह अनुभव हो रहा है कि कर्मयोगी के नाते ठेंगड़ी जी अनाशक्त भाव के जीते-जागते प्रतीक थे। राजनेता की समय सारणी 5 साल की होती है। (Politician thinks of next 5 years). सामाजिक नेता की समय सारणी 10 साल की होती है। (Statesman thinks of next 10 years) साधुसंत की समय सारणी 100 साल की होती है। (A Nation Builder thinks of 100 years) I

यह बात ठेंगड़ी जी ने कही थी। इसलिए ठेंगड़ी जी के शब्दों के द्वारा उनको संतों के स्थान पर अधीष्ठित करना उचित होगा, जैसे गंगा पूजा गंगाजल से ही होती है।

शरीर साथ नहीं देता तो शरीर छोड़ना पड़ता है पर शरीर के बिना काम किया जाता है। यह बात श्रीगुरुजी ने ठेंगड़ी जी को कही थी। मैंने इस विषय पर ठेंगड़ी जी से चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि श्रीगुरुजी को लगा कि मैं इस कथन पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ इसलिए गुरुजी आगे बोले, 'विवेकानंद को शरीर छोड़ने के बाद जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसको उन्होंने अरविन्द को बताया और श्री अरविन्द ने इसको क्रियान्वित किया।

1968 में ठेंगड़ी जी सोवियत रूस भ्रमण से वापस आने के बाद कटक में उनका भाषण हुआ। भाषण का विषय था- 'साम्यवाद से रूस पीछे हट रहा है।

भुवनेश्वर से पुरी जाते समय ठेंगड़ी जी ने जगन्नाथ जी के रथ यात्रा के दौरान की एक घटना के बारे में बताया। रथ खींचते समय लोग रस्सी. रथ का पहिया और सड़क को प्रणाम करते हैं। इससे ये सब अपने को देवता समझते हैं। यह देखकर जगन्नाथ जी मुस्कराते हैं। यह बात रविन्द्रनाथ ठाकुर की कविता में है। ठेंगड़ी जी बोले, हम लोग भाषण देते समय भीड़ देखकर खुद को बड़ा समझते हैं, उस समय शायद गुरुजी हँसते होंगे।

बम धमाका , कलकत्ता

अजय मुखर्जी और ज्योति बसु बंगाल में 1969-70 में राज कर रहे थे। इस दौरान भारतीय मजदूर संघ की कार्यसमिति की बैठक पथुरिया घाट स्ट्रीट कलकत्ता में हुई। उस समय सी.पी.एम. के कार्यकर्ता के द्वारा भयंकर हिंसा फैलाने के कारण लोग रात्रि को घर से बाहर जाने में डरते थे। कार्यसमिति की बैठक जिस स्थान पर हो रही थी वहाँ पर एक बम फेंका गया, जिससे एक खिड़की ध्वस्त हो गई। दूसरे दिन मोहम्मद अली पार्क कलकत्ता में सार्वजनिक सभा हुई। वहाँ पर ठेंगड़ी जी ने भाषण द्वारा सी. पी. एम. को चेतावनी दी कि पश्चिम बंगाल में कोई भी मजदूर संघ के कार्यकर्ता को वे हाथ लगायेंगे तो पूरे देश भर में उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इस चेतावनी के कारण पश्चिम बंगाल में मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को सी.पी.एम. के दीर्घ अवधि के शासन काल में कोई परेशानी नहीं हुई।

संक्षेप में ठेंगड़ी जी के विचार

विश्व के दक्षिण भाग में बसे हुए देश सभी प्रकार के प्राकृतिक संपदा से पूर्ण होते हुए भी उत्तर के देशों के द्वारा शोषित होते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था पश्चिम द्वारा नियंत्रित होती है। यह शोषण रहित व्यवस्था न होकर बाजारवाद पर आधारित है, इसमें परिवर्तन होना चाहिए। अमेरिका की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और रूस की साम्यवादी अर्थव्यवस्था को त्यागकर एक तृतीय विकल्प (थर्ड वे) भारत को प्रस्तुत करना होगा।

पश्चिमीकरण आधुनिकीकरण नहीं है। पश्चिम के मापदण्डों द्वारा भारत जैसे प्राचीन देश को तोलना सर्वथा ठीक नहीं है।

भारतीय तथा पश्चिमी दर्शन एवं विचार का रेखांकन (Graphic Presentation)

भारतीय दर्शन, एकात्म मानव या अखंड मंडलाकारम् व्याप्त येन चराचरम के साथ पश्चिम के विचार को रेखांकित कर ठेंगड़ी जी ने अपने उच्चतम प्रतिभा का परिचय दिया है।

Western Paradigm (पश्चिमात्य दर्शन)

Individual (व्यक्ति) व्यक्ति और शेष सब अपने

Family (परिवार) घेरे में बंद हैं। कोई किसी

Society (समाज) से जुड़ा हुआ नहीं है।

Nation (राष्ट्र)

World (विश्व)

Hindu Paradigm (हिंदू दर्शन)

Individual (व्यक्ति) एक बिंदु (व्यक्ति) सबसे जुड़ा हुआ है

Family (परिवार)

Society (समाज)

Nation (राष्ट्र)

Infinity (ब्रह्मांड)

पश्चिमी अवधारणा के अंतर्गत व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व स्वतंत्र सत्ता है।

हिंदू अवधारणा में व्यक्ति से पूरा जगत् एक ही सत्ता की अभिव्यक्ति है।

अखिल भारतीय अधिवेशन की जानकारी

प्रथम (1967) से सत्रहवें (2014) तक प्रत्येक अधिवेशन में निर्वाचित अध्यक्ष व महामंत्री की जानकारी:

प्रथम अधिवेशन : -

दिनांक : 12-13 अगस्त, 1967 (दिल्ली) :

उद्घाटनकर्ता : श्री दादा साहेब गायकवाड़

अध्यक्ष : श्री दादा साहब कांबले

महामंत्री : श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

द्वितीय अधिवेशन : -

दिनांक : 11-12 अप्रैल, 1970 (कानपुर)

उद्घाटनकर्ता : श्री न्यायमूर्ति श्री मिट्ठन लाल

अध्यक्ष : श्री विनय कुमार मुखर्जी

महामंत्री : श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

तृतीय अधिवेशन : -

दिनांक : 22-23 मई, 1972 (मुंबई )

उद्घाटनकर्ता : श्री आर. जे. मेहता, वरिष्ठ मजदूर नेता

अध्यक्ष : श्री विनय कुमार मुखर्जी

महामंत्री : श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

चतुर्थ अधिवेशन : -

दिनांक : 19-20 अप्रैल, 1975 (अमृतसर)

उद्घाटनकर्ता : श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

अध्यक्ष : श्री नरेश चन्द्र गांगुली

महामंत्री : श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

 

पंचम अधिवेशन : -

दिनांक : 21-23 अप्रैल, 1978 (जयपुर)

उद्घाटनकर्ता : श्री रविन्द्र वर्मा, केंद्रीय श्रम मंत्री

अध्यक्ष : श्री नरेश चन्द्र गांगुली

महामंत्री : श्री रामनरेश सिंह (बड़े भाई)

षष्ठम् अधिवेशन : -

दिनांक : 7-8 मार्च, 1981 (कलकत्ता)

उद्घाटनकर्ता : श्री नरेश दत्त मजुमदार, प्रसिद्ध श्रमिक नेता

अध्यक्ष : श्री नरेश चन्द्र गांगुली

महामंत्री : श्री रामनरेश सिंह (बड़े भाई )

सप्तम अधिवेशन : -

दिनांक : 9-11 जनवरी 1984 (हैदराबाद )

उद्घाटनकर्ता : जस्टिस एच. आर. खन्ना

अध्यक्ष :श्री मनहर भाई मेहता

महामंत्री : श्री रामनरेश सिंह (बड़े भाई)

अष्टम अधिवेशन : -

दिनांक : 26-28 दिसंबर, 1987 (बंगलोर)

उद्घाटनकर्ता : श्री एम. बी. कामथ, वरिष्ठ पत्रकार

अध्यक्ष : श्री मनहर भाई मेहता

महामंत्री : श्री प्रभाकर घाटे

नवम अधिवेशन : -

दिनांक : 21-22 फरवरी, 1991 (बड़ोदरा)

उद्घाटनकर्ता : श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी

अध्यक्ष : श्री रमण भाई शाह

महामंत्री : श्री राजकृष्ण भक्त

 

दशम अधिवशन : -

दिनांक : 18-20 मार्च, 1994 (धनबाद)

उद्घाटनकर्ता : श्री पी. ए. संगमा, श्रम मंत्री, भारत सरकार।

अध्यक्ष : श्री राजकृष्ण भक्त

महामंत्री : श्री हसुभाई दवे

एकादशम अधिवेशन : -

दिनांक : 28-30 अक्टूबर, 1996 (भोपाल)

उद्घाटनकर्ता : श्री एच. वी. शेषाद्रि, सरकार्यवाह रा. स्व. संघ

अध्यक्ष : श्री रमण भाई शाह

महामंत्री : श्री हसुभाई दवे

द्वादशम अधिवेशन : -

दिनांक : 15-17 फरवरी, 1999 (नागपुर)

उद्घाटनकर्ता : श्री पी. परमेश्वरन, अध्यक्ष, विवेकानन्द केंद्र

अध्यक्ष : श्री रमण भाई शाह

महामंत्री : श्री हसुभाई दवे

त्रयोदशम अधिवेशन : -

दिनांक : 22-24 फरवरी, 2002 ( तिरुअनन्तपुरम)

उद्घाटनकर्ता : श्री रविन्द्र वर्मा, अध्यक्ष द्वितीय श्रम आयोग

अध्यक्ष : श्री हसुभाई देवे

महामंत्री : श्री उदय पटवर्धन

चतुर्दशम अधिवेशन : -

दिनांक : 3-5 अप्रैल, 2005 (दिल्ली)

उद्घाटनकर्ता : श्री रमण भाई शाह

अध्यक्ष : श्री गिरीश अवस्थी

महामंत्री : श्री उदय पटवर्धन

पंचदशम अधिवेशन : -

दिनांक : 5-7 अप्रैल, 2008 कटक (उड़ीसा)

श्री मोहन राव भागवत, सरकार्यवाह रा. स्व. संघ

अध्यक्ष : श्री गिरीश अवस्थी

महामंत्री : श्री लक्ष्मा रेड्डी

षष्टदशम अधिवेशन : -

दिनांक : 19-21 फरवरी, 2011 जलगाँव (महाराष्ट्र)

उद्घाटनकर्ता : श्री मदनदास जी, सह सरकार्यवाह रा.स्व.संघ

अध्यक्ष : श्री सी. के. सजीनारायण

महामंत्री : श्री बैजनाथ राय

सप्तदशम अधिवेशन : -

दिनांक : 19-21 फरवरी 2014 (जयपुर)

उद्घाटनकर्ता : श्री भय्या जी जोशी सरकार्यवाह रा.स्व.संघ

अध्यक्ष : श्री बैजनाथ राय

महामंत्री : श्री विरजेश उपाध्याय

 

लेखक परिचय

जन्म 21 जुलाई 1939 ग्राम घगवाल (जम्मू)। वर्ष 1957 में हाई स्कूल के उपरान्त एम. जी. सांईस कालेज, जम्मू में दाखिला। वहीं 1959 में रा. स्व. संघ प्रवेश | संघ शिक्षण तृतीय वर्ष। स्वयंसेवक के नाते नगर, जिला व विभाग स्तर पर संघ शाखा दायित्वों का निर्वहन। केंद्र सरकार प्रतिरक्षा उत्पादन विभाग में सर्विस के दौरान 1966 में भारतीय मजदूर संघ से अमरनाथ डोगरा जुड़ना हुआ। वर्ष 1997 राजपत्रित अधिकारी पद से सेवा निवृत्त।

 

भारतीय मजदूर संघ में दायित्व--- भारतीय प्रतिरक्षा मजदूर महासंघ के अखिल भारतीय मंत्री (1968) तदुपरान्त उपाध्यक्ष पंजाब प्रदेश भा.म. सं. मंत्री (1970)। दिल्ली प्रदेश मंत्री (1978) तदुपरान्त प्रदेश अध्यक्ष भा.म.सं. केंद्रीय कार्यसमिति सदस्य (1981) तदुपरान्त केंद्रीय मंत्री व उपाध्यक्ष सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सहभागिता और सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों, समितियों में प्रतिनिधित्व। देश-विदेश प्रवास | सेवा निवृत्ति उपरान्त दिल्ली में स्थाई निवास

पुस्तक लेखन - डब्ल्यु टीओ तोड़ो मोड़ो छोड़ो, भा.म.सं. बढ़ते चरण, प्रतिबद्ध कार्यकर्ता : प्रेरक प्रसंग, स्वामी विवेकानन्द : औद्योगिक आर्थिक चिंतन, सौगात (कविता संग्रह) तथा बड़े भाई स्मृति ग्रंथ का संकलन संपादन।

सम्प्रति सेवा निवृत्ति वर्ष 1997 के पश्चात् स्वैच्छिक 'वन लाईफ-वन मिशन' भावना के अंतर्गत अवैतनिक पूरा समय भा.म. सं. संगठन कार्य में लगा रहे हैं।


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